प्राचीन कुओं का खतम होता अस्तित्व

कुदरत की सौगात माने जाने वाले प्राचीन कुंए अनदेखी के चलते अपना अस्तित्व बचाने के संकट के दौर से गुजर रहे हैं]

बाँदा/बदौसा| कुदरत की सौगात माने जाने वाले प्राचीन कुंए अनदेखी के चलते अपना अस्तित्व बचाने के संकट के दौर से गुजर रहे हैं।जबकि एक दशक पहले तक ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल का मुख्य साधन यही प्राचीन कुंए हुआ करते थे।
प्राचीन कुंए जीर्णशीर्ण दशा में पानी की जगह आंसू बहाते नजर आएंगे।जमीनी हकीकत देखी जाए तो गांवों में पुण्य कार्य समझ कर बड़े-बुजर्गो के बनवाये आधे से अधिक कुंए जमींदोज हो चुके हैं।जो बचे हैं,उनमें झाड़झांकर, कुएं की जगत पर कंडे,जानवर बंधे और तलहटी पर कूड़ा ही नजर आएगा।

सरकारी आंकड़े देखें जाएं तो जनपद के शहरी और गांवों में कुल 4190 कुएं दर्ज है।अकेले नरैनी ब्लाक के गांव और कस्बो में कुल 2769 कुएं हैं। ग्रामीणों के मुताबिक वर्तमान में आधे से भी कम कुएं मौजूद मिलेंगे। ज्यादातर प्रशासनिक अनदेखी के चलते जमींदोज होकर अपना अस्तित्व खो चुके हैं।कुछ ग्राम प्रधान और सचिवों की कमाई का जरिया बन गए।जीर्णोद्धार सहित कुंओं की साफ-सफाई के नाम पर लाखों रुपये का वारा-न्यारा कर अपनी जेबें गर्म करते हैं।धार्मिक अनुष्ठान होना हो तो सात कुंओं के पानी से कलश स्थापना की मान्यता शुभ मानी जाती थी।बदौसा निवासी आदित्य बाजपेयी बताते है कि पहले कुंआ के घाट हुआ करते थे।उन घाटों में एक रस्सी और बाल्टी 24 घंटा पड़ी रहती थी,ताकि कोई राहगीर प्यासा ना लौटे।चरही निर्माण करवाकर सर्वसम्मति से गांव के किसी एक आदमी को पशुओं के पानी पिलाने की जिम्मेदारी दी जाती थी|

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