अनुभव की कमी और नेताओं की महत्वाकांक्षा पड़ी दल पर भारी, गंवा बैठे अपना चुनाव निशान…

देहरादून। देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। कई राज्यों में सत्ता में रहे हैं, लेकिन उत्तराखंड में क्षेत्रीय ताकत के रूप में पहचान रखने वाला उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) हाशिये पर है। वह भी तब, जबकि अलग राज्य आंदोलन में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन राज्य गठन के बाद उसके खाते में इसका श्रेय आया ही नहीं। अब स्थिति यह है कि दल अपेक्षित मत प्रतिशत नहीं मिलने के कारण अपना चुनाव निशान कुर्सी भी गंवा बैठा है।

धीरे-धीरे गिरा जनाधार
उत्तराखंड क्रांति दल अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय 25 जुलाई, 1979 को अस्तित्व में आया और उसने अलग राज्य निर्माण आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। राज्य गठन के बाद शुरुआत में कम ही सही, प्रदेश की जनता ने इसे समर्थन दिया। 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में दल ने चार सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन इसके बाद यह धरातल पर अपनी पकड़ गंवाता रहा।

2002 में जहां उसका मत प्रतिशत 5.5 प्रतिशत था, जोकि 2022 में घटकर 1.1 प्रतिशत पर आ गया है। 2007 में उक्रांद ने विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को समर्थन दिया और सरकार में शामिल हो गया। तब दल के वरिष्ठ नेता दिवाकर भट्ट कैबिनेट मंत्री बने। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा दल बना तो उक्रांद उसके साथ हो लिया और फिर सरकार का हिस्सा बन गया।

कांग्रेस को समर्थन देकर प्रीतम पंवार ने मंत्री पद संभाला। इन परिस्थितियों में दल को मजबूत करने के स्थान पर नेताओं ने व्यक्तिगत हितों को तरजीह दी। नतीजतन, राजनीतिक अनुभवहीनता और शीर्ष नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं ने एक बड़ी क्षेत्रीय ताकत को रसातल में धकेल दिया। इसके बाद दल कई धड़ों में बंट गया।

गुटबाजी खत्म की फिर भी जनता ने नकार दिया
लंबे इंतजार के बाद दल के शीर्ष नेताओं ने 2017 में सुलह करते हुए विभिन्न गुटों में एका बनाने में सफलता पाई, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में परिसंपत्तियों का बंटवारा, स्थायी राजधानी गैरसैंण का सवाल, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार समेत राज्य से जुड़े मुद्दों को लेकर दल जनता के बीच गया, लेकिन जनता ने इन्हें सिरे से नकार दिया। उक्रांद को मात्र 0.7 प्रतिशत मत ही मिल पाए।

लोकसभा के लिए कद्दावर नाम नहीं
जहां तक राज्य गठन के बाद हुए पिछले चार लोकसभा चुनाव में उक्रांद के प्रदर्शन का सवाल है, तो वह अत्यंत कमजोर रहा। 2004 में हुए चुनाव में पार्टी ने चार सीटों पर प्रत्याशी उतारे और उसे 1.6 प्रतिशत वोट मिले। 2009 के चुनाव में पार्टी ने पांचों सीटों पर प्रत्याशी उतारे, पर मत प्रतिशत और कम हो गया। इस चुनाव में कुल 1.2 प्रतिशत मत ही मिल पाए।

2014 के चुनाव के समय दल बिखर चुका था, ऐसे में निर्दलीय के रूप में तीन प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें कुल 0.15 प्रतिशत मत मिले। 2019 में उक्रांद ने चार सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे और उसके हिस्से महज 0.2 प्रतिशत मत ही आए। अब एक बार फिर उक्रांद सभी पांच सीटों पर प्रत्याशी उतरने की तैयारी कर रहा है, लेकिन उसके पास कोई कद्दावर नाम ही नहीं है।

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