अयोध्या। मेरा संतों से गहरा नाता रहा है। हमारी गोद में तपस्या कर संत समाधिस्थ होते रहे हैं। मैंने अनेक संत देखे, किंतु संत करपात्री की बात निराली थी। उन्होंने अध्यात्म के फलक पर न केवल झंडा गाड़ा, बल्कि रामजन्मभूमि मुक्ति के अभियान का संवहन कर मुझ पर अपूर्व उपकार किया।
वह राम मंदिर की मुक्ति के साथ आध्यात्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अग्रदूत थे। रामलला के प्राकट्य को प्रभावी बनाने वाले अभियान के प्रेरक भी थे।
1947 में देश की स्वतंत्रता के साथ आध्यात्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के भी सपने बुने जाने लगे थे। इस अभियान का नेतृत्व धर्मसम्राट करपात्री जी जैसे संन्यासी भी कर रहे थे। उनकी प्राथमिकताओं में राम राज्य की स्थापना के साथ रामजन्मभूमि की मुक्ति का अभियान भी शामिल था।
भटनी गांव में पैदा हुए थे करपात्री संत
1907 ई. में प्रतापगढ़ जिला के भटनी गांव में पैदा हुए करपात्री संत, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। उनका मूल नाम हरिनारायण ओझा था। वे दशनामी परंपरा के संन्यासी थे। दीक्षा के उपरांत उनका नाम ‘हरिहरानंद सरस्वती’ था, किंतु वे ‘करपात्री’ नाम से ही प्रसिद्ध थे। वे अपनी अंजुलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। उन्होंने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक दल भी बनाया था।
19 साल की उम्र में त्यागा घर
बाल्यावस्था से ही अपनी प्रतिभा का परिचय देने वाले हरिनारायण ने 19 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया और ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और दीक्षा के बाद हरिनारायण से हरिहर चैतन्य बन गए। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते थे।
वाराणसी में ही बीता अधिकांश जीवन
गंगा तट पर फूस की झोपड़ी में एकाकी निवास, घरों में 24 घंटे में एक बार भिक्षा ग्रहण, भूमि शयन, एक टांग पर खड़े रह कर 24-24 घंटे तपस्या के लिए उन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली। उनकी साधना स्वयं के लिए ही नहीं समाज के भी लिए थी। उन्होंने वाराणसी में ‘धर्मसंघ’ की स्थापना की। उनका अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता। वे अद्वैत दर्शन के अनुयायी एवं शिक्षक थे। 1948 ई. में उन्होंने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की, जो परंपरावादी हिंदू विचारों का राजनीतिक दल था। रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की नींव करपात्रीजी ने ही रखी थी।
1984 में शुरू हुआ था रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन
विहिप के संयोजन में रामजन्मभूमि मुक्ति का आंदोलन तो 1984 में शुरू हुआ। तब तक करपात्री जी का साकेतवास हो चुका था। किंतु वह इस आंदोलन के प्रेरक साबित हुए। हमारे लिए उस उस प्रकाश स्तंभ की तरह अविस्मरणीय हैं, जो रामजन्मभूमि की मुक्ति के साथ सनातन संस्कृति को प्रतिष्ठापित करने के अभियान का मार्गदर्शक था और जब भी कोई इस दिशा में आगे बढ़ेगा, उसे संत करपात्री के आभा मंडल का अवगाहन करना होगा।
मोक्षदायिनी पुरी होने की गरिमा से मैं उन्हें अपना यशस्वी पुत्र मानती हूं और एक पुत्र यदि संत बन जाय, तो पुत्र भी आदर पाने का अधिकारी होता है और मैं इस तरह उन्हें शत-शत नमन करती हूं।