लखीमपुर खीरी। खीरी लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस और सपा के साथ कुछ ऐसे हालात बने कि जिससे 15 साल से कांग्रेस और बीस साल से समाजवादी पार्टी का कोई भी प्रत्याशी संसद के देहरी तक नहीं पहुंच पाया। कहावत है कि बंद मुट्ठी लाख की और खुल गई तो खाक की। इन दोनों दलों की खुली हुई मुठ्ठियों का सीधा लाभ भाजपा को हुआ और कभी कांग्रेस और सपा का गढ़ बना इन दोनों दलों का किला खीरी जिले में पूरी तरह से ध्वस्त कर अब उस पर पिछले दस वर्षों से भाजपा काबिज है।
लगातार तीन बार सांसद चुनने का कीर्तिमान बना चुकीं कांग्रेस और सपा दोनों पार्टियों के बाद अब भाजपा हैट्रिक बना पाएगी या नहीं यह देखने वाली बात होगी लेकिन कैसे गुटबाजी से ये दोनों दल पिछले बीस साल में अपनी सियासी जमीन को गवां बैठे रेखांकित करती धर्मेश शुक्ला की रिपोर्ट:
जफर अली नकवी ने दिलाया कांग्रेस को ब्रेक
अब तक हुए चुनावों में नौ बार संसद तक पहुंचने वाले कांग्रेस के सियासी योद्धा 1989 के बाद थके हारे से होने लगे। 2000 के दशक के बाद कांग्रेस में गुटबाजी का दौर शुरू हुआ। लंबे अरसे तक हार का सामना करती रही कांग्रेस को साल 2009 में गांधी परिवार के नजदीकी जफर अली नकवी ने ब्रेक दिलाया और वह खीरी सीट से चुनाव जीते।
जब कांग्रेस में शुरू हुई गुटबाजी
कांग्रेस की ये जीत किसी बूस्टर डोज से कम नहीं थी। इसी दौरान राहुल गांधी के कोर जोन में शामिल युवा नेता जितिन प्रसाद ने भी पहली बार बनी धौरहरा सीट पर शानदार जीत हासिल की। बस इसी दौरान ही कांग्रेस में गुटबाजी का दौर तेजी से शुरू हो गया। एक पूर्व जिलाध्यक्ष जितिन के खेमे में तो दूसरा नकवी की ओर जा पहुंचे। एक पार्टी के दो-दो प्रेस नोट भी जारी होने लगे।
जबरदस्त गुटबाजी का आलम ये हुआ कि खुद को सच्चा कांग्रेसी साबित करने की होड़ तेज हो गई। कई बार तो लखनऊ से आए वरिष्ठ पदाधिकारियों के सामने ही कांग्रेस के दोनों गुट बांहे समेटते नजर आने लगे और जोरदार हंगामा किया। ऐसे बखेड़े कई बार हुए और फिर साल 2014 के चुनाव में खीरी व धौरहरा दोनों ही सीटें पार्टी हार गई।
जब जितिन प्रसाद आए भाजपा के खेमे में
गुटबाजी पर ये हार इस कदर भारी पड़ी कि उसे समेटना मुश्किल हो गया। फिर एक वह दिन भी आया जब जितिन प्रसाद कांग्रेस को हाथ हिलाते हुए भाजपाई खेमे में आ गए और उनका कद भगवा रंग में और भी चटख हो गया। इस तरह कांग्रेस पिछले 15 साल से लोगों की पसंद नहीं बन पाई।
खीरी को कहा जाता था सपा का गढ़
अब बात समाजवादी पार्टी की करें उस पार्टी की जिसके बल पर खीरी को सपा का गढ़ कहा जाता था। यहां जाति विशेष के बल पर एक नहीं कई बार सांसद चुने गए रवि प्रकाश वर्मा को साल 2009 और साल 2014 में हार का मुंह देखना पड़ा। यहीं से सपा में भी गुटबाजी का बीज पनपने लगा। लेकिन 2014 में ही सपा में राष्ट्रीय स्तर तक धमक रखने वाले रवि वर्मा को सपा ने राज्यसभा भेजा लेकिन इस फैसले से दूसरा धड़ा बेहद आहत हुआ।
गुटबाजी और साइडलाइन से आई परेशानी
पूर्व एमएलसी की अगुवाई में अशांत एक गुट को साल 2019 का वह फैसला भी आहत कर गया जब दो बार हारने के बाद रवि को राज्यसभा भेजा गया और उनकी बेटी डा. पूर्वी वर्मा को फिर से टिकट दे दिया गया। इस उम्मीद में कि कुर्मी बाहुल्य जिले में पूर्वी को जीत मिलेगी पर मोदी फेज 2.0 में पूर्वी वर्मा भी हार गईं।
दूसरे गुट को इसी मौके की तलाश थी लिहाजा उसने इस बार जो खाईं खोदी उसके बाद रवि वर्मा को पार्टी साइड लाइन करने लगी। उनको पार्टी के कार्यक्रमों में बुलाने की जहमत नहीं उठाए जाने लगी। उधर दूसरे गुट के उसी बिरादरी के उत्कर्ष वर्मा को इस कदर भाव दिया जाने लगा कि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का कार्यकर्ता सम्मेलन भी उत्कर्ष के कॉलेज में हुआ और यहां तमाम मान-मनौव्वल के बाद रवि वर्मा अनमने ढंग से आए।
सपा की झोली में आईं दोनों सीटें
चुनाव नजदीक आता देख जब रवि को ये लगा इस बार उनको टिकट नहीं मिलेगा तो पहले ही उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पुराने घर कांग्रेस में चले गए। इधर गठबंधन ने कुछ ऐसी गणित बनाई कि जिले से दोनों सीटें सपा की झोली में चली गईं।
सपा और कांग्रेस एक साथ लड़ रहे हैं चुनाव
फिलवक्त एक खास बिरादरी बाहुल्य मतदाताओं के बल पर गठबंधन से सपा मजबूती से चुनाव लड़ रही है… दो दल मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने का दंभ भर रहे हैं, लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि दो दल तो मिल गए लेकिन क्या उनके दिल भी मिल पाएंगे? जिसका जवाब फिलहाल मतदाता ही देंगे।