डॉ. मयंक चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में नक्सली चुन-चुन कर भारतीय जनता पार्टी के सक्रिय नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहे हैं और कांग्रेस, नक्सलियों के खिलाफ की जा रही शासन की कार्रवाई को फर्जी करार दे रही है। एक नजर देखा जाए तो पिछले पांच साल छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार रहते भूपेश बघेल का सीएम कार्यकाल नक्सलियों के लिए बहुत मुफीद रहा है। जब से सत्ता बदली है और भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने वापसी की है, यहां नक्सलियों को अपने अस्तित्व को बनाए रखने तक के लिए भारी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण पूरे नक्सल खेमे में बेचैनी है।
दूसरी ओर आज भी कांग्रेस और उसके भूपेश बघेल जैसे नेता हैं जोकि नक्सल खात्मे के लिए भाजपा सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों पर ही सवाल उठा रहे हैं। हालांकि एक बयान मे तो भूपेश बघेल को पलटते हुए भी देखा गया, किंतु सवाल यह है कि यह नक्सलियों के समर्थन की सोच, फर्जी मुठभेड़ के दावे, जो जवान वीरगति को प्राप्त हुए और अन्य कई अब भी अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं, उनके प्रति संवेदनहीनता की पराकाष्ठा से भी परे नकारात्मक भावना कांग्रेस के नेता अपने अंदर किस विचारधारा से प्रेरित होकर लाते हैं?
पहले ‘जन घोषणा पत्र’ के जरिए नक्सलवाद समाप्त करने का वादा, फिर पीछे हटेः दरअसल, यह कहने और पूछे जाने के पीछे कई ठोस प्रमाण मौजूद हैं । असल में 2018 में छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी ने ‘जन घोषणा पत्र’ जारी किया था, उसे 2013 में झीरम घाटी में माओवादी हमले में मारे गए कांग्रेस नेताओं को समर्पित किया गया था। इसमें कहा गया था कि यदि छ.ग. में कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह पूरी तरह से नक्सलवाद को प्रदेश में समाप्त कर देगी। घोषणा पत्र के क्रमांक 22 पर लिखा गया, “नक्सल समस्या के समाधान के लिए नीति तैयार की जाएगी और वार्ता शुरू करने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए जाएंगे। प्रत्येक नक्सल प्रभावित पंचायत को सामुदायिक विकास कार्यों के लिए एक करोड़ रुपये दिए जायेंगे, जिससे कि विकास के माध्यम से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।”
संयोग देखिए, कांग्रेस को राज्य में भारी बहुमत मिला । यहां भूपेश बघेल ने 17 दिसंबर की जिस शाम को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, उसी रात “जन घोषणा पत्र” की प्रति राज्य के मुख्य सचिव को सौंपी गई और इसी दिन भूपेश बघेल ने मंत्री परिषद की पहली बैठक भी बुलाई । बैठक में लिए गए तीन फैसलों में से एक निर्णय ‘झीरम घाटी कांड’ की एसआईटी जांच कराए जाने पर लिया गया था। यह एक महत्व का तथ्य है कि बस्तर की झीरम घाटी में 25 मई 2013 को भारत में किसी राजनीतिक दल पर नक्सली माओवादियों के इस सबसे बड़े हमले में राज्य में कांग्रेस की पहली पंक्ति के अधिकांश बड़े नेताओं समेत 32 लोग मारे गए थे।
झीरम घाटी कांड भूले से नहीं भूलताः एक तरह से देखा जाए तो कांग्रेस के वह सभी कद्दावर नेता एक बार में ही नक्सलियों द्वारा मार दिए गए, जोकि भविष्य में राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य कई बड़े पदों के दावेदार होते । मसलन, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल उनके बेटे दिनेश पटेल, विद्याचरण शुक्ल, बस्तर टाइगर कहलाने वाले महेंद्र कर्मा कवासी लखमा, मलकीत सिंह गैदू , योगेंद्र शर्मा और उदय मुदलियार के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं । इस नक्सली हमले की भयानकता कितनी अधिक थी, वह इस पूरी घटना से समझ आता है; जब 200 कांग्रेसियों का काफिला सुकमा से जगदलपुर जा रहा था तभी झीरम घाटी से गुजरते वक्त उसका नक्सलियों ने पेड़ गिराकर रास्ता रोक दिया। कोई कुछ समझ पाता उससे पहले ही पेड़ों के पीछे छिपे नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। करीब डेढ़ घंटे तक गोलियां चलती रहीं। इसके बाद नक्सलियों ने एक-एक गाड़ी को चेक किया। जिन लोगों की सांसें चल रहीं थीं, उन्हें फिर से गोली मारी गई। कुछ जिंदा लोगों को बंधक बनाया गया। नक्सलियों ने बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा को करीब 100 गोलियां मारीं और चाकू से उनका शरीर पूरी तरह छलनी कर दिया । नक्सलियों ने उनके शव पर चढ़कर डांस भी किया था।
