नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल के एक अमेरिकी बच्चे में यकृत (लीवर) प्रतिरोपित के लिए भारतीय मूल के उसके रिश्ते के एक भाई को अंगदान की अनुमति दे दी है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में पूरी तरह कानूनी अनिवार्यताओं पर विचार करना जरूरी नहीं लगता। उसने यह भी कहा कि इस मामले में उसके फैसले को किसी अन्य मामलों में मिसाल के तौर पर नहीं लिया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने डिकम्पनसेटिड बाइलियरी सिरोसिस (डीबीसी) के उपचार के लिए गुरुग्राम के एक निजी अस्पताल में भर्ती बच्चे का जीवन बचाने को प्राथमिकता दी। डीबीसी यकृत के काम नहीं करने पर पैदा होने वाली स्थिति है, जिसमें रोगी को केवल प्रतिरोपण से ही बचाया जा सकता है। जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस एम एम सुंदरेश की पीठ को मानव अंग और ऊतक प्रतिरोपण अधिनियम की धारा नौ के रूप में एक कानूनी चुनौती से निपटना था, जो बच्चे को उसके दूर के भारतीय रिश्तेदार द्वारा यकृत दान करने के रास्ते में आड़े आ रही थी।
सुप्रीम कोर्ट ने अंगदान पर लिया संज्ञान
कानून की उक्त धारा ऐसे मामलों में अंगदान पर रोक लगाती है जहां प्राप्तकर्ता विदेशी हो और अंगदान करने वाला उसका करीबी रिश्तेदार नहीं हो। करीबी रिश्तेदारों में पति-पत्नी, बेटा, बेटी, पिता, माता, भाई, बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, नाती या नातिन और पौत्र या पौत्री आते हैं। चचेरे या अन्य दूर के रिश्ते वाले भाई-बहनों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अंग प्राप्त करने वाले और अंगदान करने वाले याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन तथा वकील नेहा राठी की दलीलों पर संज्ञान लिया।
रिश्ते के भाई ने अंगदान की पेशकश की थी
पीठ ने नौ नवंबर के अपने आदेश में मामले के विवरण पर और उक्त कानून के तहत काम करने वाली समिति की रिपोर्ट पर संज्ञान लिया था। यह समिति अंगदान करने वाले और प्राप्त करने वाले मरीज द्वारा वैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करने की स्थिति में अंगदान की मंजूरी देती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर गौर किया कि बच्चे को उसकी खराब होती सेहत को देखते हुए तत्काल यकृत प्रतिरोपण की जरूरत है। इस मामले में बच्चे के माता-पिता के अंगदान के लिए उपयुक्त नहीं पाये जाने पर रिश्ते के भाई ने अंगदान की पेशकश की थी लेकिन उक्त कानून की धारा नौ आड़े आ रही थी।