देहरादून: उस मां पर की क्या स्थिति होगी, जिसके कलेजे के टुकड़े को गुलदार अथवा बाघ ने मार डाला हो। उस परिवार की क्या मनोदशा होगी, जिसके कमाऊ पूत को किसी वन्यजीव ने छीन लिया हो। उस किसान की क्या स्थिति होगी, जिसके खेतों में खड़ी फसलों को जंगली जानवरों ने चौपट कर डाला हो। जीवनभर पाई-पाई जोड़कर बनाए गए आशियाने को यदि हाथी ने उजाड़ दिया हो तो उस परिवार पर क्या बीतती होगी।
वन्यजीवों के हमलों से त्रस्त 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में ऐसे तमाम प्रश्न हर किसी को सोचने पर विवश कर देते हैं। यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर, वन्यजीवों के हमलों से जनमानस को कब निजात मिलेगी। चूंकि, मौका लोकसभा चुनाव का है तो अपनी चौखट पर आने वाले प्रत्याशियों व उनके समर्थकों से मतदाता तो यह प्रश्न पूछेंगे ही। यही नहीं, चुनावी माहौल में यह प्रश्न भी फिजां में तैरेगा कि वन्यजीव और मनुष्य दोनों ही सुरक्षित रहें, वह आदर्श स्थिति कब तक आएगी।
यह सही है कि वन्यजीव संरक्षण में उत्तराखंड महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। बाघ, गुलदार व हाथी जैसे वन्यजीवों का बढ़ता कुनबा इसका उदाहरण है और इससे उसे देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान भी मिली है। बावजूद इसके तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। यही वन्यजीव, राज्यवासियों के लिए मुसीबत का सबब भी बन गए हैं। आए दिन वन्यजीवों के हमले सुर्खियां बन रहे हैं। पहाड़ हो अथवा मैदान या फिर घाटी वाले क्षेत्र, सभी जगह वन्यजीवों का खौफ तारी है।
गुलदारों का सबसे अधिक आतंक
सबसे अधिक आतंक तो गुलदारों का है, जो घर-आंगन और खेत-खलिहानों में धमककर जान के खतरे का सबब बने हुए हैं। गुलदार तो आबादी वाले क्षेत्रों में ऐसे घूम रहे हैं, मानो मवेशी हों। यही नहीं, कार्बेट, राजाजी टाइगर रिजर्व समेत 13 वन प्रभागों से लगे क्षेत्रों में बाघों ने नींद उड़ाई हुई है। स्थिति ये हो चली है कि गुलदार व बाघों की सक्रियता के कारण प्रभावित क्षेत्रों में स्कूलों की छुट्टियां तक करनी पड़ी हैं।
पहाड़ के गांवों में रात्रि कफ्र्यू भी इसी कारण से देखा है। यही नहीं, यमुना से लेकर शारदा नदी तक के हाथियों के बसेरे वाले क्षेत्र के आसपास के आबादी क्षेत्र में हाथियों का उत्पात किसी से छिपा नहीं है। इसके अलावा पहाड़ में भालू बड़ी मुसीबत बनकर उभरे हैं। बंदर, लंगूर, वनरोज, सूअर, सेही, हाथी जैसे जानवर फसलों को निरंतर चौपट कर किसानों की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं।
इस परिदृश्य के बीच गांवों से निरंतर हो रहे पलायन के पीछे भी बड़ा कारण वन्यजीवों का आंतक और फसल क्षति है। पलायन निवारण आयोग की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है। इसके मुताबिक 5.61 प्रतिशत लोगों के पलायन करने का कारण वन्यजीवों से फसल क्षति है।
यद्यपि, मानव-वन्यजीव संघर्ष की रोकथाम के दृष्टिगत राज्य गठन के बाद से ही चिंता जताई जा रही है, लेकिन ठोस समाधान अभी तक नहीं निकल पाया है। अब जबकि पानी सिर से ऊपर बहने लगा है तो कुछ समय पहले वन मुख्यालय में मानव-वन्यजीव संघर्ष निवारण को बाकायदा प्रकोष्ठ गठित किया गया। प्रकोष्ठ ने वन्यजीव क्षेत्रवार संवेदनशील स्थल भी चिह्नित किए हैं, लेकिन समस्या जस की तस है।
असल में, वन्यजीवों के हमले तभी थम सकते हैं, जब उन्हें अपनी हद यानी जंगल में ही थामने रखने को कदम उठाए जाएं। इस मोर्चे पर ही गंभीरता से पहल नहीं हो पाई है। इसके लिए जंगलों में वन्यजीवों के लिए भोजन, पानी का पर्याप्त इंतजाम, एक से दूसरे जंगल में आवाजाही के लिए निर्बाध गलियारे जैसी व्यवस्था होनी चाहिए।
साथ ही ऐसे क्षेत्रों पर विशेष ध्यान केंद्रित करना होगा, जहां से वन्यजीव आबादी वाले क्षेत्रों की तरफ रुख कर रहे हैं। निरंतर गहराती इस समस्या के समाधान को लेकर जो इच्छाशक्ति दिखाई जानी चाहिए थी, वह नजर नहीं आ रही। ऐसे में यह चर्चा भी शुरू हो चुकी है कि वन्यजीव वोटर नहीं हैं। यदि वे मतदाता होते तो शायद समस्या का अब तक समाधान हो चुका होता।
पांच वर्ष में वन्यजीवों के हमले (संख्या में)
वर्ष, मृतक, घायल
2024 (24 फरवरी तक), 09, 27
2023, 66, 325
2022, 82, 325
2021, 71, 361
2020, 67, 326
मुख्य वन्यजीवों की मौत
वर्ष, गुलदार, हाथी, बाघ
2024 (24 फरवरी तक), 20, 03, 02
2023, 123, 30, 22
2022, 112, 17, 09
2021, 108, 27, 10
2020, 138, 27, 06