यहां सवाल यह है कि कि पांच साल कांग्रेस की सरकार सत्ता में रह कर गई, लेकिन ‘झीरम घाटी’ मामले में जमीन पर हुआ कुछ नहीं ? जिस ‘झीरम कांड’ को कांग्रेस छत्तीसगढ़ में अपने लिए सबसे बड़ा हमला करार देती नहीं थकती है, क्या उसकी यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वह सत्ता में आने के बाद इस काण्ड के सभी गुनहगार नक्सलियों को सजा दे और अपने राज्य से नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ फेंके। लेकिन सत्ता में रहने के बाद भी कांग्रेस की ‘भूपेश सरकार’ ने ऐसा कुछ नहीं किया।
बघेल मुख्यमंत्री रहते हुए खुद ही संविधानिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करते रहेः कांग्रेस के तमाम नेता और स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पूरे पांच साल तक सत्ता का सुख भोगते रहे और नक्सल कार्रवाई के नाम पर समय गुजारते रहे। ऐसा इसलिए सच लगता है क्योंकि कांग्रेस के घोषणा पत्र और सरकार के लिए फैसलों में कोई समानता नजर नहीं आती । ‘झीरम घाटी कांड’ की जांच अदालतों में उलझी हुई है और नक्सल समस्या पर घोषित होनेवाली नीति का कहीं कुछ अता-पता नहीं मिला । भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री रहते राज्य में नक्सलियों से वार्ता शुरू होने के संबंध में पूरे पांच साल तक कोई ब्लूप्रिंट सामने नहीं आया। इसके उलट वे कई अवसरों पर यह कहते जरूर सुनाई दिए कि उन्होंने माओवादियों से वार्ता करने की बात कभी नहीं कही थी, पीड़ितों से वार्ता करने की बात कही थी। आश्चर्य तो तब ओर अधिक होता है, जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री रहते हुए भी खुद ही संविधानिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करते हुए दिखाई दिए। छत्तीसगढ़ के ‘झीरम कांड’ से आठ साल बाद पर्दा उठाने के लिए ‘झीरम घाटी जांच आयोग’ के सचिव संतोष कुमार तिवारी ने दस खण्डों में चार हजार 184 पेज की रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपी थी। कांग्रेस ने राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपने पर आपत्ति जताई, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने केंद्र सरकार पर ही प्रश्न खड़े कर दिए। न सिर्फ प्रश्न खड़े किए बल्कि जांच आयोग की पूरी रिपोर्ट को ही नकार दिया और कहा कि केंद्र सरकार इस जांच से षड्यंत्रकारियों बचाना चाह रही है। जबकि ‘झीरम रिपोर्ट’ आंध्र प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश प्रशांत मिश्रा ने तैयार की थी। यानी सीधे-सीधे न्यायालय पर ही यहां प्रश्न खड़े करने का काम भूपेश बघेल करते हैं। इस तत्कालीन समय में सीएम के इस बयान पर भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल ने कहा भी ‘‘भूपेश की कांग्रेस सरकार डर क्यों रही है? आयोग पर संदेह करना देश के कानून व्यवस्था पर संदेह करना है।’’
भूपेश बघेल के दो कदाचरण आए प्रमुखता से सामनेः इस घटनाक्रम को आप गौर से समझेंगे तो भूपेश बघेल के दो कदाचरण स्पष्ट दिखाई देते हैं । पहला यह कि वे एक तरफ चुनाव से पूर्व सत्ता में आते ही जिस नक्सलवाद को छत्तीसगढ़ की धरती से समाप्त करने का जनता से वादा करते हैं, वह वादा सत्ता प्राप्त होते ही गायब हो जाता है। वह अपने लिखे “जन घोषणा पत्र” के नक्सल समस्या से जुड़े विषय को ही भूल जाते हैं। दूसरा यह कि जिस झीरम घाटी की घटना ने कांग्रेस के एक बड़े नेतृत्व को ही समाप्त कर दिया, वह सत्ता में रहते हुए उनके परिवार वालों को न्याय नहीं दिला पाते। उसे न्यायिक या अन्य प्रक्रियाओं में ही उलझाए रखते हैं, जिसका कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ अंतत: नक्सलियों को ही मिलता रहा है।
विष्णुदेव साय सरकार कर रही नक्सल खात्मे पर कार्य तो भूपेश उठा रहे सवालः वस्तुत: अब जब सत्ता बदले के बाद छत्तीसगढ़ की विष्णुदेव साय भाजपा सरकार यहां से नक्सलवाद के खात्मे के लिए कार्य कर रही हो। सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के खिलाफ कश्मीर की तर्ज पर टारगेट बेस्ड आपरेशन शुरू कर दिया हो। इंटेलिजेंस ब्यूरो के इनपुट के आधार पर नक्सल प्रभावित इलाकों में घुसकर जवान नक्सलियों को टारगेट बना रहे हों । पिछले तीन सप्ताह में ही छत्तीसगढ़ में 42 नक्सली मारे जा चुके हों और इस संबंध में जल्द ही युवकों का ब्रेनवॉश कर उन्हें हथियार उठाने के लिए उकसानेवालों पर ‘ऑपरेशन प्रहार’ चलाया जानेवाला हो, तब ऐसे वक्त में यह दुखद है कि एक बार फिर भूपेश बघेल अप्रत्यक्ष रूप से नक्सलियों का ही साथ देते नजर आ रहे हैं!
