जालौन। बुंदेलखंड में कई वर्षों तक राजवंशों ने राज किया है। वर्ष 1802 में बेसिन की संधि के बाद अंग्रेज यहां शासक के रूप में आए। उन्होंने जालौन के आसपास के गांवों में बदसलूकी के साथ राजस्व की वसूली करनी शुरू कर दी। ब्रिटिश सरकार के इस रवैये को देख यहां पहली बार बुंदेलों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका। बगावत की चिंगारी इस तरह से उठी कि बुंदेलों ने ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
अंग्रेजों की राजस्व नीति से तंग आकर बुंदेलों ने आंदोलन के नए समीकरण बनाए। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचलने और अमीटा-बिलायां की गढ़ी ध्वस्त करने के लिए नौगांव छावनी में नियुक्त सेना नायक फावसैट को निर्देश दिए। उसने सात कंपनियों तथा तोपखाने की एक टुकड़ी के साथ 21 मई 1804 को अमीटा की गढ़ी को घेरकर आक्रमण कर दिया।
अंग्रेजों से जब खुद को घिरते देखा तो अमीटा के परमार ने अंग्रेजों को झांसा दिया कि वे उनसे संधि कराना चाहते हैं। अंग्रेजों को अपनी चाल में फसाने के बाद दूसरी ओर अमीर खां ने अमीटा दुर्ग के बाहर खड़ी अंग्रेजी सेना की घेराबंदी कर ली। 22 मई 1804 की सुबह होते ही अंग्रेजी सेना चारों तरफ से घिर चुकी थी। बाहरी ओर से पिंडारी सेना व अंदर घात लगाए बैठी परमार सेना ने अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया।
दोनों तरफ से हुई गोलाबारी से अंग्रेजी सेना हुई परास्त
पिंडारी और परमार सेना की ओर से भीषण गोलाबारी हुई। इसमें अंग्रेजी सेना परास्त हुई। दो दिन तक चले इस युद्ध में अंग्रेजी सेना को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा। भारतीय पैदल सेना की दो कंपनियां तथा तोपखाना टुकड़ी के 50 अंग्रेजी सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। युद्ध में मारे गए अंग्रेजी सेना के अधिकारियों की समाधियां कोंच के सरोजनी नायडू पार्क तथा जल संस्थान के बीच पार्क में अभी भी बनी हैं। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना की पराजय का दंड सेनानायक फावसैट को भुगतना पड़ा और उसे हटाकर इंग्लैंड वापस भेज दिया गया।
अमीटा के दीवान बरजोर सिंह महान क्रांतिकारी कहलाये
अमीटा-बिलायां परिवार के दीवान बरजोर सिंह बुंदेलखंड के महान क्रांतिकारी रहे। जिन्होंने सबसे लंबी अवधि तक अंग्रेजों से संघर्ष किया। 1859 ई. के मध्य तक वह अंग्रेजी सेना के लिए वो नासूर बनकर चुभते रहे। 1 अप्रैल 1858 को झांसी में पराजय के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी की ओर प्रस्थान किया तब उन्होंने रास्ते में बरजोर सिंह से भेंट करना उचित समझा।
दीवान बरजोर सिंह से भेंट के बाद वह कोंच चली गईं। जहां 7 मई 1858 को भीषण संघर्ष हुआ। 22 मई को कालपी के संघर्ष में भी बरजोर सिंह ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने गांव-गांव संपर्क करने, आर्थिक संसाधन जुटाने, नाना साहब के सेनापति तात्याटोपे तथा जालौन की रानी ताईबाई की मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कालपी और गोपालपुरा से होती हुई ग्वालियर की ओर चली गईं। अब क्रांति के संचालन की जिम्मेदारी बरजोर सिंह पर आ गई थी। 31 मई 1858 को उनकी बिलायां गढ़ी पर ब्रिटिश सेना ने हमला किया जिसका उन्होंने मुकाबला किया।
दीवान बरजोर सिंह को छू न सके थे अंग्रेज
सरकारी दस्तावेज के मुताबिक जून 1859 तक उनके जीवित रहने के साक्ष्य मिलते हैं। इस संबंध में अमीटा के उनके वंशजों ने बताया कि वे जून 1859 में पलेरा (टीकमगढ़) चले गए थे जहां लू लगने की वजह से उनकी मृत्यु हुई। इस प्रकार आजादी की यह ज्वाला कई वर्षों तक संघर्ष करके शांत हो गई। बाद में यहां जालौन के जिलाधिकारी एमलाज के प्रयास से 15 अगस्त 1972 को बिलायां में उनका स्मारक चबूतरा बना जो उस दीवान वीर बरजोर सिंह की शौर्यगाथा का प्रमाण है।