डॉ घनश्याम बादल
भीषण गरमी के बाद बारिश की रिमझिम फुहारें आएं तो मानिए कि कि सावन आ गया । सावन और हरियाली तीज स्त्रियों के मेहंदी रचे हाथ और तन मन बेसब्री से राह देखते हैं साजन और सावन दोनों की। जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर बिछा देती है तो वर्षा ऋतु में प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। सजी धजी स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। उत्तर भारत में हर वर्ष श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज का उत्सव मनता है। सुहागिन स्त्रियों के साथ ही कुंवारी कन्याओं का अच्छा पति मिलने की कामना जगाने वाला यह पर्व हरियाली तीज के नाम से भी जाना जाता है।
मिथक :
मिथकों के अनुसार श्रावण शुक्ल तृतीया के दिन भगवती पार्वती सौ वर्षों की तपस्या के बाद भगवान शिव से मिली थीं। माँ पार्वती का इस दिन पूजन विवाहिताओं के जीवन में हर्ष प्रदान लाता है। इसी भाव से समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है।
बरखा की फुहारें :
ग्रीष्म ऋतु के समाप्त होने पर काले – कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से मन आनन्दित हो उठता है। आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण ही इस त्यौहार या पर्व को ‘‘कजली’’ या ‘‘कज्जली तीज’’ तथा पूरी प्रकृति में हरियाली के कारण ‘‘ हरियाली तीज’’ के नाम से जाना जाता है।
मेहंदी, गीत और झूले:
आज के दिन स्त्रियाँ हाथों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मेहंदी रचाती हैं। जब वह झूले की रस्सी पकड़ कर झूला झूलती हैं तो ऐसा लगता हैं मानो आकाश को छू रही हैं। इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ सुहागी पकड़कर सास के पांव छूकर उन्हें देती हैं। यदि सास न हो तो जेठानी या किसी वृद्धा को देती हैं। इस दिन कहीं-कहीं स्त्रियाँ पैरों में आलता भी लगाती हैं जो सुहाग का चिह्न माना जाता है।
सिंधारा:
यदि शादी के बाद का पहला सावन है तो नवविवाहिता लड़कियों को ससुराल से पीहर बुला लिया जाता है। नवविवाहिता की ससुराल से इस त्योहार पर सिंधारा भेजा जाता है। इस दिन नवविवाहिता लड़की की ससुराल से वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार का सामान, मेहंदी और मिठाई भेजी जाती है। उत्तरप्रदेश व राजस्थान तथा हरियाणा में मिठाई के रूप में घेवर और रिश्ते में देवर का बहुत महत्व विशेष है ।
कहां कहां मनती तीज :
हरियाली तीज के दिन अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं और माता पार्वती की सवारी बड़े धूमधाम से निकाली जाती है। वास्तव में देखा जाए तो हरियाली तीज महिलाओं के लिए मिलने का एक उत्सव है। नवविवाहित लड़कियों के लिए विवाह के पश्चात पड़ने वाले पहले सावन के त्योहार का विशेष महत्व होता है। एक तरह से इस मौके को वें अपने ससुराल के अनुभवों को बांटने में इस्तेमाल करती हैं । तीज मुख्यतः उत्तरी भारत का पर्व: राजस्थान में जयपुर, यू पी में बुन्देलखंड के जालौन, झाँसी,, महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली तीज के नाम से व्रतोत्सव के रूप में मनाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस, मिर्जापुर, देवलि, गोरखपुर, जौनपुर, सुलतानपुर आदि जिलों में इसे कजली तीज के रूप में मनाने की परम्परा है।