क्या यह कोई छोटी कार्रवाई या झूठी कार्रवाई है? जो कांग्रेस के नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और अभी राजनांदगांव सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे भूपेश बघेल का ये बयान आया कि जब से भाजपा की सरकार बनी है, प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ बढ़ गई हैं। खासकर शासन आते ही पुलिस-नक्सली मुठभेड़ के मामले बढ़े हैं। भाजपा फर्जी एनकाउंटर कराती है, आदिवासियों को परेशान करती है। अभी चार महीने में फिर से फर्जी एनकाउंटर में वृद्धि हुई है। बस्तर और कांकेर जैसे क्षेत्र में ये चल रहा है। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में फर्जी एनकाउंटर होता रहा है।
भूपेश के इस बयान पर गृहमंत्री विजय शर्मा ने भी लगे हाथों कांग्रेसी नेताओं से पूछ लिया है कि जिन दो जवानों से मिलकर आया हूं, उन्हें गोली लगी है, क्या वह फर्जी है? जो नक्सली मारे गए, वो 29 के 29 वर्दीधारी थे। उनके पास से एसएलआर, एक-47, इंसास 303 जैसी बंदूकें मिली हैं, क्या यह गलत है? कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में कभी ऑपरेशंस के लिए ध्यान नहीं दिया और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या होती रहीं, अन्य लोगों की हत्या होती रहीं । अब इस तरह की बात कर रहे हैं, यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। झीरम को लेकर भूपेश बघेल कहते रहे कि सबूत मेरे जेब में है तो आज तक जेब में ही रखे हुए हैं क्या? निकालते क्यों नहीं हैं?
कहना होगा कि पिछले तीन दशक से अधिक समय से माओवाद की समस्या से जूझ रहे छत्तीसगढ़ में यह पहली बार है, जब सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ में इतनी बड़ी संख्या में नक्सलियों को मार गिराया है। साल 2024 की शुरुआत के बाद से बस्तर क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ अलग-अलग मुठभेड़ में 79 नक्सली मारे गए हैं। अभी की मुठभेड़ में 25-25 लाख रुपये के इनामी नक्सलियों के टाप कमांडर शंकर राव और महिला नक्सली ललिता के साथ राजू भी मारे गए हैं।
नक्सली और भूपेश के गठजोड़ को लेकर इसलिए खड़े हो रहे प्रश्नः वास्तव में आज भूपेश बघेल की बयानबाजी से यही नजर आ रहा है कि वह लोकसभा का चुनाव नक्सलियों के भरोसे जीतने का सपना देख रहे हैं, इसलिए जब राज्य में आज नक्सलियों पर कड़ी कार्रवाई हो रही हैं तो उन्हें तकलीफ हो रही है। भाजपा के कार्यकर्ताओं पर नक्सली हमला बोल रहे हैं, उन्हें जान से मार रहे हैं, ऐसी घटनाओं पर भूपेश बघेल चुप्पी साधे रहते हैं । लेकिन जब राज्य की भाजपा सरकार नक्सलियों पर कड़ी कार्रवाई करती है, तो वे इसे फर्जी करार देने से भी पीछे नहीं हटते । वास्तव में उनके इस प्रकार के चरित्र से आज उनके प्रति कई संदेह पैदा कर दिया है । यह संदेह इसलिए भी पैदा होता है, क्योंकि भूपेश बघेल पाटन विधानसभा से अपने भतीजे के विरुद्ध चुनाव लड़े, अब दुर्ग लोकसभा सीट छोड़कर नक्सलवाद ग्रसित राजनादगांव में चुनाव लड़ने गए हैं। प्रश्न है, क्या अपने नक्सली प्रेम के कारण तो नहीं गए? उनके पिता का नक्सली और अलगाववादी रुझान और संबंध जग जाहिर हैं। जिसके लिए पिता के विरोध में पूर्व मुख्यमंत्री अकसर बोलते भी देखे गए। राजनादगांव से चुनाव लड़ना इनके माओवादी समर्थन के कारण है, ऐसा पांच वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद भी नक्सलवाद पर कोई प्रभावी कार्रवाई ना करना, हिन्दू संगठनों को निशाना बनाकर कई प्रमुख नेताओं की हत्या इनके राज में होना और अब नक्सली कार्रवाई को फर्जी बताना जैसी इनकी सोच के कारण यह संदेह पैदा हो रहा है ।