चंदे का स्रोत नागरिकों को जरूर बताया जाए..

अजीत द्विवेदी

यह कमाल की बात है, जो सरकार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की लहर पर चुनाव जीती और जिसने सार्वजनिक जीवन में सम्पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित करने का वादा किया वह सुप्रीम कोर्ट में कह रही है कि देश के नागरिकों को यह जानने का अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को कहां से चंदा मिलता है और कौन कितना चंदा देता है! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने को फकीर बताते हैं, उन्होंने ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा का नारा दिया और हर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंच से बताते हैं कि भारत ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी है लेकिन उनके सबसे बड़े कानूनी अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि नागरिकों को राजनीतिक दलों के चंदे के बारे में जानने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। सोचें, जब यही अधिकार नहीं है तो बाकी किसी अधिकार का क्या मतलब है? देश के नंबर एक कानूनी अधिकारी यानी अटॉर्नी जनरल को पता था कि जब वे कहेंगे कि नागरिकों को चंदे के बारे में जानने का मौलिक अधिकार नहीं है तो सूचना के अधिकार का मुद्दा उठेगा। तभी उन्होंने लगे हाथ यह भी कह दिया कि सूचना का अधिकार सीमित है। यानी राजनीतिक दलों के चंदों के मामले में सूचना का अधिकार लागू नहीं होता है

सोचें, यह कितनी हैरानी की बात है। राजनीतिक दलों का चंदा कौन सा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला है, जो उसके बारे में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी नहीं मिल सकती है? जब देश के नागरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि वे हर राजनीतिक दल के उम्मीदवारों के बारे में यह जान सकें कि उसके ऊपर कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, उसकी संपत्ति कितनी है, उसके ऊपर कितना कर्ज है, वह कितना पढ़ा-लिखा है तो राजनीतिक दलों के चंदे के बारे में जानने से उसे कैसे रोका जा सकता है? किस राजनीतिक दल के पास कितनी संपत्ति है, उसके खाते में कितना पैसा जमा है, किस साल उसे कितना चंदा मिला और किस चुनाव में उसने कितना खर्च किया यह सारी जानकारी दी जाती है फिर यह बताने में क्या दिक्कत है कि वह चंदा उसे किसने दिया?

यह भी हैरानी की बात है कि 2017 में राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था लागू करने का कानून बना तो कहा गया कि इससे राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता आएगी। लेकिन असल में जो थोड़ी बहुत पारदर्शिता पहले से थी उसे भी इस कानून के जरिए समाप्त कर दिया गया। असल में यह कानून इसलिए बनाया गया ताकि लोगों को पता नहीं चल सके कि सत्तारूढ़ दल को कौन कितना चंदा दे रहा है। यह हकीकत है कि सिर्फ सत्तारूढ़ दल के चंदे का ही पता नहीं चल पाता है। विपक्षी पार्टियों को किसने चंदा दिया यह सरकार को पता होता है तो जाहिर है कि सत्तारूढ़ दल को भी पता चल ही जाता होगा। ध्यान रहे चुनावी बॉन्ड की बिक्री सिर्फ एक सरकारी बैंक के जरिए होती है और कंपनियों के आयकर रिटर्न में भी इस बात की जानकारी होती है कि उन्होंने कितने का चुनावी बॉन्ड खरीदा और उसे किस पार्टी को दिया। इसलिए सरकार को यह पता होता है कि कौन कारोबारी या निजी व्यक्ति किसी विपक्षी पार्टी को कितना चंदा देता है।

