अजीत द्विवेदी,
कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां धीरे धीरे सदमे से उबर रही हैं। हिंदी भाषी तीन राज्यों में कांग्रेस की करारी हार ने सिर्फ कांग्रेस का मनोबल नहीं तोड़ा था, बल्कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडियाÓ के दूसरे घटक दलों का भी हौसला टूट गया था। तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद कई राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों के तेवर बदल गए। कहीं कांग्रेस को आंख दिखाई जाने लगी तो कहीं कांग्रेस का स्वागत होने लगा। ऐसा होने के दो कारण हैं। या तो विपक्षी पार्टियों ने मान लिया है कि भाजपा से मुकाबला मुश्किल हो गया और अब उसे हराया नहीं जा सकता है। बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी इस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। भले नीतीश का अंतिम फैसला कुछ भी हो लेकिन उनकी पार्टी के नेता मान रहे हैं कि भाजपा से लडऩे की बजाय उसके साथ चलना चाहिए। दूसरी ओर जिनको कांग्रेस की जरुरत महसूस होने लगी है उसमें समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव हैं तो आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल भी हैं। दोनों तालमेल के लिए तैयार दिख रहे हैं और सीट बंटवारे को लेकर हुई पहली बैठक से यह साफ भी हो गया है।
बहरहाल, तीन राज्यों में कांग्रेस की हार ने विपक्षी पार्टियों और सोशल मीडिया में भाजपा विरोधी पूर्व नौकरशाहों, पूर्व पत्रकारों, सामाजिक विचारकों आदि को किस तरह से प्रभावित किया है और कैसे विपक्ष के तमाम फ्रीलांस समर्थक चूहों की तरह विपक्षी जहाज से कूदने लगे हैं वह अलग चर्चा का विषय है। अभी जो विपक्ष एकजुट है और अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबले की तैयारी कर रहा है उसे बहुत काम करने होंगे। सबसे अहम काम एक मजबूत व भरोसे का गठबंधन बनाना है, जिसमें सीटों का तालमेल इस तरह से हो कि उस पर कोई विवाद न रहे। यह सबसे अहम काम है क्योंकि अगर सबकी सहमति से सीटों का बंटवारा नही होता है तो जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को गठबंधन के उम्मीदवारों का दिल से साथ देने के लिए तैयार करना मुश्किल हो जाएगा। अगर सबकी सहमति से सीटों का बंटवारा होता है और यह मैसेज बनता है कि सबके लिए विन-विन सिचुएशन है यानी साथ मिल कर लडऩे से सब फायदे में रहेंगे तो कार्यकर्ता जुड़ेंगे और मेहनत करके चुनाव लड़ेंगे। सो, भरोसे का गठबंधन और वस्तुनिष्ठ आकलन के साथ सीटों का बंटवारा पहला काम है, जिसे विपक्षी पार्टियों को तय समय सीमा के भीतर कर लेना चाहिए।
इसके बाद गठबंधन का नेतृत्व करने वाले चेहरे का मामला है। विपक्षी गठबंधन की दिल्ली में हुई चौथी बैठक में सबको हैरान करते हुए ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम का प्रस्ताव रख दिया था। उन्होंने खडग़े को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना कर लडऩे की बात कही, जिसका समर्थन अरविंद केजरीवाल ने किया। इससे गठबंधन के अंदर विभाजन और भरोसे का संकट दिखा। इसके तुरंत बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तेवर दिखाए और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुला कर खुद पार्टी के अध्यक्ष बन गए। ‘इंडियाÓ गठबंधन को मजबूत बनाने और भाजपा विरोधी नैरेटिव का चेहरा बने राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को उन्होंने अध्यक्ष पद से हटा दिया।
