नई दिल्ली। एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल चिंता का कारण रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2019 में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए शीर्ष 10 खतरों में से एक के रूप में रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) को शामिल किया है। एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग एएमआर का प्रमुख कारण है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने इस चुनौती से निपटने के लिए कई कदम भी उठाए हैं। लेकिन एक सरकारी अध्ययन में सामने आए निष्कर्ष चिंता को बढ़ाने वाले हैं।
अध्ययन के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल खतरनाक रूप से बढ़ रहा है। यह अध्ययन 15 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के 20 अस्पतालों में किया गया है। छह महीने में 9,652 पात्र रोगियों पर सर्वेक्षण किया गया। अध्ययन में पता लगा कि इन अस्पतालों में 71.9 प्रतिशत रोगियों को डाक्टरों ने एंटीबायोटिक दवा लिखी। 20 में से चार संस्थानों ने 95 प्रतिशत से अधिक मरीजों को एंटीबायोटिक दवा लिखी।
नवंबर 2021 से अप्रैल 2022 के बीच किए गए अध्ययन के निष्कर्ष मंगलवार को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जारी किए। अध्ययन में पाया गया कि 45 प्रतिशत रोगियों को उपचार के लिए एंटीबायोटिक्स दी जा रही थीं जबकि 55 प्रतिशत को रोगों से बचाव के लिए एंटीबायोटिक्स दी जा रही थीं। यह भी पता चला कि 4.6 प्रतिशत रोगियों ने चार या अधिक एंटीबायोटिक्स लीं।
अध्ययन में पाया गया कि वाच ग्रुप एंटीबायोटिक्स (57 प्रतिशत), एक्सेस ग्रुप एंटीबायोटिक्स (38 प्रतिशत) की तुलना में अधिक बार लिखी गई। वाच ग्रुप एंटीबायोटिक दवाओं में एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित करने की अधिक क्षमता होती है। अध्ययन में सिफारिश की गई है कि चिकित्सा संस्थानों को एंटीबायोटिक प्रतिरोध को कम करने के लिए मानक उपचार दिशानिर्देशों का पालन करना चाहिए। प्रत्येक चिकित्सा संस्थान के पास एंटीबायोटिक नीति होनी चाहिए।