तालठोकू फऱमान और कांग्रेस का इनकार

पंकज शर्मा,
हालांकि बहुतों को लगता है, मगर मुझे नहीं लगता कि 22 को अयोध्या पहुंचने के फऱमान को सरयू में तिरोहित कर देने के कांग्रेसी निर्णय से उसे कोई चुनावी नुक़्सान होगा। उलटे इस से भारतीय जनता पार्टी समेत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तमाम सहयोगी संगठनों की नीयत पर प्रश्नचिह्न लग गया है।ज्मान्यता है कि प्रभु श्रीराम ईसा से 5114 साल पहले जनवरी महीने की दस तारीख़ को जन्मे थे। तब चैत्र महीने का शुक्ल पक्ष था। इस दिन हम हर साल रामनवमी मनाते हैं। इस वर्ष रामनवमी 18 अप्रैल को है।ज्.इसलिए सोनिया गांधी इस रामनवमी पर रामलला के दर्शन करने अयोध्या जाएं। मल्लिकार्जुन खडग़े, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी जाएं तो और अच्छा।

22 जनवरी को श्रीराम मदिर तीर्थ क्षेत्र न्यास द्वारा भेजा गया रामलला के कथित प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण कांग्रेस ने ‘बहुत आदरपूर्वकÓ अस्वीकार कर दिया। इस के बाद सारा ‘मोशा मीडियाÓ कांग्रेस पर पिल पड़ा। उस ने छोटे परदे और कागज़ी पन्नों के दस्तरख़्वान पर अपने समर्थक विशेषज्ञों को ऐसा परोसा, ऐसा परोसा कि इस मसले पर देश की भावनाएं उफन-उफन कर अपने गर्म सैलाब में सारे बुनियादी सवालों को बहा ले जाएं। मैं तो बहुत ख़ुश हूं कि अर्णबों, अंजनाओं, नाविकाओं और उन के अनुवर्ती चट्टोबट्टों के फेंके तमाम पत्थरों के बावजूद भारत के सर्वसमावेशी आसमान में कोई सूराख़ नहीं हुआ।

हो सकता है कि अपनी अस्वीकृति का ऐलान करने के प्रारूप की वाक्य संरचना गढऩे में कांग्रेस ने उतनी परिपक्वता से काम नहीं लिया हो। लेकिन न तो यह गांधी के ज़माने की कांग्रेस है, न नेहरू और इंदिरा गांधी के ज़माने की। यह राजीव गांधी के वक़्त के प्रारूप-महारथी प्रणव मुखर्जी, पामुलपर्ति नरसिंह राव, विल गाडगिल और एच वाय शारदाप्रसाद के ज़माने की कांग्रेस भी नहीं है। यह सोनिया गांधी के दौर में अक्षर-विश्व रचने वाले नटवर सिंह, अर्जुन सिंह, मणिशंकर अय्यर और सुमन दुबे सरीखे सलीकेदारों की कांग्रेस भी नहीं है। सो, मैं राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडग़े के इस संक्रमण-समय में शब्द-विधा के वेदव्यास बने घूम रहे मुकरियों के भानुमति कुनबे द्वारा तैयार किए गए इतने संक्षिप्त और बेहद बचकाने मसविदे के लिए उन्हें माफ़ करता हूं और आप से भी ‘छोटन के इस उत्पातÓ को ‘बडऩ होने के नाते क्षमा करनेÓ का अनुरोध करता हूं।

सोमवार, 22 जनवरी को अयोध्या नहीं जाने का सूचना कांग्रेस ने किन शब्दों में सार्वजनिक की, महत्व इस का नहीं है। बेहतरी की गुंजाइश हर मामले में हमेशा रहती है। लेकिन, मेरे हिसाब से, सब से बड़ी अहमियत यह है कि कांग्रेस ने अपने स्पष्ट इरादे का खुलेआम ऐलान तो किया; चुनावों में नफ़े-नुक़्सान की बात सोचे बिना एक फ़ैसला तो लिया; पार्टी के भीतर ही तरह-तरह के दबावों को दरकिनार कर के कमाल की दृढ़ता तो दिखाई; बनियादी मूल्यों और सिद्धांतों को फ़ौरी ज़रूरतों से ज़्यादा तरज़ीह तो दी; और, कलियुगी भौतिकता से परे जा कर राजनीति के चिरंतन दर्शन को अंगीकार तो किया। क्या आप को लगता है कि आज के ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापाÓ के दौर में यह कोई मामूली बात है? इसलिए मैं कांग्रेस की ‘सकल शीर्ष कतारÓ की तमाम ऊइयाइयों के बावजूद मानता हूं कि हमें उन्हें खारिज़ करने का अभी कोई हक़ नहीं है। इसलिए कि अभी उन सवालो के जवाब नहीं मिले हैं, जो अयोध्या के आसमान में तैर रहे हैं।

