- ललित गर्ग –
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम से तीन माह के लिए विराम लेते हुए लोकतंत्र के महाकुंभ चुनाव में पहली बार वोटर बने युवाओं से रिकार्ड संख्या में मतदान का आग्रह किया। अधिकतम संख्या में मतदान लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण होने के साथ लोकतंत्र के बलशाली होने का आधार हैं और जनता की सक्रिय भागीदारी का सूचक है। इस बार लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या लगभग 97 करोड़ है, इनमें बड़ी संख्या युवाओं की है। इसीलिये मोदी ने मतदान में युवाओं की सक्रिय भागीदारी का आह्वान करके एक जागरूक, सक्षम एवं जुझारु राजनेता का परिचय दिया है। अधिकतम मतदान भारतीय लोकतंत्र को अधिक स्वस्थ, सुदृढ़ एवं पारदर्शी बनाने की एक सार्थक मुहिम है। सभी मतदाताओं को मतदान के प्रति वैसा ही उत्साह दिखाना चाहिए जैसा कुछ समय से महिलाएं दिखा रही हैं। प्रधानमंत्री ने युवाओं से यह भी अपील की कि वे राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा बनें और राजनीतिक-चर्चाओं को लेकर जागरूक भी रहें। विशेषतः विभिन्न राजनीतिक दलों की लोकलुभावन घोषणाओं एवं चुनावी घोषणा पत्रों पर युवाओं को गहराई से जानकारी हासिल करना चाहिए कि इन घोषणाओं का आधार क्या है, इनके लिये धन कहां से आयेगा? चुनावी तैयारियों का जायजा लेने चेन्नई गए मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने इसी बात को उठाते हुए कहा है कि यदि राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्रों में लोकलुभावन वादे करने का अधिकार है तो मतदाताओं को यह जानने का हक भी है कि क्या वे वादे व्यावहारिक हैं और उन्हें लागू करने के लिए धन का प्रबंध कहां से किया जाएगा।
अगले माह लोकसभा चुनाव की संभावित घोषणा और उसके चलते आचार संहिता लागू हो जायेगी। अधिकतम मतदान लोकतंत्र में जन-भागीदारी का अवसर मात्र ही नहीं हैं, बल्कि देश की दशा-दिशा तय करने में आम आदमी के योगदान का भी परिचायक है। अधिकतम मतदान के लिए माहौल बनाने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में मतदान प्रतिशत अपेक्षा से कहीं कम होता है। विडंबना यह है कि आमतौर पर कम प्रतिशत महानगरों में अधिक देखने को मिलता है। इसका कोई मतलब नहीं कि सरकारों अथवा राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों की आलोचना तो बढ़-चढ़कर की जाए, लेकिन मतदान करने में उदासीनता दिखाई जाए। आमतौर पर मतदान न करने के पीछे यह तर्क अधिक सुनने को मिलता है कि मेरे अकेले के मत से क्या फर्क पड़ता है? एक तो यह तर्क सही नहीं, क्योंकि कई बार दो-चार मतों से भी हार-जीत होती है और दूसरे, अगर सभी यह सोचने लगें तो फिर लोकतंत्र कैसे सबल एवं सक्षम होगा? इस दृष्टि से प्रधानमंत्री मोदी का अधिकतम मतदान को प्रोत्साहन देने का उपक्रम एवं आव्हान एक क्रांतिकारी शुरूआत कही जा सकती है। इसका स्वागत हम इस सोच और संकल्प के साथ करें कि हमें अपने मतदान से आगामी आम चुनाव में भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण एवं राजनीतिक विसंगतियों पर नियंत्रण करना है।
अधिकतम मतदान के संकल्प से हमें मतदान का औसत प्रतिशत 55 से 90-95 प्रतिशत तक ले जाना चाहिए, ताकि इस लक्ष्य को हासिल करके हम भारतीय राजनीति की तस्वीर को नया रूख दे सके। मतदान करना हर नागरिक का मौलिक अधिकार है और कर्तव्य भी है, लेकिन विडम्बना है हमारे देश की कि आजादी के 77 वर्षों बाद भी नागरिक लोकतंत्र की मजबूती के लिये निष्क्रिय है। ऐसा लगता है जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। अधिकतम मतदान की दृष्टि से श्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए एक अलख जगाई थी। अनिवार्य वोट के लिये कानून लागू करना ही होगा और इस पहल के लिये सभी दलों को बाध्य होना ही होगा, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में यह नई जान फूंक सकती है। अब तक दुनिया के 32 देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था है लेकिन यही व्यवस्था अगर भारत में लागू हो गई तो उसकी बात ही कुछ और होगी और वह दुनिया के लिये अनुकरणीय साबित होगी। यदि ऐसा हुआ तो अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पुराने और सशक्त लोकतंत्रों को भी भारत का अनुसरण करना पड़ सकता है, हालांकि भारत और उनकी परिस्थितियां एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। भारत में अमीर लोग वोट नहीं डालते और इन देशों में गरीब लोग वोट नहीं डालते।
