भारत सरकार को यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि उसके सामने असली चुनौती वह रुख और संदेश तय करने की है, जिससे वह भारत को नए उभरते वैश्विक ढांचे में नेतृत्वकारी भूमिका रखने वाले देशों में शामिल कर सके।
यह खबर महत्त्वपूर्ण है कि भारत अपनी विदेश सेवा के पुनर्गठन की योजना बना रहा है। इसके तहत प्रवेश स्तर (एंट्री लेवल) के अधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाएगी। इसके पहले विदेश मामलों की संसदीय स्थायी कमेटी ने एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत की राजनयिक सेवा अपेक्षाकृत छोटी अर्थव्यवस्था वाले देशों के मुकाबले भी कम स्टाफ वाली है। कमेटी ने सिफारिश की थी कि भारतीय विदेश सेवा में मौजूद बल की तुलना और चीन के राजनयिक मिशनों और अन्य प्रमुख विकासशील देशों की विदेश सेवाओं के साथ की जानी चाहिए। हाल में भारत सरकार ने भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) की समीक्षा और पुनर्गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। बदलते वक्त के तकाजों को अगर ध्यान में रखें, तो इस निर्णय को स्वागतयोग्य माना जाएगा। मगर इससे यह सोच लेना शायद सही नहीं होगा कि यह कदम उठा लिए जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों और विश्व मंचों पर भारत की उपस्थिति अधिक प्रभावशाली हो जाएगी। आखिरकार आईएफएस अधिकारी महज संदेशवाहक होते हैं। संदेश देश का राजनीतिक नेतृत्व तैयार करता है।
इस समय सबसे ज्यादा भ्रम इसको लेकर पैदा हो गया है कि प्रमुख वैश्विक मुद्दों पर भारत का रुख क्या है और वह दुनिया को क्या संदेश देना चाहता है? बीते पौने दो साल के अंदर दुनिया में दो बड़े संकट (यूक्रेन युद्ध और इजराइल-फिलस्तीन युद्) खड़े हुए। मगर इन दोनों मामलों में भारत का रुख संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर मतदान में भाग ना लेना है। उधर दुनिया में तीखे होते ध्रुवीकरण के बीच हर नाव पर कदम रखने की नीति थोड़े समय के लिए लाभदायक हो सकती है, लेकिन उससे देश की छवि और हैसियत नहीं चमकेगी। सरकार को यह अवश्य याद रखना चाहिए कि उसके सामने असली चुनौती वह रुख और संदेश तय करने की है, जिससे वह भारत को नए उभरते वैश्विक ढांचे में नेतृत्वकारी भूमिका रखने वाले देशों में शामिल कर सके। वरना, विदेश सेवा का विस्तार महज ऐसे नौकरशाहों की संख्या बढऩा भर बनकर रह जाएगा, जो पेचीदा मुद्दों पर वैश्विक बहस के बीच दिशाहीन नजर आएंगे। उसे याद रखना चाहिए कि नौकरशाहों का दिशा-निर्देशन करना उसका दायित्व है।