गांव, गरीब, किसान की मुखर आवाज़ रहे बेनी बाबू

पुण्यतिथि पर याद आती है बेनी प्रसाद वर्मा के संघर्षशील जीवन की गौरवगाथा

बाराबंकी। मुलायम सिंह यादव इस लिए बड़े लीडर हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसी प्रतिभाओं को पहचान लिया, जो अपने समाज को ऊंचा उठाने के लिए बेचैन थीं। वह साथ साथ चल निकले ताकि उनका समाज चमक उठे,जिसे सदियों से दबाया गया। मेरे लिए बेनी बाबू का जीवन बहुत कुछ सिखाता है। आज बेनी बाबू की चौथी पुण्यतिथि है।

गॉंव और खेत की मेड़ से उठे इस विकास पुरुष नें सही मायनो में लोहिया की नीतियों को धरातल पर उतारा। इस छः फुट के ज़िद्दी और ग़रीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता ने अपने वसूलों से कभी समझौता नहीं किया। मुद्दों पर अड़ना और डटना उनकी फ़ितरत थी। ये हिम्मत उन्हें गॉंव, गरीब, किसान से जुड़े अपने गर्भनाल रिश्तों से मिलती थी। यह हिम्मत उनमें रामसेवक यादव की वैचारिक ट्रेनिंग, चौधरी चरण सिंह की सादगी, आजम खान की दृढ़ता और मुलायम सिंह यादव की संघर्ष क्षमता से मिली थी।

वे एकमात्र ऐसे नेता रहे जिनकी राजनीति वाकपटुता और भाषणों पर नहीं, बल्कि लोक क्षेम और अपने कार्यकर्ताओं से वैयक्तिक संपर्क पर आधारित थी। राजनीति के तमाम उपनाम हर राज्य में गढ़े गए, पर “बाबू जी” का प्रयोग केवल उन्हीं के लिए हुआ। यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि वे चार बार विधायक, चार बार सॉंसद और तीन बार राज्य के कैबिनेट व दो बार केंद्र के मंत्री बने।

साधारण धोती और उनका सहज देशी देहाती व्यक्तित्व उन्हें आम आदमी से हमेशा जोड़े रखता था। यारों के यार बेनी प्रसाद वर्मा की सादगी और विनम्रता मनमोहक थी। बेनी बाबू पार्टी और समाज के लिए अपने धुर विरोधियों को भी गले लगा लेते थे। उनके मन में कभी कोई कटुता उन्हें गाली देने वालों के प्रति भी नहीं रही। कार्यकर्ताओं से जुड़ाव उनका ऐसा था कि वे प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं का नाम लेकर बुलाते थे। मुलायम सिंह के साथ उनकी खूब जमती थी। 90 के दशक में दोनों दिग्गजों ने मिलकर समाजवादी पार्टी का गठन किया। पूरे प्रदेश में समाजवाद का बिगुल फूंका। इस अभियान के बाद नेताजी और बाबूजी की जोड़ी ने सूबे की सियासत में एक नए अध्याय का सृजन किया। उसके बाद फिर बेनी प्रसाद वर्मा ने पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखा।

देश की राजनीति में की चिन्ता उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर भी रही। जब वह दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल के आठवें तल पर अपने दोनों घुटनों का प्रत्यारोपण कराने भर्ती हुए थे। उनका ऑपरेशन हो चुका था। अब वह स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। उनके पुराने साथी राजनाथ शर्मा जी (बाबूजी) के साथ मैं भी उन्हे देखने गया था। कुछ लोगों ने बताया था कि अब वह अपने जीवन के प्रति उतने आशावान नहीं रहे। लेकिन वहां का नजारा कुछ और ही बयां कर रहा था। बेनी बाबू दोनों हाथों से वाकर पकड़े पूरी एकाग्रता के साथ दो चार कदम चलने की कोशिश कर रहे थे। कुछ देर बाद उनकी नजर राजनाथ शर्मा जी पर पड़ी, उनका चेहरा खुशी और भावुकता से भर गया। मानो दर्द का इलाज मिल गया हो।

बेनी बाबू ने वहाँ बैठे लोगों से बताया कि ‘मै और राजनाथ जी दोनों सोशलिस्ट है। कभी हम दोनो 12-12 घन्टे साथ रह्ते थे। कई किलोमीटर साथ पैदल चलते थे। हम अक्सर लखनऊ चाट खाने जाया करते थे। एक आध बार सिनेमा भी देखा। लेकिन इधर काफी समय से उन्होंने अपने घर पर चाट, पकौड़ी, कचालू नहीं खिलाया।’ इन सब बातों से अस्पताल का वह कमरा हंसी ठहाकों से गूंज उठा। यही सादगी उनकी पहचान थी।

बाबू जी की नज़रों में समाजवाद सिर्फ विचार या सिद्धांत नहीं था, बल्कि एक आचरण था। उनका मानना था कि उसे जीवन में उतारकर ही समाज, देश, आदमी एवं उसकी समास्याओं को देखा जा सकता है। समाजवाद वही है, जो किसी पर अन्याय नहीं होने दे, बल्कि कमजोर के साथ खड़े होकर उसे मजबूत बनाए। सीधी और सपाट परिभाषा। शोषणमुक्त समाज के लिए संघर्ष करना ही समाजवाद है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तमाम समस्याओं पर भी बेनी बाबूजी अपने बेबाक विचार रखते थे। उनके भीतर एक बाल सुलभ भोलापन भी था जिसका बेजा इस्तेमाल कई लोगों ने किया।

धरती से जुड़े इस नेता के न रहने से गॉंव, गरीब, किसान की राजनीति में आए इस ख़ाली पन को कभी नहीं भरा जा सकता है। बाबूजी आप हमेशा अमर रहेंगे, आपको एक कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

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