राजस्थान: या तो जांत या बालकनाथ!

श्रुति व्यास
एक शब्द में राजस्थान चुनाव 2023 का लबोलुआब है-‘दिलचस्पÓ, ‘हैरानीभराÓ।इसलिए क्योंकि जो पहले माना जा रहा था और जो पुराना ढर्रा था उस पर चुनाव नहीं हुआ है।
राजधानी जयपुर के कई पत्रकारों ने पहले से ही धारणाएं बनाई हुई थी।गुलाबी शहर के जवाहर कला केन्द्र की ऊंची दीवारों के बीच वे एक सपाट वाक्य बोलते थे-”हर पांच साल में यहां बदलाव होता हैज् अब की बार बीजेपी ही आएगी, इसलिए क्या कवर करना?”इस बात में दम भी था। तभी दूर से देखने पर राजस्थान के चुनाव नीरस नजर आ रहे थे। आखिरकार 1998 से लेकर अब तक हर पांच साल में सरकार बदलना राजस्थान का रिवाज है। तो 2023 भला अलग क्यों होगा? खासकर तब जब भाजपा ने घिसेपिटे चेहरों को दरकिनार कर दिया है,बाबाओं और योगियों, सांसदों और राजपरिवारों के सदस्यों को दिल खोलकर टिकट दिए हैं, प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को आगे रखा है और हिंदुत्व का माहौल बनाया है तो इस सब की रियलिटी में धारणा स्वभाविक ही है कि राजस्थान में भाजपा की जबरदस्त जीत होनी है।

पर क्या इतना आसान और एकतरफा चुनाव हुआ है? क्या रिकार्ड तोड मतदान भाजपा की आंधी का संकेत है? या जाति आधारित प्रतिस्पर्धा में हुई वोटिंग का सबूत है?भाजपा के पक्ष में तीन बातें निर्विवाद है। राजस्थान में नरेंद्र मोदी का करिश्मा गहरा पैंठा हुआ है। चाहे तो इसका संकेत शहरों में रिकार्ड तोड मतदान को माने। फिर भाजपा के कार्यकर्ता अधिक सक्रिय और वोट डालने की जिद्द में नजर आएं। तीसरी बात, कांग्रेस के मुकाबले भाजपा संगठन और उसका प्रचार तंत्र अधिक चुस्त और मजबूत दिखा।

बावजूद इसके देहात-कस्बों और जमीनी गणित और कैमेस्ट्री में इस बार के चुनाव की बातें, सरोकार और रंग-ढंग अलग थे। और हर 25-50 किलोमीटर पर माहौल बदला हुआ नजर आया। ऐसा माहौल जो पिछले चुनावों में नहीं देखा गया, जिसे भांपना बहुत दिलचस्प था और जो जाति और उससे जुड़े सरोकारों पर आधारित था। मुझे छतीसगढ़ और मध्यप्रदेश में घूमते हुए सीट वार वैसा संर्घष नहीं दिखलाई दिया जैसा राजस्थान में दिखा। अपनी चुनावी यात्रा शुरू करने के पहले मैं जयपुर के एक प्रमुख वरिष्ठ पत्रकार से मिली। उनका कहना था कि “मैं 1985 से चुनाव कवर कर रहा हूं लेकिन मैंने कभी चुनावी नैरेटिव पर जाति का इतना असर नहीं देखा”। यही बात उदयपुर में मुझसे उस होटल में भी कही गई जहां में ठहरी थी।सलूंबर के हरिसिंह ने चुनावों के बारे में सिर्फ एक बात कही: “इस बार तो सबकुछ जात पर है”।और मैं भी मतदान के बाद यह बात मानते हुए हूँ।

