अयोध्या पर कांग्रेस की दयनीय राजनीति

अजीत द्विवेदी
व्यापक रूप से धर्म और खासतौर से अयोध्या पर कांग्रेस की दुविधा चिरंतन है। वह कभी खत्म नहीं होती है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव से लेकर राहुल गांधी तक कांग्रेस की यह दुविधा कायम है और समय के साथ यह दुविधा कांग्रेस को लगातार कमजोर करती जा रही है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कांग्रेस की इस दुविधा ने भाजपा को मजबूत होने में सबसे ज्यादा मदद की है। भाजपा जब लोकसभा की दो सीटों के साथ सबसे कमजोर स्थिति में थी तभी दुविधा के शिकार राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया था। वे शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने की ऐतिहासिक गलती कर चुके थे और उसकी भरपाई के लिए राम मंदिर का ताला खुलवाया था। पर उसके बाद कांग्रेस को न माया मिली और न राम। अब राहुल गांधी की कमान वाली कांग्रेस ने फैसला किया है कि सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खडग़े और अधीर रंजन चौधरी अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे। कांग्रेस ने इस कार्यक्रम को ‘भाजपा और आरएसएस की राजनीतिक परियोजनाÓ बताते हुए श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के आमंत्रण को ‘ससम्मान अस्वीकारÓ कर दिया है।

कांग्रेस को यह निमंत्रण दिसंबर में मिला था और इसे अस्वीकार करने का फैसला करने में उसने 20 दिन का समय लिया। जाहिर है कि किसी भी वैचारिक या राजनीतिक मसले पर फैसला लेने में इतना समय तभी लगता है, जब स्पष्टता न हो। कांग्रेस की वैचारिक अस्पष्टता कई और तरह से दिखी है। जैसे अक्टूबर में जब ट्रस्ट के पदाधिकारी प्रधानमंत्री से मिले और उनको रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने का न्योता दिया तब कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद ने कहा था कि ‘न्योता सिर्फ एक पार्टी को क्यों दिया जा रहा हैÓ। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मंदिर किसी एक पार्टी का नहीं हैÓ। उनके कहने का मतलब यह था कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को भी न्योता मिलना चाहिए। हो सकता है कि यह कांग्रेस की आधिकारिक राय न हो लेकिन खुर्शीद की बात का किसी ने विरोध नहीं किया।

इसके एक महीने बाद कांग्रेस को न्योता मिला तो वह 20 दिन तक फैसला रोके रही। अब जबकि फैसला आ गया है तो पार्टी के अंदर ही इस पर सवाल उठ रहे हैं। गुजरात प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अर्जुन मोडवाडिया ने कहा कि ‘कांग्रेस को ऐसे राजनीतिक निर्णय से बचना चाहिए थाÓ। हिमाचल प्रदेश सरकार के मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने कहा है कि उन्होंने पार्टी आलाकमान को बता दिया है कि वे अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में जाएंगे।
कांग्रेस में अगर इस मसले पर वैचारिक स्पष्टता होती तो वह समय से पहले एक स्पष्ट रुख अख्तियार करती। कांग्रेस में अगर कोई भी दूरदृष्टि वाला नेता होता तो उसको अंदाजा होता कि इस मामले में कांग्रेस के इतिहास को देखते हुए भाजपा उसे उलझाने की कोशिश करेगी। जो कैच 22 सिचुएशन 20 दिसंबर को न्योता मिलने पर बना उसे कांग्रेस के नेता उसी दिन भांप लेते, जिस दिन लोकसभा चुनाव से पहले ‘अर्धनिर्मित मंदिरÓ के उद्घाटन की तारीख तय हुई। अगर उस दिन नहीं तो जिस दिन नरेंद्र मोदी को न्योता मिला उस दिन भांप जाना चाहिए था कि कांग्रेस को भी न्योता मिलेगा और उसी समय अपनी रणनीति तय कर लेनी चाहिए थी। अगर कांग्रेस उस दिन से यह नैरेटिव बनाती कि अधूरे मंदिर का उद्घाटन हो रहा है और यह शास्त्र सम्मत नहीं है या भाजपा इसका राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है तो हो सकता है कि वह समाज के बड़े तबके को यकीन दिलाने में कामयाब हो जाती। तब यह भी हो सकता था कि कांग्रेस को न्योता नहीं भेजा जाता और उसे ऐसी स्थिति में नहीं फंसना पड़ता। लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस हर बार भाजपा के बिछाए जाल में फंस जाती है।

