बहादुरी का पर्याय माने जाने वाले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को वर्ष 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध का मुख्य नायक माना जाता है। दबंग सैन्य अधिकारी के तौर पर विख्यात सैम मानेकशॉ का पूरा नाम होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ है।
सैम बहादुर के नाम से लोकप्रिय मानेकशॉ का सैन्य करियर ब्रिटिश इंडियन आर्मी से शुरू हुआ था। करीब चार दशक के इस करियर में उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध, 1962 भारत-चीन युद्ध, 1965 भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लिया। उनकी निडरता और बेबाकी की कायल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी थीं।
वर्ष 1971 में हुए युद्ध में उनके नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप ही बांग्लादेश का निर्माण हुआ था। उनकी जिंदगानी पर मेघना गुलजार ने फिल्म सैम बहादुर बनाई है। फिल्म में शीर्षक भूमिका में विक्की कौशल हैं। इरादों के पक्के सैम से जुड़े तमाम किस्से मशहूर हैं। हालांकि, यह फिल्म उस स्तर की नहीं बन पाई है, जिसके वह हकदार थे।
कैसा है सैम बहादुर स्क्रीनप्ले?
मेघना गुलजार, भवानी अय्यर और शांतनु श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई पटकथा का आरंभ सैम के जन्म से होता है। फिर सीधे उनके फौज में भर्ती होने से लेकर उनकी सेवानिवृत्ति तक है। इसमें उनके जीवन से जुड़े सभी अहम पहलुओं को दर्शाया गया है। जब तक आप समझ पाएंगे, घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ जाएंगे।
अगर आपको सैम के बारे में जानकारी नहीं है तो फिल्म को समझने में दिक्कत पेश आना लाजमी है। हालांकि, फिल्म देखते हुए लगता है कि लेखकों ने मान लिया है कि दर्शक हर घटना को तीव्रता से समझ जाएंगे। साल 1942 में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की नौ गोलियां मानेकशा की आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दी थी।
उस शॉट को देखकर आप जब तक कुछ सोचते, उनके प्रति सहानुभूति महसूस कर पाते अगले ही दृश्य में सीने पर पट्टियां बांधे मानेकशा मुस्कुराते हंसते हुए नजर आते हैं, जबकि यह बहुत ही तनाव भरा पल था। वह जीवन और मृत्यु के लिए संघर्षरत थे। इसी तरह भारत में कश्मीर के विलय मसले को चटपट निपटा दिया गया है।
फिल्म में असल घटनाओं की तमाम क्लिपिंग का प्रयोग किया गया है। युद्ध के दृश्य, जो सैम के निर्णायक क्षमता को बताने के लिए फिल्म में बेहद महत्वपूर्ण हैं, बजट की कमी को दर्शाते हैं। दुखद स्थिति यह है, जब 1971 का युद्ध का प्रसंग आता है, तब गाने में तैयारियों और वास्तविक क्लिपिंग को दर्शाकर उसे निपटा दिया गया है।
इतने बड़े घटनाक्रम में न कोई तनाव है, न कोई उमंग न कोई जोश। मानेकशा से जुड़ी घटनाओं और विख्यात प्रसंग को दर्शाने में भावनाओं को पिरोना मेघना भूल गईं। वह घटनाओं को सतही तौर पर छूते हुए आगे बढ़ गईं। पाकिस्तानी पक्ष भी बहुत ही कमजोर है।
कैसा है कलाकारों का अभिनय?
कलाकारों की बात करें तो विक्की कौशल इससे पहले सरदार उधम फिल्म में उधम सिंह की भूमिका के लिए काफी सराहना बटोर चुके हैं। उन्होंने सैम के हावभाव, चाल-ढाल और वेशभूषा को समुचित तरीके से आत्मसात किया है। अपने अभिनय से उन्होंने सैम को जीने का भरपूर प्रयास किया है, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले की वजह वह संभाल नहीं पाते हैं।
कहीं-कहीं उनका उच्चारण भी एक समान नहीं रहता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को साहस-संघर्ष का प्रतीक और करिश्माई व्यक्तित्व का धनी माना जाता है। अफसोस उनके किरदार में यह सब नजर ही नहीं आता है। उनकी भूमिका में फातिमा सना शेख बेहद कमजोर लगी हैं।
वह इंदिरा के करिश्माई व्यक्तित्व को दर्शाने में विफल साबित हुई हैं। इंदिरा और मानेकशा के बीच आपसी तालमेल काफी अच्छा था, पर स्क्रीन पर वह नदारद है। मानेकशा की पत्नी सिल्लू की भूमिका में सान्या मल्होत्रा के हिस्से में कुछ खास नहीं हैं। जिन दृश्यों में वह नजर आई हैं, उनमें बेहद थकी हुई लगी हैं। प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले किरदार में वह तनिक भी असर नहीं छोड़तीं।
पाकिस्तानी जनरल याह्या खान की भूमिका में मोहम्मद जीशान अय्यूब जरूर थोड़ा प्रभावित करते हैं। बायोपिक फिल्म को बनाने के दौरान लेखक और निर्देशक सिर्फ केंद्रीय भूमिका पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसके चलते बाकी पात्रों को समुचित रूप से विकसित नहीं कर पाते। इस वजह से कहानी प्रभावी नहीं बन पाती है।
मानेकशा की बहादुरी भारतीय सेना की अप्रतिम शौर्य का प्रतीक है। उनकी विशालता को चित्रित करने के लिए पटकथा में कसाव बहुत जरूरी था। फिल्म देखते हुए कहीं से भी देशभक्ति का भाव जागृत नहीं होता। फिल्म में उनके विख्यात संवादों, घटनाओं और शैली के प्रयोग मात्र से कहानी दमदार नहीं बन सकती।