अब उनकी पार्टी के नेता मांग कर रहे हैं कि संयोजक के साथ साथ नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी बनाया जाए। खडग़े ने हालांकि बैठक में ही ममता के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था लेकिन ममता ने वह राग बंद नहीं किया है। उनको कांग्रेस से तालमेल करने में परेशानी हो रही है पर कांग्रेस अध्यक्ष को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना कर लडऩे का सुझाव दे रही हैं। इससे अपने आप उनका विरोधाभास जाहिर होता है। सो, कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को गठबंधन के चेहरे के बारे में फैसला करना है। एक सुनियोजित रणनीति बनानी होगी और उसके साथ जनता के बीच जाना होगा। अगर यह फैसला होता है कि बिना किसी चेहरे के और सामूहिक नेतृत्व में विपक्ष लड़ेगा तो इसके सभी पहलुओं पर विचार करना होगा ताकि जनता के बीच जाने पर किसी तरह का कंफ्यूजन न रहे और न कोई विरोधाभास दिखे।
इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से तैयार किए गए चुनावी विमर्श का जवाब देने की रणनीति बनानी होगी। मोदी के चुनावी विमर्श में हिंदुत्व का मुद्दा प्रमुख है, जिसका प्रतीक श्रीराम जन्मभूमि मंदिर है। इसका उद्घाटन 22 जनवरी को होगा और उसके बाद भाजपा पूरे देश से रामभक्तों को अयोध्या ले जाने का अभियान चलाएगी। सो, हिंदुत्व और राममंदिर के चुनावी विमर्श का विपक्ष को कैसे मुकाबला करना है इसकी रणनीति जल्दी से जल्दी बनानी होगी। अभी सभी पार्टियां अपने अपने हिसाब से इस मसले से निपटने की कोशिश कर रही हैं। कांग्रेस नेता अयोध्या नहीं जा रहे है पर उत्तर प्रदेश में जहां यह कार्यक्रम हो रहा है वहां की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी ने यह स्टैंड लिया है कि जब रामजी बुलाएंगे तो जाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनको न्योता नहीं मिला है।
उधर मुंबई में उद्धव ठाकरे 22 जनवरी को नासिक जाएंगे और राममंदिर में पूजा अर्चना करेंगे। क्या यह अच्छा नहीं होता कि जिन विपक्षी पार्टियों के नेताओं को नहीं बुलाया गया है वे सभी 22 जनवरी को भगवान राम के किसी दूसरे प्रसिद्ध मंदिर में जाकर पूजा करते? उस दिन सब कोऑर्डिनेटेड तरीके से अलग अलग मंदिरों में भी जा सकते हैं। कुछ भी करके विपक्षी पार्टियों को व्यापक हिंदू समाज में यह संदेश देना चाहिए कि वे अयोध्या में राममंदिर निर्माण से खुश हैं और हिंदू धर्म के इस गौरवपूर्ण क्षण में उनके साथ हैं।
हिंदुत्व और मंदिर के अलावा मोदी के चुनावी विमर्श में राष्ट्रवाद एक बड़ा मुद्दा है और उन्होंने इसके साथ ही बुनियादी ढांचे के विकास, गरीब कल्याण, लाभार्थी आदि के नैरेटिव को भी शामिल किया है। विपक्ष को इसका जवाब भी खोजना होगा। नरेंद्र मोदी द्वारा सेट किए गए एजेंडे के बरक्स एक वैकल्पिक एजेंडा तय किए बगैर चुनाव एकतरफा हो जाएगा। विपक्ष की ओर से लगातार यह प्रयास होता है कि विकास और आम लोगों की भलाई के मुद्दे पर सरकार को विफल करार दिया जाए। वह प्रयास जारी रखते हुए विपक्ष को अपना एक मॉडल पेश करना होगा और उसे ऐसे पेश करना होगा कि जनता उस पर भरोसा करे।
ध्यान रहे नरेंद्र मोदी को जिन लोगों ने दो चुनावों में वोट किया है उनका वोट तोडऩा मुश्किल है। वह वोट ज्यादा मजबूती से मोदी के साथ जुड़ा है। लेकिन जिसने पहले मोदी को वोट नहीं किया है या जो लोग पहली बार वोट करेंगे या जो नए लोग मतदान करने जाएंगे उनका वोट अपनी ओर करने का प्रयास विपक्ष को करना चाहिए। इसके लिए एक तरीका तो वह है, जिसे आजमाने की बात सब कर रहे हैं। अगर अधिकतर सीटों पर भाजपा बनाम विपक्ष का मुकाबला हो यानी वन ऑन वन मुकाबला बने तो अपने आप विपक्ष का वोट एकजुट होगा। लेकिन इसके लिए उन मतदाताओं को अपने एजेंडे और विकास के रोडमैप से यह भरोसा भी दिलाना होगा कि वह विपक्ष के उम्मीदवार को वोट करके गलती नहीं कर रहा है।