सपा कांग्रेस गठबंधन से त्रिकोणीय हुई लड़ाई

-आशीष वशिष्ठ

आखिरकार कांग्रेस और सपा के गठबंधन पर मुहर लग ही गई। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय षुरू हुई तीखी बयानबाजी और तल्ख रिशतों के बीच तमाम ऐसे मौके आए, जब लगा कि यह गठबंधन सिरे नहीं चढ़ेगा। लेकिन अंत भला तो सब भला। सीटों का बंटवार ऐसे समय हुआ है जब राहुल गांधी की भारत जोड़ों न्याय यात्रा उत्तर प्रदेष में है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या सपा कांग्रेस का गठबंधन भाजपा को चुनौती दे पाएगा? क्या कांग्रेस और सपा के साथ से उत्तर प्रदेश की राजनीतिक समीकरण और नतीजे बदलेंगे? क्या सपा कांग्रेस की दोस्ती से बसपा का नुकसान होगा? क्या सपा और कांग्रेस मिलकर भाजपा के चार सौ पार के मिशन को यूपी में रोकने में सफल होंगे?

कांग्रेस और सपा दोनों की जमीनी स्थिति ऐसी है कि मतभेद और मनभेद के बाद भी दोनों को गठबंधन करना पड़ा। दरअसल, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा का सियासी आधार एक ही वोट बैंक पर टिका है, वो मुस्लिम मतदाता हैं। सपा इस बात को बखूबी जानती है कि अगर एक बार मुस्लिम मतदाता उसे छिटकर कांग्रेस के पाले में चला गया तो उसे दोबारा वापस लाना मुश्किल हो जाएगा। हाल में हुए चुनाव का वोटिंग पैटर्न को देखें तो मुस्लिम वोटर एक बार फिर से कांग्रेस की तरफ लौट रहा है, खासकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद से सियासी हालात बदले हैं। ऐसे में तमाम दल जो कांग्रेस के कोर वोट बैंक पर काबिज और अपने अपने राज्य में बड़े भाई की भूमिका में हैं. ऐसे में वे कांग्रेस को दोबारा से उभरने का मौका नहीं देना चाहते हैं। सीट बंटवारे में जो देरी हुई उसकी वजह मुस्लिम बहुल सीटें ही बतायी जाती हैं। फिलवक्त सपा प्रमुख पीडीए का फार्मूला जमीन पर उतारने के लिए मेहनत कर रहे हैं।

सीट बंटवारे में कांग्रेस के हिस्से में 17 सीटें आई हैं। जबकि समाजवादी पार्टी 63 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। समाजवादी पार्टी चंद्रशेखर आजाद की ’आजाद समाज पार्टी’ समेत कुछ छोटे दलों को अपने कोटे से सीट दे सकती है. यानी अखिलेश यादव और सपा को तय करना है कि गठबंधन में सपा के साथ बाकी कौन सी पार्टियां 63 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। यूपी में 7 साल बाद कांग्रेस और सपा दोबारा एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। दोनों दलों ने साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा था।

सीट बंटवारे को लेकर हुए समझौते के तहत कांग्रेस अमेठी, रायबरेली, कानपुर नगर, फतेहपुर सीकरी, बांसगांव, सहारनपुर, प्रयागराज, महराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, झांसी, बुलंदशहर, गाज़ियाबाद, मथुरा, सीतापुर, बाराबंकी और देवरिया सीट पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। सपा ने कुछ सीटों पर प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है। सीट बंटवारा होने के बाद वाराणसी समेत कुछ सीटों पर उम्मीदवारों के नाम वापस लिए जा सकते हैं। सपा ने वाराणसी सीट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सुरेंद्र सिंह पटेल को उतारा है। सीट बंटवारे के बाद ये सीट कांग्रेस के कोटे में चली गई है। ऐसे में यहां से उम्मीदवार वापस लिया जाएगा।

कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने व उसके कोटे की सीटें बढ़ाने के पीछे दो अहम फैक्टर माने जा रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि रालोद के जाने के बाद सपा के पास उसके कोटे की 7 सीटें खाली थीं। कांग्रेस को पहले ही 11 सीट का वादा किया जा चुका था। इसमें रायबरेली-अमेठी शामिल नहीं थी। इनको मिला लें तो 13 सीटों पर सपा पहले ही तैयार थी। रालोद के जाने के बाद उदारता दिखाना आसान हो गया। अंदरखाने यह भी फीडबैक था कि अल्पसंख्यक वोटरों में कांग्रेस को लेकर रुझान बेहतर हुआ है।