सोचें, यह बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए कितनी खतरनाक स्थिति है? जब सब कुछ खुला था तब की बात अलग थी। लेकिन जब सरकार ने कानून बना कर सुनिश्चित किया है कि सिर्फ उसे पता चले कि कौन व्यक्ति किस पार्टी को कितना चंदा दे रहा है तो फिर कोई कारोबारी या निजी व्यक्ति क्यों किसी विपक्षी पार्टी को चंदा देगा? उसे इस बात का खतरा हमेशा रहेगा कि सरकार उसके प्रति पूर्वाग्रह पाल सकती है। तभी यह अनायास नहीं है कि चुनावी बॉन्ड के जरिए जो चंदा दिया जा रहा है उसका बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ दल यानी भाजपा के खाते में जा रहा है। बचा-खुचा जो चंदा विपक्षी पार्टियों को जाता है वह भी निश्चित रूप से सरकार की सहमति से जाता होगा ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे। चंदे की इस व्यवस्था में दो खतरे और हैं। पहला तो यह कि चुनावी बॉन्ड के कानून से यह सीमा हटा दी गई है कि कोई भी कंपनी अपने तीन साल के औसत शुद्ध लाभ के साढ़े सात फीसदी से ज्यादा राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती है। इसका मतलब है कि कोई कंपनी सरकारी दल को खुश करने के लिए कितना भी चंदा दे सकती है। दूसरा खतरा यह है कि शेल यानी फर्जी कंपनियों के जरिए पार्टियों को भारी-भरकम चंदा दिया जा सकता है। इससे चुनावी प्रक्रिया और सरकार की शुचिता दोनों प्रभावित हो सकते हैं।

असल में पहले दिन से चुनावी बॉन्ड का मामला संदिग्ध था और तभी सरकार ने इसे धन विधेयक के तौर पर पास करके कानून बनाया। ध्यान रहे 2017 में केंद्र की भाजपा सरकार के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं था। अब तो वह बहुमत के काफी करीब पहुंच गई है लेकिन उस समय भाजपा और एनडीए दोनों बहुमत से बहुत दूर थे। तभी चुनावी बॉन्ड को धन विधेयक के तौर पर लोकसभा में पेश किया गया और वहां से पास करा कर इसे कानून बना दिया गया। इस मसले पर भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता खत्म करने की बात चली है तो यह बताना भी जरूरी है कि केंद्र की इसी सरकार ने विदेशी चंदे के मामले में पहले से चले आ रहे कानून को बदल कर यह सुनिश्चित किया कि किसी भी राजनीतिक दल को विदेश से मिलने वाले चंदे की जांच नहीं हो सकती है। इस तरह दिल्ली हाई कोर्ट के एक फैसले को केंद्र सरकार ने निरस्त कर दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा और कांग्रेस दोनों को 1976 से अब तक मिले विदेशी चंदे का हिसाब देना होता।

बहरहाल, देश की बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और इसके बेहतर संचालन के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों के बीच बराबरी का मैदान हो। भारत में और दुनिया के अनेक विकसित देशों में भी पार्टियों के बीच बराबरी का मैदान नहीं रहता है। हर जगह सत्तारूढ़ दल को विपक्ष के मुकाबले ज्यादा चंदा मिलता है। तभी भारत में और कई यूरोपीय देशों में भी चुनाव लडऩे के लिए सरकारी फंडिंग की मांग होती रहती है। लेकिन चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था ने तो भारत में विपक्षी पार्टियों के लिए सत्तारूढ़ दल का मुकाबला और मुश्किल बना दिया है। इसलिए जरूरी है कि यह व्यवस्था बदली जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि आम नागरिकों को यह पता चले कि किसी पार्टी को कौन कारोबारी कितना चंदा देता है। नागरिकों का यह जानना इसलिए जरूरी है ताकि वे स्वतंत्र रूप से आकलन कर सकें कि जिस कारोबारी ने सत्तारूढ़ दल को ज्यादा चंदा दिया उसको सरकार की ओर से कोई अतिरिक्त लाभ तो नहीं दिया जा रहा है। यह सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहाली, ईमानदारी और जनता के पैसे का सदुपयोग सुनिश्चित करने के लिए बेहद जरूरी है। ध्यान रहे सरकार यह फैसला करती है कि जनता का पैसा कैसे और कहां खर्च होना है। इसलिए जनता को यह पता होना चाहिए कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसका पैसा उस कारोबारी पर खर्च हो रहा है, जो सत्तारूढ़ दल को ज्यादा चंदा दे रहा है।

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