सवाल है कि सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु – चारों शंकराचार्य – बाईस को अयोध्या क्यों नहीं जा रहे हैं; कि उन के उठाए गए शास्त्र-सम्मत ऐतराज़ दफऩ क्यों किए जा रहे हैं; कि आधे-अधूरे मंदिर में रामलला की हड़बड़-स्थापना के पीछे कौन-से चुनावी कारण हैं; कि अयोध्या का अध्यात्मीकरण हो रहा है या बाज़ारीकरण? जिस दिन इन सवालों के जवाब दे कर जि़ल्ल-ए-सुब्हानी या उन के कारिंदे भारतवासियों को अपने तर्कों से सहमत कर देंगे, देशवासी ख़ुद कांग्रेसी कंगूरों को वहां छोड़ आएंगे, जहां पानी भी नहीं मिलता है। हालांकि बहुतों को लगता है, मगर मुझे नहीं लगता कि 22 को अयोध्या पहुंचने के फऱमान को सरयू में तिरोहित कर देने के कांग्रेसी निर्णय से उसे कोई चुनावी नुक़्सान होगा। उलटे इस से भारतीय जनता पार्टी समेत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तमाम सहयोगी संगठनों की नीयत पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब से पहले आप सोच भी सकते थे कि कट्टर हिंदुत्व के आलमबरदारों के दशकों के संघर्ष के बाद अयोध्या में जब राम के मंदिर की ‘प्राणप्रतिष्ठाÓ हो रही होगी, तब देश में हिंदुओं का एक बड़ा तबका उस की शुचिता से जुड़े मसलों पर इतना गहन विमर्श कर रहा होगा?

इतनी भावनात्मक लहर को विचारों के विश्लेषण के हवाले तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी के ‘मैं-मैं वादÓ ने ख़ुद ही कर डाला। अगर उन्होंने रामलला को अपनी उंगली पकड़ा कर अयोध्या के मंदिर में प्रवेश कराने की संकीर्ण ललक पर काबू रखा होता तो क्या इस आयोजन की बलैयां लेने को समूचा देश आज उमड़ नहीं रहा होता? मगर ख़ुद को जबरन हमेशा सब से अगली कतार में थोपने की अस्वस्थ फि़तरत ने रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के दूध को भी दो-फाड़ कर दिया। भारत के 80 फ़ीसदी बहुसंख्यक समाज के लिए ताजा सदी में इस से बड़े सर्वसम्मत उत्सव का दिन और कौन-सा होता? एक अकेले नरेंद्र भाई अगर छाती ठोक-ठोक कर सब पर भारी पडऩे की अपनी अंत:प्रकृति में जऱा-सी तब्दीली कर पाते तो उन की भी महिमा बढ़ती और हिंदू समाज की गरिमा भी चौगुनी हो जाती। प्रारब्ध का अपयश योग इसे ही कहते हैं। बहुत बार किसी के हाथ से जीवन में बड़े अहम काम होने लिखे होते हैं। लेकिन अंतर्निहित दुर्भाग्य उस के सारे उपक्रमों को बखेड़े में डाल देता है। जो सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिमान होने की ख़ामख़्याली के मकडज़ाल में फंस जाते हैं, दैवीय विध्नहर्ता शक्तियां भी उन से मुंह फेर कर बैठ जाती हैं। अयोध्या में रामलला की परमपावन अगवानी का दृश्य इसी की तवारीखी नज़ीर है। जब तक सूरज-चांद रहेगा, तब तक लोग याद करेंगे कि जब अयोध्या में रामलला की प्रतिमा में परमशक्ति के प्राण प्रवेश कर रहे थे तो मंदिर के गर्भगृह में किस की अनावश्यक उपस्थिति की वज़ह से एक धार्मिक आयोजन की धवलता सियासत के गंदले छींटों से मलिन हो गई थी। कोई कभी नहीं भूल पाएगा कि अगर एक व्यक्ति राम भक्तों के पूरे जत्थे पर ख़ुद के पीछे-पीछे चलने की पाबंदी लगाने की तालठोकू प्रवृत्ति से परे रह पाता तो 22 जनवरी को हर कोई रामलला के आंगन में ख़ालिस मन से नाच रहा होता।

मान्यता है कि प्रभु श्रीराम ईसा से 5114 साल पहले जनवरी महीने की दस तारीख़ को जन्मे थे। तब चैत्र महीने का शुक्ल पक्ष था। इस दिन हम हर साल रामनवमी मनाते हैं। इस वर्ष रामनवमी 18 अप्रैल को है। हालांकि मेरी सलाह का कोई मतलब नहीं है, मगर बिन मांगे सलाह देने के अपने चिरंतन-कर्म से मैं भी क्यों पीछे हटूं, इसलिए कहता हूं कि सोनिया गांधी इस रामनवमी पर रामलला के दर्शन करने अयोध्या जाएं। मल्लिकार्जुन खडग़े, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी जाएं तो और अच्छा। अगर देश भर के 640 जि़लों से कांग्रेसजन के समूह भी 18 अप्रैल को अयोध्या पहुंचें, तब तो सोने पे सुहागा। इंडिया समूह के 28 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि भी इस बार की रामनवमी अयोध्या में मनाएं तो संघ-कुनबे की मुी में कसमसा रहे रामलला स्वयं सांकल तोड़ कर पहले की तरह जन-जन के राम हो जाएंगे। जिन्हें राम की नहीं, 2024 में अपने सिंहासन की चिता है, क्या राम उन के साथ बंधे रहने को जन्मे हैं? जो श्रीराम को अपना आराध्य नहीं, अपने राजनीतिक दल का छद्म चुनाव चिह्न बनाने के लिए उद्यत हैं, क्या राम कभी उन पर कृपावंत हो सकते हैं? सो, रामयुक्त सर्वसमावेशी समाज की सच्ची प्राणप्रतिष्ठा हम-आप इस रामनवमी को करें। तब तक जो हो रहा है, प्रभु क्षमा करें!

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