क्या सिर्फ दिमागी बीमारियां हैं मेंटल हेल्थ ?

एक बार एक आदमी डॉक्टर के पास जाता है। दुखी लग रहे आदमी से डॉक्टर उसकी हालत की वजह पूछता है। आदमी कहता है, “मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा, दुनिया बड़ी नीरस हो गई है। ऐसा लगता है, जीने की कोई वजह ही नहीं है।” डॉक्टर कहता है कि अरे चिंता की कोई बात नहीं। तुम्हारे नसीब से शहर में सर्कस लगा हुआ है।

और उसमें प्रसिद्ध मसखरा पाबीनाची अपना शो कर रहा है। जाओ उसे देखकर आओ। तुम्हारा मन एकदम खुश हो जाएगा। यह सुनकर आदमी फूट-फूट कर रोने लगता है और सिसकियां लेते हुए कहता है, “पर डॉक्टर! मैं ही वह प्रसिद्ध मसखरा पाबीनाची हूं।”

पाबीनाची की तरह हम सभी दूसरों को खुश रखने के लिए कितना कुछ करते हैं, लेकिन जब अपनी खुशी की बात आती है तो ऐसा लगता है कि हम क्या ही कर सकते हैं। कई बार हमें लगता है कि हमारी खुशी कहीं-न-कहीं दूसरों पर निर्भर करती है। हम यह जानते भी हैं कि दूसरों के व्यवहार से हमें उदास होने की जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ नहीं कर पाते।

कल ‘वर्ल्ड मेंटल हेल्थ डे’ था। मेंटल हेल्थ के बारे में हर तरह की जानकारी आप शायद ले ही चुके होंगे। इसलिए आज हम इस बारे में बात करेंगे कि हम खुद के व्यवहार को कैसे समझ सकते हैं और अपने आप को खुश रखने के लिए क्या छोटे-छोटे बदलाव कर सकते हैं।

मैं ऐसा क्यों हूं
मानव स्वभाव और व्यवहार पर रिसर्च करने वाले स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के न्यूरो एंडोक्राइनोलॉजिस्ट रॉबर्ट सपोलस्की कहते हैं कि हमारे स्वभाव या व्यक्तित्व का कोई एक कारण नहीं है। अतीत की कोई एक घटना, कोई एक ट्रामा, कोई एक हादसा हमारे स्वभाव को निर्धारित नहीं करता। बल्कि हम धीरे-धीरे कई घटनाओं से बनते हैं।

इसलिए अपने स्वभाव को किसी एक घटना के जरिए नहीं समझा जा सकता। और अक्सर चीजें हमारे बस के बाहर भी होती हैं। इसलिए खुद को हर वक्त अपने स्वभाव, अपने डर, झिझक और घबराहट के लिए दोषी मत ठहराइए।

कभी हमें नए लोगों से मिलने, नई जगहों पर जाने या जीवन के बदलावों से भी घबराहट होती है। और हम अपने आप से सवाल पूछने लगते हैं कि मैं ऐसा क्यों हूं। एक और सवाल है, जो हम सबको पूछना चाहिए कि क्या यह सब भी मेंटल हेल्थ के दायरे में आता है?

क्या सिर्फ दिमागी बीमारियां हैं मेंटल हेल्थ
मेंटल हेल्थ को कई बार सिर्फ दिमागी बीमारियों से जोड़कर देखा जाता है। मुझे स्कूल, कॉलेज या ऑफिस में लोगों से बात करने में घबराहट होती है। क्या यह सब भी मेंटल हेल्थ के दायरे में रखा जाना चाहिए?

विश्व स्वस्थ संगठन की परिभाषा कहती है कि मेंटल हेल्थ वह स्वस्थ्य दिमागी अवस्था है, जब हम अपने स्ट्रेस से निपट सकें, अपनी क्षमताओं को समझ सकें, नई चीजें सीखें और अच्छा काम कर सकें। पहले हमें समझना चाहिए कि मेंटल हेल्थ का मतलब सिर्फ बीमारियों से निपटना नहीं है बल्कि पूरी क्षमता के साथ जीवन जीने के सामर्थ्य से है।

अकेले रहने और अकेले पड़ने में फर्क
कई बार हम समाज और आस-पास के दबाव में बहुत सी चीजों को छुपाए रखते हैं। धीरे-धीरे चीजें डिप्रेशन में बदल जाती हैं और कई बार लोग सुसाइड जैसे बड़े कदम भी उठा लेते हैं।

