गाजियाबाद। ‘गुरु और अध्यापक में फर्क यह है कि अध्यापक सिर्फ अध्ययन कराने से जुड़ा है, जबकि गुरु अध्ययन से आगे जाकर जिन्दगी की हकीकत से भी रूबरू कराता है और उससे निपटने के गुर सिखाता है।’ यह विचार मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन डॉ. अशोक कुमार गदिया ने बतौर मुख्य वक्ता व्यक्त किये। वह मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के विवेकानंद सभागार में आयोजित विचार संगोष्ठी में बोल रहे थे। ‘गुरु-शिष्य परम्परा’ विचार संगोष्ठी का विषय था।
विचार संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अध्यक्ष पद्मश्री राम बहादुर राय ने कहा कि आज की जरूरतों के हिसाब से शिक्षक और गुरु की भूमिका पर चिन्तन करना आवश्यक है। यूं तो सोशल मीडिया पर तमाम गुरुओं की भरमार है लेकिन सही मार्गदर्शन जो करे वही असली गुरु कहलाता है। उन्होंने कहा कि सारी प्रतिभा आपके अंदर है। इसे पहचानिये। इसे कैसे व्यवस्थित करना है, इसे सीखिए। जो स्वयं को पहचान गया वही गुरु है। यानी हम स्वयं के गुरु होते हैं।
अपने वक्तव्य में डॉ. अशोक कुमार गदिया ने कहा कि आज हमें अपने विद्यार्थियों को गुरु की महत्ता के बारे में बताने की आवश्यकता है। उन्हें अध्यापक और गुरु के भेद को समझाना होगा। हमें उनको यह बताना चाहिए कि अध्यापक क्या है और गुरु क्या है? गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्व है? अध्यापक गुरु से कैसे अलग है? गुरु और अध्यापक में से कौन बेहतर है? गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय नहीं भारतीय है। गुरु जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर ये शब्द हैं। लेकिन गुरु जैसा कोई भी शब्द नहीं है। गुरु के साथ हमारे अभिप्राय ही भिन्न हैं। उन्होंने कहा कि अगर इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ाएं तो हमें कई जगह पर अपने धार्मिक ग्रंथों और कहानियों में गुरु की भूमिका, उनकी महत्ता और उनके पूरे स्वरूप के दर्शन हो जाएँगे। महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन के सामने युद्ध के मैदान में गुरु की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर उस नाज़ुक वक्त में उसे थामा, जब-जब वह लड़खड़ाता नजर आया। लेकिन आज का अध्यापक इससे अलग है। अध्यापक गुरु हो सकता है पर किसी गुरु को सिर्फ अध्यापक समझ लेना ग़लत है। ऐसा भी हो सकता है कि सभी अध्यापक गुरु कहलाने लायक न हों, हज़ारों में से मुट्ठीभर अध्यापक ही आपको गुरु मिलेंगे।
उन्होंने कहा कि हमारे आस-पास मौजूद तमाम लोग, प्रकृति में व्यवस्थित हर चीज़ छोटी या बड़ी, जिससे कुछ सीखने को मिले, उसे हमें गुरु समझना चाहिए और उससे एक शिष्य के नाते पेश आना चाहिए। यूँ तो गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण शिष्य है। शिष्य से ही गुरु की महत्ता है। यदि कोई शिष्य उस गुरु से सीखने को तैयार नहीं है तो वह गुरु नहीं हो सकता। गुरुत्व शिष्यत्व पर निर्भर करता है। उन्होंने गुरु बनने के लिए कुछ सुझाव दिये। जैसे, अध्यापक को रोज़ नया ज्ञान, तकनीक, प्रशिक्षण एवं प्रोत्साहन, पुरस्कार, उचित एवं पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिये। अध्ययन एवं अध्यापन को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित कार्य माना जाना चाहिये। यदि हम यह सब करने में सफल होते हैं तो हम एक सभ्य समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण की ओर अग्रसर होंगे। तब हम असल में बन सकेंगे अध्यापक से बढ़कर एक अच्छे गुरु।
कार्यक्रम में संदीप जोशी समेत मेवाड़ परिवार के सदस्य आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम के अंत में मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की निदेशिका डॉ. अलका अग्रवाल ने सभी आगंतुकों का आभार व्यक्त किया। संचालन वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिश्र ने किया।