मकर संक्रांति पर्व पर आसमान में खूब लड़ेंगे रंग बिरंगी पतंगों के पेच

  • आज भी पतंग का क्रेज बरकरार, मकर संक्रांति पर्व पर बढ़ जाती है मांग
  • मकर संक्रांति पर्व पर शहर में होती है प्रतिस्पर्धा
  • कभी साल भर चलने वाली पतंगबाजी अब मकर संक्रांति या फिर अन्य त्योहारों तक सिमटी

निष्पक्ष प्रतिदिन,लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है।यह शहर अपनी नवाबी विरासत को आज भी जिंदा रखे हुए है,और इन्हीं विरासतों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है पतंग उड़ाना, जिसे नवाबी शौक कहा जाता है। यह एक रोमांचकारी और आनंददायक गतिविधि है। जो लोगों को एकजुट करती है। आने वाली 15 जनवरी को मकर संक्रांति पर्व के अवसर पर लखनऊ में पतंगों की मांग तेजी से बढ़ रही है। छोटे से लेकर बड़े पतंग के दीवाने उत्साह से पतंग की दुकानों पर आ रहे हैं और पतंगों एवं माझे की खरीदारी कर रहे हैं।
कभी साल भर चलने वाली पतंगबाजी अब मकर संक्रांति या फिर अन्य त्योहारों तक सिमट कर रह गई है। आधुनिकता और व्यस्तता भरे जीवन के बीच पतंग की डोर दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है। यही कारण है कि छतों पर पेच लड़ाने के साथ ही वो मारा…., वो काटा… का शोर अब पहले जितना नहीं रहा। पतंग दुकानदार भी मानते हैं कि लोगों में पतंगबाजी का शौक कम होता जा रहा है।अब सिर्फ परंपरा को बनाए रखने के लिए लोग त्योहारों पर पतंग की खरीद करते हैं या फिर जाड़ों के मौसम में लोग इसे उड़ाना पसंद करते हैं। पहले हर चौराहे पर दिखने वाली पतंगों की दुकानें भी अब चुनिंदा गलियों में सिमट गई है। नवाबों का शौक माने जाने वाली पतंगबाजी की डोर को आधुनिकता ने भी कमजोर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।हुसैनगंज के अब्दुल कादिर और हाजी सुबरात ने बताया कि उनकी 50 साल से भी पुरानी दुकान है। उनके दादा और उनके पापा भी यही कारोबार करते थे, लेकिन अब हमारी आगे की पीढ़ी इस कारोबार के सहारे नहीं रह सकती। साल-दर-साल लोगों में पतंगबाजी का शोक कम होता जा रहा है। अब सिर्फ त्योहारों पर ही पतंगें बिकती हैं। हालांकि इनका मानना है कि अब लखनऊ में पूरे प्रदेश के विभिन्न जगहों के लोग आकर रहने लगे हैं। उनमें थोड़ा बहुत रुझान अब भी बाकी हैं। पुराने लखनऊ को छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रों के लोग जमघट एवं मकर संक्रांति पर या जाड़ों के मौसम में ही पतंग उड़ाते हैं।चौक स्थित मोहनीपुरवा के आसिफ ने बताया कि सरकारों ने पतंग कारोबारियों के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीद थी, क्योंकि वह खुद पतंगबाजी के शौकीन रहे हैं। उन्होंने बताया कि गुजरात के साथी बताते हैं कि वहां पर सरकार की तरफ से सुविधाएं मिलती हैं। उन्होंने कहा कि पतंग ही एक ऐसा कारोबार है, जिसके स्वरूप और प्रणाली में कोई बदलाव नहीं आया है। यह दो सौ साल पहले भी ऐसे बनाई जाती थी जैसे आज बनाई जा रही है। मशीनों का प्रयोग नहीं होने से मजदूरों को पर्याप्त रोजगार भी मिलता रहता है।
आसिफ ने बताया कि आकार के हिसाब से नाम भी रखे गए हैं। सबसे बड़े पतंग को कनकौवा, उससे छोटे को अद्धी, उसके बाद मंझोली और सबसे छोटे पतंग को पौनताई बोला जाता है। इसमें कनकौवा और अद्धी को युवा उड़ाते हैं और मंझोली व पौनताई को छोटे बच्चे उड़ाते हैं।दुकानदार मानते हैं कि पतंगबाजी का शौक लगातार कम हो रहा है, लेकिन पुराने लखनऊ में अभी थोड़ी रवायत बाकी है। चौक, अमीनाबाद, ठाकुरगंज, गणेशगंज, नदवा जैसे इलाकों में पतंगों की बिक्री आज भी है हालांकि यह पहले से काफी कम होती जा रही है।मुश्ताक ने बताया कि गुणवत्ता के अनुसार पतंगों के दाम तय किए गए हैं। बाजार में पांच रुपये से लेकर 40 रुपये तक की पतंग उपलब्ध हैं। 35-40 रुपये की पतंगों की विशेषता यह है कि आप अपनी आंखों से जितनी दूर तक देख सकते हैं, उतनी दूर तक पतंग पर नियंत्रण किया जा सकता है। कम दाम वाली पतंगों को 400 मीटर दूर जाने के बाद नियंत्रण नहीं किया जा सकता। उन्होंने बताया कि 35-40 रुपये वाली पतंगों को बनाने में काफी समय लगता है। इसे दिन भर में 15-20 ही बनाया जा सकता है और इसको अनुभवी लोग ही बना पाते हैं।

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