प्रदेश की 25 से अधिक लोकसभा सीटों पर अल्पसंख्यक वोटरों की भूमिका प्रभावी है। ऐसे में कांग्रेस के अलग लड़ने से इन वोटरों के बंटवारे का भी खतरा था, जिसका सीधा नुकसान सपा को हो सकता था। हाल में राज्यसभा के टिकट सहित अन्य मसलों को लेकर भी सपा में मुस्लिमों की भागीदारी को लेकर सवाल उठे थे। इसलिए भी सपा ने वोटरों में एकता का संदेश देने का दांव खेला है। हालांकि, सीटों के बंटवारे में उसके कोर वोटरों को किसी और के पाले में खिसकने का खतरा न हो, इस पर सपा ने खास ध्यान दिया है। कांग्रेस को मिली सीटों में अमरोहा और सहारनपुर ही ऐसी है, जहां अल्पसंख्यक वोटर चुनाव का रुख बदलने की क्षमता रखते हैं।

उत्तर प्रदेष के चुनावी मैदान में कांग्रेस भले 17 सीटों पर उतरेगी, लेकिन जानकारों का मानना है कि गठबंधन में वह अधिक फायदे में है। जो 17 सीटें उसे मिली हैं, उसमें रायबरेली ही उसके खाते में है। जबकि, अमेठी, कानपुर व फतेहपुर सीकरी में कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी। बांसगांव में पार्टी ने प्रत्याशी ही नहीं उतारा था। बाराबंकी, प्रयागराज, वाराणसी, झांसी, गाजियाबाद में सपा दूसरे नंबर पर थी। 2019 में कांग्रेस ने 1977 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन किया था और उसके एक सीट मिली थी। वोट 7 प्रतिशत से भी नीचे आ गए थे।

यदि 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, बीजेपी ने अकेले दम पर 71 सीटों के साथ 42.63 फ़ीसदी वोट हासिल किए थे। समाजवादी पार्टी को 22.35 फ़ीसदी वोट और पांच सीटें मिली थीं लेकिन बीएसपी को 19.7 फ़ीसदी वोट मिलने के बावजूद वो एक भी सीट नहीं जीत पाई। वहीं कांग्रेस महज़ 7.53 फ़ीसदी मतों के बावजूद दो सीटें जीतने में क़ामयाब हो गई थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में वह 2 सीट पर सिमट गई। इसके बाद भी 17 सीटें मिलना उसके लिए फायदे का सौदा है।

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने 2017 का विधानसभा चुनाव गठबंधन में लड़ा था। लेकिन इस गठबंधन का फ़ायदा होने की जगह दोनों को इसका नुकसान हुआ। कांग्रेस की 2012 के विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीती थीं। गठबंधन के बाद वो 7 सीटों पर सिमट गई। सपा को 2012 के विधानसभा चुनाव में 224 सीटें मिली थीं। वह इस बार 47 सीटों पर सिमट गई। यह पहली बार थी जब सपा की सीटों का आंकड़ा सौ से नीचे चला गया। असल में, कांग्रेस और सपा ने गणित लगाया था कि वे दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ेंगी तो दोनों का वोट प्रतिशत मिलकर उनकी जीत का कारण बन जाएगा। लेकिन भाजपा ने अभूतपूर्व बढ़त बनाई और पिछली विधानसभा के 15 प्रतिशत के मुक़ाबले 40 प्रतिशत के क़रीब पहुंच गई। उसे लोकसभा चुनाव में 42 प्रतिशत वोट मिले थे, विधानसभा चुनाव में उसके वोट प्रतिशत में ज़्यादा गिरावट नहीं आई। कांग्रेस का पिछले विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत 11.6 था जो कि 6.2 पर आ गया। सपा का वोट प्रतिशत 29.2 था जो कि 21.8 पर ठहर गया है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकारों की माने तो समाजवादी पार्टी का साथ मिलने के चलते अधिकतर सीटों पर कांग्रेस लड़ाई में आ सकेगी। हालांकि, 2019 में सपा व और बसपा जैसे दो बड़े जातीय क्षत्रपों के साथ रहने के बाद भी भाजपा गठबंधन ने यूपी में 64 सीटें जीत ली थीं। अमेठी व कन्नौज में तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ,कांग्रेस व रालोद सहित पूरा विपक्ष साथ लड़ा था, लेकिन जीत भाजपा को मिली थी।

इस बीच मिशन क्लीन स्वीप के लिए भाजपा जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभाव रखने वाले रालोद को वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के दलों को भी एनडीए में शामिल करने के साथ ही प्रभावशाली नेताओं को अपने पाले में लाने में जुटी हुई है। ऐसे में यह तो साफ है कि चुनाव में त्रिकोणीय लड़ाई देखने को मिलेगी। त्रिकोणीय लड़ाई होने से एनडीए को उन सीटों पर भी फायदा होने की उम्मीद है जहां खासतौर से मुस्लिम, दलित व पिछड़ों की आबादी है। सपा-कांग्रेस और बसपा में मतदाताओं के बंटने से एनडीए की जीत की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए, सपा-कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत के लिए जमीन पर और पसीना बहाना पड़ेगा।

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