अजीत द्विवेदी
अगले साल के लोकसभा चुनाव से पहले जहां प्रधानमंत्री अपनी वैश्विक लोकप्रियता के आधार पर विश्व मित्र की छवि पेश करके विपक्ष के नेताओं को बौना बनाने में लगे हैं वही विपक्ष की ओर से जाति गणना का पहला बड़ा दांव चला गया है। यह पूरे देश में लोकसभा के चुनाव का नैरेटिव बदलने वाला दांव है। हालांकि पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि विपक्षी पार्टियों के गठबंधन को इसका बहुत बड़ा फायदा होगा, लेकिन यह संभव है कि इस दांव से विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी पिच छोड़ कर विपक्ष की पिच पर खेलने के लिए मजबूर करे। यह संभव है कि जातियों के खेल में किसी न किसी रूप में भाजपा भी उतरे और अपनी सोशल इंजीनियरिंग के दम पर विपक्ष को मात देने का प्रयास करे। अभी तक प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी भारत को विश्व गुरू बनाने, 2047 तक भारत को विकसित बनाने, अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के उद्घाटन जैसे मुद्दों की प्रत्यक्ष और जाति की परोक्ष राजनीति कर रही है लेकिन अब उसको जाति की राजनीति में खुल कर आना होगा।
जातियों की गणना से जो नया नैरेटिव बनेगा उसका सबसे बड़ा असर बिहार में होगा क्योंकि बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी 63 फीसदी से ज्यादा है और सवर्ण मतदाता सिर्फ साढ़े 15 फीसदी हैं, जिसमें मुस्लिम सवर्ण भी शामिल हैं। दलित आबादी 20 फीसदी के करीब है, लेकिन उसमें भी महादलित 15 फीसदी हैं, जिनकी राजनीति नीतीश कुमार करते हैं। सो, बिहार का रास्ता भाजपा के लिए मुश्कल हो गया परंतु बाकी किसी दूसरे राज्य में नुकसान की संभावना अपेक्षाकृत कम है। मिसाल के तौर पर पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश को लिया जा सकता है। वहां भाजपा को नुकसान नहीं होगा या बहुत कम होगा। इसका कारण यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति नब्बे के दशक के शुरू में ही कर दी थी। राज्य में पार्टी की पहली सरकार के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे। वे लोध जाति से आते थे। उनके अलावा हिंदुत्व के चेहरे के तौर पर विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह जैसे नेता मुखर थे। ये दोनों भी पिछड़ी जाति से आते थे। उस समय तो भाजपा को इसका नुकसान हुआ लेकिन समय के साथ इन नेताओं की वजह से भाजपा अति पिछड़ी जातियों में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रही। जैसे जैसे मुलायम सिंह यादव मुस्लिम और यादव राजनीति में गहरे तक धंसते गए वैसे वैसे भाजपा अति पिछड़ों में लोकप्रिय होती गई। भाजपा के खुद अति पिछड़ा राजनीति करने का फायदा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में कोई नीतीश कुमार नहीं पैदा हो सका।
बिहार में भाजपा को नुकसान इसलिए होगा क्योंकि बिहार में उसने हाल के दिनों तक सोशल इंजीनियरिंग पर ध्यान नहीं दिया था। नब्बे के दशक में जब उत्तर प्रदेश में प्रयोग शुरू हो गए थे तब बिहार में कैलाशपति मिश्र सबसे बड़े नेता थे। पार्टी की कमान उनके हाथ में थी और उनके साथ साथ सीपी ठाकुर, लालमुनि चौबे, शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव, यशवंत सिन्हा, अश्विनी चौबे, राधामोहन सिंह आदि सबसे मुखर नेता थे। एकमात्र पिछड़ा चेहरा सुशील मोदी का था। बहुत बाद में जब भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग शुरू की तो पता नहीं किस रणनीति के तहत लालू प्रसाद के परिवार से यादव वोट छीनने का प्रयास शुरू किया। इसके लिए रामकृपाल यादव केंद्र में मंत्री और नित्यानंद राय प्रदेश में अध्यक्ष बनाए गए। हुकूमदेव नारायण यादव को भी बड़ी तरजीह दी गई तो बिहार में सुशील मोदी के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्री नंदकिशोर यादव हुए। भूपेंद्र यादव बिहार के प्रभारी बने। इस राजनीति से भाजपा को रत्ती भर फायदा नहीं हुआ। बाद में उसने प्रेम कुमार, रेणु देवी, तारकिशोर प्रसाद आदि के चेहरे आगे किए लेकिन उसका भी कोई फायदा नहीं हुआ।
