उत्तर भारत की हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा की और तेलंगाना में कांग्रेस की जीत के बाद उत्तर-दक्षिण के विभाजन का एक विमर्श खड़ा किया गया है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस अब दक्षिण भारत की पार्टी रह गई है, जबकि भाजपा उत्तर भारत की पार्टी है। यह भी कहा जा रहा है कि उत्तर और दक्षिण भारत दो टापू हो गए हैं, जिनके बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। यह एक राजनीतिक विमर्श है, जिसे आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक और आर्थिक पहलुओं का भी संदर्भ दिया जा रहा है। भाषायी विभाजन का वितंडा खड़ा हो रहा है तो सनातन और सनातन विरोध का विमर्श आगे बढ़ाया जा रहा है। यह सही है कि भाषा, संस्कृति, खान-पान और दूसरी कई चीजों में देश के दोनों हिस्सों में बहुत भिन्नता है। लेकिन यह भिन्नता तो सदियों से है और आधुनिक तकनीक व विकास ने तो इस भेद को काफी हद तक कम कर दिया है फिर इस तरह के विमर्श का क्या मतलब है?
सबसे पहले राजनीतिक विभाजन की बात करनी चाहिए क्योंकि जैसे ही यह साबित होगा कि उत्तर और दक्षिण का कोई राजनीतिक विभाजन नहीं है और दक्षिण भारत की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा दोनों की स्थिति लगभग समान है तो अपने आप सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विभाजन का विमर्श कमजोर पड़ेगा। कांग्रेस को दक्षिण भारत की पार्टी बताने वाले लोग यह भूल जा रहे हैं कि कांग्रेस कई दशकों से लगातार दक्षिण में कमजोर होती जा रही है और भाजपा धीरे धीरे मजबूत हो रही है। दक्षिण भारत की राजनीति में दोनों की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं है। आंकड़ों से भी इस बात की पुष्टि हो सकती है। दक्षिण भारत के पांच राज्यों- तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में लोकसभा की कुल 129 सीटें हैं। इनमें से कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं तो भाजपा के पास 30 सीटें हैं। सोचें, कांग्रेस से तीन सीटें ज्यादा हैं, भाजपा के पास।
कह सकते हैं कि भाजपा की 30 सीटें सिर्फ दो राज्यों- कर्नाटक और तेलंगाना में हैं, जबकि कांग्रेस की 27 सीटें चार राज्यों- तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना में हैं। बहस के लिए ऐसा कहा जा सकता है लेकिन इससे वास्तविक तस्वीर साफ नहीं होती है। उसके लिए कुछ और आंकड़ों को बारीकी से देखना होगा। ध्यान रहे भाजपा अभी तक दक्षिण में सिर्फ कर्नाटक की पार्टी मानी जाती थी। बाकी राज्यों में उसका आधार बहुत सीमित था। लेकिन धीरे धीरे तस्वीर बदल रही है। कर्नाटक में चुनाव हार कर सत्ता से बाहर होने के बाद भी भाजपा को 36 फीसदी वोट मिला है। इसी तरह तेलंगाना में 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 6.9 फीसदी वोट मिले थे, जो 2023 के चुनाव में बढ़ कर 12.88 फीसदी हो गया है यानी भाजपा का वोट लगभग दोगुना हुआ है। भाजपा के लिए सबसे मुश्किल माने जाने वाले प्रदेश केरल में 2016 में भाजपा को 10.6 फीसदी वोट मिले थे, जो 2021 में बढ़ कर 11.3 हो गया।
सबसे दिलचस्प आंकड़ा तमिलनाडु विधानसभा चुनाव का है, जहां 2021 में कांग्रेस और डीएमके साथ लड़े थे तो भाजपा और अन्ना डीएमके साथ मिल कर लड़े थे। चूंकि अन्ना डीएमके के खिलाफ 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी थी तो वह हार रही थी, जिसका नुकसान भाजपा को भी हुआ। भाजपा गठबंधन में 20 सीटों पर लड़ी थी और उसे 2.62 फीसदी वोट मिले थे। दूसरी ओर जीतने वाले पक्ष के यानी डीएमके के साथ कांग्रेस 25 सीटों पर लड़ी थी फिर भी उसे सिर्फ 4.27 फीसदी वोट मिले। ऐसे ही आंध्र प्रदेश में कांग्रेस 174 सीट पर लड़ी थी और उसे सिर्फ 1.17 फीसदी वोट मिले थे, जबकि भाजपा 173 सीटों पर लड़ी थी और उसे 0.84 फीसदी वोट मिले थे। वहां भी दोनों के वोट में ज्यादा अंतर नहीं था। इन आंकड़ों के हिसाब से देखें तो दक्षिण भारत में कांग्रेस और भाजपा लगभग बराबर की हैसियत वाली पार्टियां हैं। लोकसभा चुनाव में भी दोनों के वोट शेयर में ज्यादा फर्क नहीं है।