भारत इस तथ्य पर गर्व कर सकता है कि जितने मतदाता भारत में हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं और लगभग हर साल भारत में कोई न कोई ऐसा चुनाव अवश्य होता है, जिसमें करोड़ों लोग वोट डालते हैं लेकिन अगर हम थोड़ा गहरे उतरें तो हमें बड़ी निराशा भी हो सकती है, क्या हमें यह तथ्य पता है कि पिछले 77 साल में हमारे यहां एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी, जिसे कभी 50 प्रतिशत वोट मिले हों। कुल वोटों के 50 प्रतिशत नहीं, जितने वोट पड़े, उनका भी 50 प्रतिशत नहीं। गणित की दृष्टि से देखें तो 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सिर्फ 20-25 करोड़ लोगों के समर्थनवाली सरकार क्या वास्तव में लोकतांत्रिक सरकार है? क्या वह वैध सरकार है? क्या वह बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है? आज तक हम ऐसी सरकारों के आधीन ही रहे हैं, इसी के कारण लोकतंत्र में विषमताएं एवं विसंगतियों का बाहुल्य रहा है, लोकतंत्र के नाम पर यह छलावा हमारे साथ होता रहा है। इसके जिम्मेदार जितने राजनीति दल है उतने ही हम भी है। यह एक त्रासदी ही है कि हम वोट महोत्सव को कमतर आंकते रहे हैं। जबकि आज यह बताने और जताने की जरूरत है कि इस भारत के मालिक आप और हम सभी हैं और हम जागे हुए हैं। हम सो नहीं रहे हैं। हम धोखा नहीं खा रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने की अपील करते हुए यह सही कहा कि अधिक से अधिक मतदान का मतलब एक मजबूत लोकतंत्र है और मजबूत लोकतंत्र से ही विकसित भारत बनेगा, लेकिन अब ऐसी व्यवस्था एवं तकनीक विकसित करने का भी समय आ गया है जिससे अपने गांव-शहर से दूर रहने वाले वहां जाए बगैर मतदान कर सकें। ध्यान रहे कि ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है। रोजी-रोटी के लिए अपने गांव-शहर से दूर जाकर जीवनयापन करने वाले सब लोगों के लिए यह संभव नहीं कि वे मतदान करने अपने घर-गांव लौट सकें। यदि सेना और अर्धसैनिक बलों के जवानों के साथ-साथ चुनाव ड्यूटी में शामिल लोगों के लिए वोट देने की व्यवस्था हो सकती है तो अन्य लोगों के लिए क्यों नहीं हो सकती? इस बार ऐसी किसी व्यवस्था के निर्माण के लिए निर्वाचन आयोग के साथ सरकार का भी सक्रिय होना समय की मांग है। इसी से हम अधिकतम मतदान के लक्ष्य को हासिल कर सकेंगे।
अधिकतम वोटिंग का वास्तविक उद्देश्य है, जन-जन में लोकतंत्र के प्रति आस्था पैदा करना, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी निश्चित करना, वोट देने के लिए प्रेरित करना। एक जनक्रांति के रूप ‘भारतीय मतदाता संगठन’ इस मुहिम के लिये सक्रिय हुआ है, यह शुभ संकेत है। इस तरह के जन-आन्दोलन के साथ-साथ भारतीय संविधान में अनिवार्य मतदान के लिये कानूनी प्रावधान बनाये जाने की तीव्र अपेक्षा है। बेल्जियम, आस्ट्रेलिया, ग्रीस, बोलिनिया और इटली जैसे देशों की भांति हमारे कानून में भी मतदान न करने वालों के लिये मामूली जुर्माना निश्चित होना चाहिए। यदि भारत में मतदान अनिवार्य हो जाए तो चुनावी भ्रष्टाचार बहुत घट जाएगा। यह भी देखा गया है कि चुनावों मेंं येन-केन-प्रकारेण जीतने के लिये ये ही राजनीतिक दल और उम्मीदवार मतदान को बाधित भी करते हैं और उससे भी मतदान का प्रतिशत घटता है। अधिकतम मतदान से इस तरह के भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, लोगों में जागरूकता बढ़ेगी, वोट-बैंक की राजनीति थोड़ी पतली पड़ेगी। जिस दिन भारत के 90 प्रतिशत से अधिक नागरिक वोट डालने लगेंगे, राजनीतिक जागरूकता इतनी बढ़ जाएगी कि राजनीति को सेवा की बजाय सुखों की सेज मानने वाले किसी तरह का दुस्साहस नहीं कर पायेंगे। राजनीति को सेवा या मिशन के रूप में लेने वाले ही जन-स्वीकार्य होंगे।