तो पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मेरठ व सहारनपुर मंडलों में तथा उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में इसकी धूम देखते ही बनती है । तीज पूर्ण रूप से स्त्रियों का उत्सव है। स्त्रियाँ आकर्षक परिधानों से सुसज्जित हो भगवती पार्वती की उपासना करती हैं। राजस्थान में जिन कन्याओं की सगाई हो गई होती है, उन्हें सास ससुर से एक दिन पहले ही भेंट मिलती है। इस भेंट को स्थानीय भाषा में ‘‘शिंझार’’(श्रृंगार) कहते हैं। शिंझार में मेंहदी, लाख की चूड़ियाँ, लहरिया नामक विशेष वेश-भूषा जिसे बाँधकर रंगा जाता है तथा ‘‘घेवर’’ विशेष रूप से आते हैं । इस दिन बालाएँ दूर देश गए अपने पति के तीज पर आने की कामना करती हैं यह लोकगीतों में भी मुखरित होता है। तीज पर तीन बातें त्यागने का विधान है -पति से छल- कपट , परनिन्दा , झूठ एवं बुरा बर्ताव।
उत्सव लोकगीतों का:
तीज को झूला उत्सव भी कहा जाता है। न सिर्फ गाँवों में बल्कि शहरों में भी झूले डालने की तैयारियाँ सावन लगते ही शुरू हो जाती हैं। शहरों में तो तीज को लेकर अनेक स्थानों पर तरह-तरह के आयोजन और समारोह भी होते हैं जहाँ महिलाओं के लिए मेहँदी, चूड़ियाँ, साज-श्रृंगार के सामान और झूला झूलने की खास व्यवस्था रहती है। तीज के दिन का विशेष कार्य होता है, खुले स्थान पर बड़े- बड़े वृक्षों की शाखाओं पर झूला बाँधना। झूला स्त्रियों के लिए बहुत ही मनभावन अनुभव है। मल्हार गाते हुए मेंहदी रचे हुए हाथों से रस्सी पकड़े झूलना एक अनूठा अनुभव ही तो है। सावन में तीज पर झूले न लगें, तो सावन क्या ?
एक समय था जब नव विवाहिताएं खुले स्थानों पर बागों में पेड़ों की डाल पर झूला डालकर झूलती और एक-दूसरे को झुलाते हुए महिलाएं ‘इंद्र राजा झुक आए बाग में जी….’, ‘अरी बहना सातों सहेली मिल संग झूलें चलके झूलें .’, ‘अरी बीबी मन में तो भरियों उमंग..’, ‘झूले पर चलके झूलन की, सखी आया रे सावन का महीना..’ कच्चे नीम की निंबोली… सावण जल्दी आइयो रे… और ‘‘ आमण जामण के दो पेड़ , सामण जल्दी आइयो रै ’’ हरियाली तीज के लोकगीत गाती थीं उत्तरप्रदेश व हरियाणा के ये लोकगीत तीज के मौके पर आज भी कई शहर और गाँवों में गाए जाते हैं।
आधुनिक रंग से छूटती संस्कृति:
कभी लोक गीतों से सराबोर रहने वाले त्योहार हरियाली तीज की मूल चमक अब फीकी पड़ती जा रही है। भागदौड़ की जिंदगी में महिलाओं ने इसके रंग-रूप को बदल दिया है। अब तीज का त्योहार खुले बागों में पेड़ों की डालों पर झूले डालकर नहीं बल्कि क्लब और बैंक्वेट हॉलों में डीजे की धुन पर आधुनिक गानों के साथ मनाया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में अब ढोलक की थाप और लोकगीतों की गूंज भी नहीं सुनाई देती है।महिलाओं के परम्परागत त्योहार तीज पर भी अब पश्चिमी संस्कृति हावी हो रही है। महिलाओं और युवतियों की नई पीढ़ी अपने मूल्यों और संस्कारों को नए रूप में ढाल रही हैं।
पहले हरियाली तीज पर शादी के बाद नवविवाहिता को अपने सिंधारे आने का इंतजार रहता था। इस सिंधारे को पाकर वें बहुत खुश होती थीं पर अब नकदी धन देने के रूप में यह सिंधारा आ रहा है । इतना ही नहीं महिलाएं अब नए अंदाज में क्लब, बैंक्वेट हॉल मॉल, सोसाइटी आदि में तीज को रस्म अदायगी के रूप में मनाती हैं । मेहंदी लगवानाव मेकअप भी बाजार में होता है। आधुनिक संगीत व फिल्मी गानों के चलते लोक गीत लगातार गायब हो रहे हैं। आधुनिकता अच्छी बात है मगर संस्कृति को बचाना भी जरूरी है इसलिए बेहतर हो कि तीज को भी प्रेम पूर्वक अपनी संस्कृति के साथ मनाया जाए।