समस्या शायद यह है कि जो चीजें हमारे जीवन में हमें बहुत बड़ी लगती हैं, दूसरों को वह बहुत छोटी लग सकती हैं। इसी के चलते कई बार हम अकेले पड़ जाते हैं। अकेले रहने और अकेले पड़ने में बहुत फर्क होता है।

आपको अपने साथ खुश रहना सीखना चाहिए। खुद को प्यार करने के बाद ही हम सही मायनों में दूसरों को प्यार कर सकते हैं। इसलिए आइए समझते हैं कि वह कौन सी आदतें हैं, जो हमारे दिमाग को ज्यादा परेशान होने से बचा सकती हैं।

उदास होने और डिप्रेशन के बीच अक्सर लोग अंतर नहीं समझ पाते। इसका कारण भी है। दोनों के लक्षण एक से ही लगते हैं, लेकिन दोनों के बीच एक महीन अंतर है। उदासी का कारण हमें मालूम होता है। कभी फेल होने, तो कभी पसंदीदा मग टूट जाने की वजह से हम उदास हो जाते हैं। हमें मालूम होता है कि हम क्यों उदास हैं। पर डिप्रेशन में वजहें धुंधली नजर आती हैं। यह लंबे समय तक भी रह सकता है।

सिर्फ डिप्रेशन ही खराब मेंटल हेल्थ का दोषी नहीं है। एंजाइटी, बर्नआउट, बाइ पोलर डिसऑर्डर, पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी कई अवस्थाएं हैं, जो हमारी खराब मेंटल हेल्थ का कारण बनती हैं। इसलिए कुछ छोटे-छोटे बदलाव हैं, जो इनसे निपटने के लिए हम अपना सकते हैं।

दिल तो बच्चा है जी, और दिमाग?
दिमाग भी बच्चा ही है शायद, इसे भी खुश रहने के लिए बहलाना पड़ता है। वरना ये अपने मन से यहां-वहां के सिनेरियो बना के हमें रात भर जगाता है।

फोन को डालें डिब्बे में
नेटफ्लिक्स के को-फाउंडर रीड हास्टिंग्स ने एक बार कहा था कि नेटफ्लिक्स का सबसे बड़ा कम्पेटिटर ‘नींद’ है। जी हां, दिन में आठ घंटे ली जाने वाली नींद। इसलिए अपनी नींद की कुर्बानी न दें।

अच्छी नींद के लिए इन बातों का ध्यान रखें,

अंधेरे, शांत कमरे में सोएं
सोने से पहले स्क्रीन न देखें
रात में चाय-कॉफी न लें
सोने से पहले ज्यादा खाना न खाएं
आप आदमी हैं, प्रेशर कुकर नहीं
‘थ्री ईडियट्स’ फिल्म की यह लाइन तो आपको याद ही होगी। हर वक्त खुश रहने की एक तस्वीर सोशल मीडिया ने हमारे दिमाग में डाली है। सोशल मीडिया में लोग हमेशा खुश नजर आते हैं। शायद यही कारण है कि हमें लगने लगता है कि हम इतने खुश क्यों नहीं हैं। बात हमेशा खुश रहने की नहीं है। बात है जीवन के दबावों को समझने और उनसे निपटने की।

बात करने से बात बनती है
संभवत: हम इतिहास की सबसे ज्यादा कनेक्टेड और सबसे ज्यादा आइसोलेटेड पीढ़ी हैं। हम आज से ज्यादा कनेक्टेड पहले कभी नहीं थे। महज एक क्लिक भर से दुनिया के दूसरे कोने में बैठे इंसान से बात कर सकते हैं। चंद सेकेंड में ईमेल भेज सकते हैं, वीडियो कॉल पर चेहरा देख सकते हैं।

इसके बावजूद शायद आज की पीढ़ी सबसे अकेला भी महसूस करती है। दोस्तों से बात करने में हम हिचकते हैं, जबकि दूसरे भी ऐसी ही दिक्कतों से अकेले ही जूझ रहे होते हैं। इसलिए अपने आस-पास लोगों से बात करें, उनकी बातें सुनें।

अकेले यह समस्याएं बहुत बड़ी लगती हैं लेकिन किसी का साथ चलना चीजों को थोड़ा आसान बना देता है। इसलिए मदद मांगने में हिचकें नहीं। और मजरूह सुल्तानपुरी ने भी क्या खूब कहा है,
“यूं तो अकेला भी अक्सर, गिर के संभल सकता हूं मैं
तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा, दुनिया बदल सकता हूं मैं”

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