भाजपा और नरेंद्र मोदी के जाल में फंस कर ही राहुल गांधी कभी जनेउधारी ब्राह्मण बन जाते हैं तो कभी शिवभक्त बन जाते हैं। जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी कैमरे पर अपनी भक्ति करते हैं उसी तरह राहुल और प्रियंका की भक्ति भी कैमरे पर ही दिखती है। बहरहाल, कांग्रेस या तो जाल देख नहीं पाती है या उससे बचने के उपाय नहीं सोच पाती है। मैकियावेली ने शासक के गुण बताते हुए कहा था कि शासक को सिंह की तरह बहादुर होने के साथ साथ लोमड़ी की तरह चालाक होना चाहिए ताकि वह शिकारी द्वारा बिछाए गए जाल को देख या समझ ले। सार्वजनिक जीवन में हर व्यक्ति के अंदर यह गुण होना अनिवार्य है।
बहरहाल, कांग्रेस ने पहले रणनीति नहीं तय की और न नैरेटिव को अपने हिसाब से दिशा देने की कोई पहल की। जब पूरे देश में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का माहौल बन गया और मीडिया में 24 घंटे इस मुद्दे की चर्चा होने लगी तब जाकर कांग्रेस ने न्योता नामंजूर किया। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा का यह नैरेटिव स्थापित हो गया कि कांग्रेस हमेशा राम की विरोधी रही है और सबको पहले से पता था कि कांग्रेस के नेता रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जाएंगे। इस बात को लोग तुरंत इसलिए स्वीकार कर लेंगे क्योंकि सोनिया व राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा में से कोई भी आज तक अयोध्या में रामलला के दर्शन करने नहीं गया है। राहुल और प्रियंका तो पिछले चुनाव में अयोध्या और फैजाबाद तक गए लेकिन रामलला के दर्शन करने नहीं गए। भाजपा को यह इतिहास पता था इसलिए उसने कांग्रेस को ऐसी स्थिति में डाला, जहां से कांग्रेस अपना कुछ नुकसान करके ही निकल पाती।

इस बार कांग्रेस के पास एक मौका था कि वह भाजपा को चौंका देती। अगर कांग्रेस के नेता अयोध्या में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में चले जाते तो भाजपा को अपना नैरेटिव बदलना पड़ता। वह फिर कांग्रेस को रामद्रोही बताने की बजाय कहती कि मजबूरी में या भाजपा के दबाव में कांग्रेस रामलला को स्वीकार कर रही है। इससे कांग्रेस को अगर कोई फायदा नहीं होता तो नुकसान भी नहीं होता। ध्यान रहे कांग्रेस को पिछले चुनाव में भाजपा को मिले 22 करोड़ वोट में से वोट नहीं तोडऩा है, बल्कि उसके अलावा जो 40 करोड़ से ज्यादा वोट भाजपा के खिलाफ गए थे उनको एकजुट करना है। भाजपा के खिलाफ पड़े वोट का बड़ा हिस्सा हिंदू मतदाताओं का ही है। उसमें कांग्रेस के प्रति अगर पहले से कोई दुराग्रह है तो वह रामलला की प्रतिमा के प्राण प्रतिष्ठा में जाने से खत्म होता या उसकी तीव्रता कम होती। इसके साथ ही कांग्रेस जो अपनी दुविधा के कारण गाहे-बगाहे इस बात का श्रेय लेती रहती है कि राजीव गांधी ने राममंदिर का ताला खुलवाया था वह खुल कर इस बात को कह सकती थी और राममंदिर के अभियान में अपनी भूमिका बता सकती थी। लेकिन कांग्रेस ने वह मौका गंवा दिया।

कांग्रेस ने निमंत्रण अस्वीकार करने के दो कारण बताए हैं। पहला ‘अर्धनिर्मित मंदिरÓ और दूसरा ‘भाजपा और संघ की राजनीतिक परियोजनाÓ। ये दोनों बातें कांग्रेस ने देश के सबसे श्रेष्ठ हिंदू धर्माचार्यों की टिप्पणियों से लिए हैं। गौरतलब है कि चारों शंकराचार्य इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हो रहे हैं। उनका कहना है कि प्राण प्रतिष्ठा धर्मसम्मत तरीके से नहीं हो रही है। लेकिन सवाल है कि जब कांग्रेस खुद ही इसे राजनीतिक प्रोजेक्ट बता रही है तो उसमें धर्मसम्मत चीजें खोजने की क्या जरुरत है? दूसरे, क्या कांग्रेस नेता खुल कर यह बात कहेंगे कि शंकराचार्य नहीं जा रहे हैं इसलिए कांग्रेस भी नहीं जा रही है या कांग्रेस शंकाराचार्यों की सारी बातें मानती है? असल में यह सुविधा का सिद्धांत है, हिप्पोक्रेसी है। जब हिंदू धर्म के धर्माचार्य सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हैं तब कांग्रेस और देश की सेकुलर जमात सुप्रीम कोर्ट के साथ खड़ी होती है और जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से मंदिर बनता है तो उसमें धर्मसम्मत होने का मुद्दा उठा कर शंकराचार्यों के साथ खड़े हो जाते हैं। तभी कांग्रेस की इस मामले में बहुत दयनीय राजनीति दिख रही है।

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