कह सकते हैं कि भाजपा के साथ एनडीए में रहते हुए नीतीश कुमार ने यह सुनिश्चित किया कि भाजपा ऐसी कोई राजनीति नहीं कर सके, जिससे उनको नुकसान हो। तभी अब जब नीतीश कुमार भाजपा से अलग हैं और उनकी सरकार ने जाति गणना करा कर उसके आंकड़े जारी किए हैं तो भाजपा को समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। अब भाजपा को या तो किसी तरह से नीतीश कुमार को वापस एनडीए में लाने का प्रयास करना होगा या बिहार में बनी छोटी छोटी जातीय पार्टियों को महत्व देना होगा। जाति गणना के आंकड़े आने से जीतन राम मांझी की पूछ बढ़ेगी, जिनकी मुसहर जाति की आबादी तीन फीसदी से ज्यादा है। उपेंद्र कुशवाहा का महत्व बढ़ेगा क्योंकि कोईरी आबादी सवा चार फीसदी के करीब है। चिराग पासवान को तरजीह मिलेगी क्योंकि दुसाध और उसकी उपजातियों की आबादी पांच फीसदी से ज्यादा है। मल्लाहों की राजनीति करने वाले मुकेश सहनी को पूछना पड़ेगा क्योंकि मल्लाह और उसकी उपजातियों की आबादी नौ फीसदी के करीब है। इन सबको साथ लेने के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं होगी कि भाजपा पिछला प्रदर्शन दोहराए क्योंकि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के पास पिछड़ा, अति पिछड़ा, मुस्लिम, महादलित और सवर्ण मतदाताओं का बड़ा समूह है।
बहरहाल, बिहार के बाहर जैसे उत्तर प्रदेश में कोई खास असर इसका नहीं होगा वैसे ही दूसरे राज्यों में भी बड़े असर की संभावना नहीं है। मध्य प्रदेश में भाजपा पिछले 20 साल से अति पिछड़ी जातियों को आगे करके राजनीति कर रही है। उसने 2003 में उमा भारती को मुख्यमंत्री का दावेदार बना कर लड़ा था और चुनाव जीता था। उसके बाद से उसके सारे मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के रहे हैं। राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति का कार्ड बहुत कामयाब नहीं होगा। भाजपा के पक्ष में एक बात यह भी जाती है कि जाति गणना के बाद पहला चुनाव लोकसभा का है। अगर बिहार में विधानसभा का चुनाव पहले होता तो उसमें भाजपा का सूपड़ा साफ हो सकता था। लेकिन पहला चुनाव चूंकि लोकसभा का है और नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए है इसलिए भाजपा एडवांटेज ले सकती है। वह प्रचार कर सकती है कि मोदी खुद अति पिछड़ी जाति से आते हैं, जिनको प्रधानमंत्री बनने से रोकने की राजनीति नीतीश और लालू कर रहे हैं। चूंकि लालू चुनाव नहीं लड़ सकते हैं और नीतीश के प्रधानमंत्री बनने की संभावना नगण्य है इसलिए भाजपा अति पिछड़े मतदाताओं को मोदी के पक्ष में मोड़ सकती है।
इसकी काट में भाजपा के पास दूसरा दांव जस्टिस जी रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का है। यह रिपोर्ट पिछले दिनों सरकार को सौंपी गई, जो पिछड़ी जातियों के वर्गीकरण के बारे में है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की 26 सौ से ज्यादा पिछड़ी जातियों में नौ सौ से कुछ ज्यादा जातियां ऐसी हैं, जिनको आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है। उनके एक भी सदस्य को सरकारी नौकरी नहीं मिली है। इसमें यह भी बताया गया है कि चुनिंदा मजबूत जातियों ने आरक्षण का पूरा लाभ लिया है। इसलिए उनके आरक्षण में कमी करके अत्यंत पिछड़ी और कमजोर जातियों का आरक्षण बढ़ाने का प्रावधान किया जा सकता है। हालांकि यह भी एक तरह से भाजपा का जाति राजनीति में घुसना होगा लेकिन जातीय गणना से भाजपा को मात देने का दांव खेल रही पार्टियों का खेल बिगाडऩे के लिए जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट कारगर साबित हो सकती है। लेकिन यह राजनीति इतने पर रूकने वाली नहीं है। जातियों के आंकड़े आने के बाद अगला दांव आरक्षण बढ़ाने का होगा। उसका देश की राजनीति पर व्यापक असर हो सकता है।