जबकि पुराने जानकार कहते है राजस्थान के लोगों के लिए जाति कभी बड़ा मुद्दा नहीं रही है। आपकी जाति या गोत्र जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं रहती थी। चुनाव पार्टी के झंडे, दोनों पार्टियों के कट्टर वोट बैंक और एटीं इनकंबेसी फेक्टर पर हुआ करते थे या पानी, बिजली, रोजगार जैसे मुद्दों पर होते थे। लेकिन अबकी बार अपनी यात्रा के दौरान जब मैं आम लोगों से टोह लेने के लिए उनसे जब भी बात शुरू करती थी तो वे मुझसे पहले जानना चाहते थे-“आप कौनसी जात से हैं?”। यह सवाल मुझसे धोद (सीकर) से लेकर नसीराबाद और वहां से लेकर बांसवाड़ा तक पूछा गया। जाट, गुर्जर, एससी, ओबीसी, ब्राम्हण, बनिया – सभी मुझसे बात करने के पहले मेरी जाति जानना चाहते थे। मुझे यह इतना अजीब लगता था कि मैं उत्तर न देने की कोशिश करती थी। परंतु अंतत: मुझे अपनी जाति बतानी ही पड़ती थी।

ऐसा 2018 में नहीं होता था और ना ही उसके पहले। इस बार राजस्थान के एक कोने से दूसरे कोने तक के अपने सफर के दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि राजस्थान धीरे-धीरे उत्तरप्रदेश बनता जा रहा है। उम्मीदवार की जाति अब सबसे महत्वपूर्ण हो गई है।

हिन्दू बनाम मुस्लिम, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुत्व आदि की बातें केवल शहर वाले करते हैं। गांव-देहात में जाति ही सबसे अहम है। जाति की राजनीति ने राजस्थान के चुनाव को जटिल बना दिया है।ध्यान रहे जब भी जाति महत्वपूर्ण कारक बनती है तब चुनाव का गणित,केमिस्ट्री और मूड तीनों बदल जाते हैं।

फिर लोगों के नए ‘सरोकारÓ भी दिखे। इन सरोकारों का पहले कभी कोई जिक्र नहीं होता था। मगर अब ये सरोकार चुनावी मुद्दा बन गए हैं। नसीराबाद में 80 साल के रतनलाल ने कहा,”राजस्थान उत्तरप्रदेश बन रहा है”। रतनलाल जाट हैं। उनके लिए “उत्तरप्रदेश बन रहा है” का मतलब है कि गुर्जरों की ताकत और प्रभाव बढ़ रहा है। रतनलाल के अनुसार जैसे उत्तरप्रदेश में यादव ‘दादाÓ बन गए हैं उसी तरह राजस्थान में गुर्जर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं दौसा में एक गुर्जर ने मुझसे कहा,”ये मीणा लोग आजकल बहुत हावी हो रहे हैं”। राजसमंद के राजनगर में एक दुकानदार ने कहां, “इन दिनों जाट बहुत हवा में उड़ रहे हैं”।मतलब अपनी जाति तो मुद्दा है ही।दूसरी जातियों के बढ़ते वर्चस्व की चिंता भी सीकर के धोद से लेकर बांसवाड़ा के गढ़ी तक ओबीसी जातियों के बीच व्याप्त है और वह चुनाव में उतरे उम्मीदवारों पर फैसले में हावी है।

राजस्थान में गुर्जर, मीणा, राजपूत और जाट – ये चार प्रमुख समुदाय हैं जिनमें दबदबे को लेकर गहरा कंपीटिशन है। राज्य में कुल मतदाता कोई सवा पांच करोड है। इसमें एससी व एसटी का हिस्सा कोई 31 प्रतिशत है। वही मुस्लिम 9 प्रतिशत। फिर जाट व ब्रहाम्ण अधिक। मीणा कोई 8 प्रतिशत और गुर्जर पांच और राजपूत छह प्रतिशत बतलाए जाते है। इन सभी जातियों में उम्मीदवार की जाति की पहचान बड़ा फेक्टर है। इसके बाद हिंदू-मुस्लिम धुव्रीकरण से लोग प्रभावित दिखें, खासकर शहरी इलाकों में। इसी के चलते जयपुर और भीलवाड़ा के शहरी इलाकों के फारवर्ड लोग भी यादव बाबा बालकनाथ को बतौर मुख्यमंत्री पहली पसंद बतलाते मिले। कई लोगों ने कहा,”उत्तरप्रदेश जैसा योगी राजस्थान में भी चाहिए”।

