अयोध्या। यह कहानी उस कालखंड की वास्तविकता है, जब 1857 के विप्लव में बहादुरशाह को सम्राट घोषित कर विद्रोह का नारा बुलंद किया गया। गोंडा के तत्कालीन राजा देवीबख्श सिंह और बाबा रामशरणदास की अध्यक्षता में विद्रोही अंग्रेजी राज्य के खात्मे के लिए संगठित हो रहे थे।
अंग्रेजों के विरुद्ध मुस्लिमों को संगठित करने का दायित्व अयोध्या के ही अमीर अली निभा रहे थे। इसमें वह सफल भी थे। जल्दी ही उनकी गणना निर्विवाद स्थानीय मुस्लिम नेता की बनी। इतना ही पर्याप्त नहीं था। अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता के लिए जरूरी था कि हिंदू-मुस्लिम मिल कर लड़ें। बाबा रामशरणदास एवं अमीर अली जरूर आपस में मिले थे, किंतु उन्हें दोनों समुदाय के लोगों को एकजुट करना था।
रामभक्तों की आस्था के केंद्र रामजन्मभूमि
इस एकजुटता में सबसे बड़ी बाधक बाबरी मस्जिद थी, जिसके नाम पर मुस्लिम समुदाय के लोग करोड़ों रामभक्तों की आस्था के केंद्र रामजन्मभूमि पर अपना दावा करते थे। अमीर अली ने विवाद दूर करने के लिए निर्णायक भूमिका निभाई और मुस्लिमों को रामजन्मभूमि पर दावा छोड़ने के लिए राजी कर लिया।
उन्होंने कुछ ही दिन पूर्व हिंदुओं द्वारा अंग्रेजों से लड़कर बेगमों को बचाने का वास्ता दिया। उन्होंने कहा कि सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना बादशाह मानकर हमारे हिंदू भाई अपना खून बहा रहे हैं। फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है कि हिंदुओं के खुदा श्रीरामचंद्रजी की पैदाइशी जगह पर जो बाबरी मस्जिद बनी है, वह हम हिंदुओं को बाखुशी सुपुर्द कर दें। ऐसा करके हम इनके दिल पर फतह पा जाएंगे।
अंग्रेजों ने लगाई आग
बाबा रामशरणदास ने अमीर अली के इस प्रयास का स्वागत किया और सद्भाव की वह भावभूमि अंतिम स्पर्श पाने लगी, जिस पर मुस्लिम मस्जिद का दावा छोड़ने ही वाले थे। तभी इस संभावना की भनक अंग्रेजों को लगी। उन्हें यह बात मंजूर नहीं थी। वे चाहते थे कि मस्जिद बनी रहे, जिससे हिंदू और मुसलमानों के दिल आपस में मिलने न पाएं।
सुलतानपुर गजेटियर में प्रकाशित कर्नल मार्टिन अपनी रिपोर्ट में कहता है कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद मुसलमानों के हिंदुओं को वापस करने की खबर सुनकर हम लोगों में घबराहट फैल गई और यह विश्वास हो गया कि हिंदुस्तान से अब अंग्रेज खत्म हो जाएंगे, लेकिन अच्छा हुआ गदर का पासा पलट गया और अमीर अली तथा बाबा रामशरणदास को फांसी पर लटका दिया गया।
इसके बाद फैजाबाद के बलवाइयों की कमर टूट गई और तमाम फैजाबाद जिले पर हमारा रौब जम गया। जिस प्रयास के लिए दोनों समुदायों की पीढ़ियां बाबा रामशरणदास और अमीर अली का अभिनंदन करतीं, उसी प्रयास के लिए अंग्रेजों ने रामजन्मभूमि के कुछ ही दूर स्थित कुबेर टीला पर 18 मार्च, 1858 को दोनों महान नायकों को फांसी पर लटका दिया। इमली के जिस पेड़ पर लटका कर रामशरणदास और अमीर अली को फांसी दी गई, बहुत दिनों तक जनता उस इमली के पेड़ की पूजा करती रही।
मुक्ति के संघर्ष में मुस्लिम भी बने सहयोगी
इसे सत्य और न्याय का प्रभाव कहें या श्रीराम की आभा। रामजन्मभूमि की मुक्ति के संघर्ष में अमीर अली का प्रयास अविस्मरणीय है ही, कतिपय अन्य मुस्लिमों ने भी राम भक्तों का साथ दिया। इसका आरंभ बाबर के पौत्र अकबर के रुख से होता है। उसने हिंदुओं की भावनाओं पर भी गौर किया और रामजन्मभूमि के सम्मुख राम चबूतरा बनाने एवं उस पर मूर्ति रख कर पूजन-अर्चन की अनुमति दी। नवाब वाजिद अली शाह भी इस दिशा में अग्रणी थे।
उन्होंने कट्टर पंथी तबके के दबाव को दरकिनार कर रामचबूतरा पर हिंदुओं के पूजन-अर्चन के अधिकार को बहाल किया। 22-23 दिसंबर 1949 की घटना रामजन्मभूमि मुक्ति के संघर्ष की सुदीर्घ यात्रा में अविस्मरणीय है। यह वही तारीख थी, जब मंदिर को बलात मस्जिद का आकार दिए गए ढांचे में रामलला का प्राकट्य हुआ। उस समय वहां ड्यूटी दे रहे कांस्टेबल बरकत ने बयान देकर स्पष्ट किया कि भीतर से नीली रोशनी आ रही थी, जिसे देखकर बेहोश हो गया।