इसके बावजूद उत्तर और दक्षिण के विभाजन का विमर्श खड़ा करने का आधार यह है कि दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन गई है। लेकिन यह वैचारिक विमर्श का मजबूत आधार नहीं है क्योंकि इन दो में से एक राज्य में थोड़े दिन पहले तक भाजपा की सरकार थी। अगले चुनाव में एक बार फिर स्थिति बदल सकती है। भाजपा को एक झटका तमिलनाडु में इस बात से लगा कि उसकी सहयोगी अन्ना डीएमके ने उससे तालमेल खत्म कर लिया। लेकिन उसके तुरंत बाद कर्नाटक में भाजपा को जेडीएस के रुप में एक नई सहयोगी पार्टी मिल गई। आंध्र प्रदेश में भाजपा को तय करना है कि वह क्या करे। पवन कल्याण की जन सेना पार्टी के साथ उसका तालमेल हो गया है और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी के साथ भी तालमेल का फैसला उसने खुद रोका है। इसका मतलब है कि दक्षिण भारत की पार्टियों में भाजपा अछूत नहीं है। सो, चाहे वोट प्रतिशत की बात हो, राजनीतिक एजेंडे की बात हो या सहयोगी पार्टियों की बात हो, हर पैमाने पर दक्षिण भारत में भाजपा उतनी ही मजबूती से खड़ी है, जितनी मजबूती से कांग्रेस खड़ी है। भाजपा अब वास्तविक अर्थों में पूरे देश की पार्टी हो गई है। पूर्वोत्तर के मिजोरम जैसे राज्य में उसे दो सीटें मिली हैं, जहां कांग्रेस एक सीट पर सिमट गई। दो बड़े पूर्वी राज्यों- पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी है, जबकि कांग्रेस दो-चार सीटों पर सिमट गई है।
जिस तरह से यह नैरेटिव गलत है कि भाजपा दक्षिण भारत की पार्टी नहीं है वैसे ही यह भी गलत है कि उत्तर भारत से कांग्रेस का बोरिया बिस्तर बंध गया है। उत्तर में कांग्रेस अब भी बड़ी ताकत है। जिन तीन राज्यों में इस साल के चुनाव में वह हारी है वहां भी उसे 40 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिला है और वह मजबूत विपक्षी पार्टी बनी है। हिमाचल प्रदेश में उसकी सरकार है तो हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड में वह मुख्य विपक्षी पार्टी है। बिहार और झारखंड में अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ वह सरकार में है। उसका सूपड़ा साफ सिर्फ दो राज्यों में हुआ है और वो राज्य हैं उत्तर प्रदेश और दिल्ली। सो, कांग्रेस अब भी उत्तर भारत में अपना आधार बचाए हुए है तो भाजपा दक्षिण भारत में अपना विस्तार करते हुए है। इसलिए उत्तर-दक्षिण के राजनीतिक विभाजन का कोई आधार नहीं है। हां, अगर परिसीमन के दौरान आबादी के आधार पर लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाने की कोई पहल होती है तो उस समय विभाजन बढ़ेगा और टकराव हो सकता है। इसलिए सोच समझ कर यह काम करना होगा।
जहां तक भाषायी और सांस्कृतिक विभाजन का मामला है तो वह बेहद संवेदनशील है, जिसे सावधानी से हैंडल करना होगा। भाजपा की केंद्र सरकार हिंदी को प्राथमिकता दे रही है और दिल्ली में सारे कामकाज हिंदी में हो रहे हैं। संसद में मंत्री हिंदी में जवाब दे रहे हैं। इसमें संतुलन बनाने की जरूरत है। हालांकि यह अच्छी बात है कि दक्षिण के राज्यों में, जहां भाजपा की सरकार थी या सहयोगियों के साथ वह सरकार में रही वहां हिंदी थोपने का काम नहीं हुआ। दिल्ली से भी दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। तकनीक ने भी भाषायी विभाजन को काफी कम किया है और पर्यटन व तीर्थाटन से भी यह दूरी मिट रही है। अगर इस भिन्नता को अलगाव मानने की बजाय विविधता के रूप में देखें और इस विविधता का उत्सव मनाएं तो उससे भी सामाजिक एकता सुनिश्चित होगी।