इसलिए जाति और धर्म में चुनाव रंगा हुआ था। पानी, बिजली, सड़क जैसे मसलों पर लोग बोलते हुए नहीं थे। कई जिलों में अब भी ‘हर नल में जलÓ नहीं है मगर फिर भी बात लोग जाति की कर रहे हैं। आरएलपी (राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी) और बीटीपी (भारतीय ट्राइबल पार्टी) जैसी पार्टियों के चलते भी जाति का नैरेटिव और मजबूत हुआ है।इसलिए प्रदेश में चुनाव अब केवल कांग्रेस बनाम भाजपा का नहीं हैं बल्कि बसपा, आजाद समाज पार्टी और ढेर सारे निर्दलीय उम्मीदवारों से भी गण्ति और कैमेस्ट्री बिगडी हैं। मेवाड़ इलाके को लें। मेवाड़-वागड़ (उदयपुर संभाग) में 28 सीटें हैं। माना जाता है कि यहां जो जीतता है राज्य में उसी की सरकार बनती है। हालांकि सन् 2018 में यह भ्रम टूटा था। पर इस बार यहाँ चुनावी गणित गड़बड़ाई है। वजह है बागियों का चुनावी मैदान में होना।ऐसी 13 सीटें हैं जिन पर बागी उम्मीदवार उलटफेर कर सकते हैं।

इन सबके बीच में एक व्यक्ति करीब-करीब सभी लोगों के दिलो-दिमाग में अपनी जगह बतौर नेता बनाए हुए मिला। और वह है अशोक गहलोत। सभी धर्मों और जातियों के लोगों में गहलोत को लेकर पोजिटिव धारणा है। कह सकते है पांच साल के राज के बाद जो सत्ता-विरोधी लहर दिखनी थी वह नहीं दिखाई दी। जिस तरह शिवराज सिंह चौहान के बारे में कहा जा रहा है कि लाड़ली बहना योजना के कारण उन्हें जनसमर्थन मिला है (और कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि वे भाजपा को चुनाव जिता ले जाएंगे), उसी तरह गहलोत की लोकलुभावन कल्याण योजनाएं उनकी मददगार हैं। गहलोत के लिए गुजरे साल आसान नहीं थे। भाजपा और मीडिया दोनों ने ‘लाल डायरीÓको मुद्दा बनाया था।उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का हल्ला खूब हुआ। परंतु लोगों के लिए यह वैसे ही मुद्दा नहीं है जैसे छत्तीसगढ़ में महादेव एप का मुद्दा भाजपा और मीडिया द्वारा जमकर उछालने के बावजूद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की छवि बिगाड नहीं पाया।
अब बात सचिन पायलट की।यदिकांग्रेस वापस आई तो क्या सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनना चाहिए? 2018 में गुर्जर चाहते थे कि मुख्यमंत्री उनकी बिरादरी से हो।वे अब भी यही चाहते हैं। और यही वजह है कि दौसा और टोंक जैसे कुछ इलाकों में कांग्रेस के प्रति गुस्से के चलते इस जाति के लोग भाजपा के साथ जा सकते हैं। मगर अन्य जातियों में से कोई भी पायलट के मुख्यमंत्री बनने के समर्थन में नहीं दिखा। लोगों की राय यही थी कि कांग्रेस की सत्ता में वापिसी की स्थिति में अशोक गहलोत को फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए।

दरअसल इस चुनाव में राजस्थान में हर समुदाय अपना विधायक, अपने मुख्यमंत्री की उधेडबुन में रहा है।तभी राजस्थान में यह चुनाव वैसा नहीं है जैसा पहले होते थे।मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की तुलना में राजस्थान के बारे में भविष्यवाणी करना ज्यादा जोखिमपूर्ण है। मैं न यह कहने की स्थिति में हूं कि भाजपा जीतेगी या गहलोत की वापसी होगी। राजस्थान की जनता के दिल-दिमाग में सिर्फ और सिर्फ जाति हावी है या बालकनाथ का नाम है। यदि इसी अनुसार वोट मतपेटियों में पड़े तो तीन दिशंबर को नतीजे सचमुच चौंकाने वाले होंगे।

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