प्रेम प्रकाश। नीति आयोग ने हाल में जो बहुआयामी सूचकांक जारी किया है, वह बीते एक दशक में देश में लोक कल्याणकारी योजनाओं की सफलता को दर्शाता है। यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे कई दशकों से चले आ रहे ‘बीमारू’ राज्यों का मिथक टूटा है। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की जो लीक आजादी के बाद से पकड़ी, उसका सबसे बड़ा जोर गरीब कल्याण पर रहा।
एक दौर में गरीबी हटाओ का नारा राजनीति का मस्तूल था। पर 1991 के बाद जब उद्यम और व्यापार की सीमाएं सबके लिए समान रूप से खुलीं, तो भारत को भी वैश्विक होड़ में शामिल होना पड़ा। इस दौरान इस बात पर बहस भी चली कि भारत जैसे विविधता वाले देश में विकास की एक सरपट नीति और दृष्टि नहीं काम कर सकती।
भारत में गांव और गरीब की बड़ी सच्चाई के कारण नीति निर्माताओं पर इस बात का दबाव रहा कि वे देश में उन्नत खेती के साथ गरीब कल्याण का एक बड़ा रोडमैप सामने रखें। पर दुर्भाग्य से इस दिशा में कुछ ठोस नहीं हो सका। खासतौर पर जोड़-तोड़ और अल्पावधि की सरकारों के दौर में देश में विकास का लोक कल्याणकारी एजेंडा पीछे छूटता गया। पर 2014 के बाद स्थिति बदली।
नीति आयोग की रिपोर्ट इस बात की गवाही है कि देश में बड़े पैमाने पर लोगों का जीवन गरीबी के कुचक्र से न केवल बाहर आया है, बल्कि इस दौरान देश में आजीविका और बेहतर जीवन के लिए नई अनुकूलताएं पैदा हुई हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2013-14 से 2022-23 के बीच 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं।
अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले नौ साल के दौरान 5.94 करोड़ लोग स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जीवन स्तर के मामले में गरीबी से बाहर आए हैं। इसी तरह बिहार में 3.77 करोड़ और मध्य प्रदेश में 2.30 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का गरीबी से बाहर आना इसलिए संभव हो सका है, क्योंकि सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं के लीकेज को बंद करने में सफलता हासिल की है।
साफ है कि इन योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक सीधे पहुंचा है। गरीबी उन्मूलन के ये नए तथ्य ये भी दिखाते हैं कि देश की जिस हिंदी पट्टी को विकास के मामले में बीमारू करार दिया गया, वे अब काफी आगे बढ़ चुके हैं। भारत सरकार ने अपनी यह नीतिगत स्पष्टता जाहिर की है कि उसका लक्ष्य बहुआयामी गरीबी को एक प्रतिशत से नीचे लाकर लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना है। इसके लिए बीते एक दशक के दौरान सरकार की तरफ से कई योजनाएं शुरू की गई हैं। इस लिहाज से
सबसे महत्वपूर्ण है- पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना। इसके जरिये देश के 82 करोड़ लोगों को पांच किलो खाद्यान्न दिया जा रहा है। नीति आयोग के आंकड़ों और निष्कर्षों की बात करते हुए यह देखना और समझना भी दिलचस्प है कि बीते करीब एक दशक में देश में कर ढांचे से लेकर योजना आयोग का चरित्र और भूमिका जिस तरह बदली है, उसे लेकर मत-मतांतर की स्थिति लगातार बनी हुई है।
परिणामस्वरूप एक तरफ तो बड़ी आबादी तक योजनाओं की सुनिश्चित पहुंच के कारण सरकार को वाहवाही मिल रही है, वहीं इस बारे में सार्वजनिक किए जा रहे आंकड़ों और तथ्यों पर सवाल भी खड़े हो रहे हैं। कई अर्थ पंडितों और योजना विशेषज्ञों को नीति आयोग का बहुआयामी गरीबी के आकलन का आइडिया तो अच्छा लगता है, पर वे इसके डाटा स्रोत को लेकर सशंकित हैं।
आमतौर पर ऐसे मामले में डाटा जुटाने के तीन स्रोत हैं- जनगणना, नेशनल सैंपल सर्वे और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे। स्थिति यह है कि 2021 में जनगणना हुई नहीं है। एनएसएसओ का डाटा 2011-12 के बाद जारी ही नहीं किया गया और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे भी फिलहाल स्थगित है। महत्वपूर्ण यह है कि नीति आयोग स्वयं भी अपने रिपोर्ट में आंकड़ों को लेकर कोई स्पष्ट दावा नहीं करता है।
जाहिर है कि ऐसे में गरीबी के कम होने के दावे को दूसरी कसौटियों पर भी देखा जाना चाहिए। इस लिहाज से इसी माह जारी आइएमएफ व कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के बाद अब संयुक्त राष्ट्र का दावा अहम है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि वर्ष 2024 में भी भारत दुनिया की सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था रहेगा। जो आकलन सामने रखा गया है उसमें भारत की आर्थिक विकास दर 6.2 प्रतिशत रहने की बात कही गई है।
भारत की विकास दर को लेकर संयुक्त राष्ट्र बेहद उत्साहित है और मानता है कि इसकी वजह से एशिया व दुनिया की समग्र विकास दर को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। तार्किक तौर पर यह कहा जा सकता है कि एक ऐसे दौर में जब यूरोप से लेकर अमेरिका की अर्थव्यवस्था को लेकर कई तरह के खतरे उभर रहे हैं, उसमें भारत में विकास और अर्थव्यवस्था को लेकर दिख रही मजबूती बड़ी बात है।