नई दिल्ली। ने मतदाताओं को जब ‘नन आफ द एबव’ यानी ‘उपरोक्त में कोई नहीं पर मुहर लगाने का अधिकार दिया था तो माना था कि मतदाता को अपनी नापसंदगी जताने का हक है। उसे अगर चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता तो वह नोटा का बटन दबा कर अपनी नापसंदगी जाहिर कर सकता है, लेकिन ये अधिकार शायद तब तक अधूरा है जब तक उसमें ‘राइट टू रिजेक्ट’ सही मायने में न मिलता हो। यानी अगर किसी चुनाव में सबसे ज्यादा मत नोटा को मिलते हैं तो वहां नए सिरे से चुनाव कराए जाने चाहिए।
SC में याचिका लंबित
आधी मांग सुप्रीम कोर्ट 2013 में नोटा का अधिकार देकर स्वीकार कर चुका है और बची हुई मांग की याचिका अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जब तक यह लंबित मांग स्वीकार नहीं होगी तब तक नोटा को चाहे जितने वोट मिल जाएं, तो उसका असर दिखेगा और न ही मतदाता को सही मायने में ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मिलेगा।
क्योंकि अभी जो हाल है उसमें अगर 99 प्रतिशत मत भी नोटा को मिल जाएं तो भी उसका असर चुनाव पर नहीं पड़ता क्योंकि मौजूदा कानून में एक मत पाने वाला उम्मीदवार ही जीता घोषित होगा। नोटा को प्रासंगिक बनाना है तो नोटा पर एक निश्चित प्रतिशत में वोट पड़ने का चुनाव पर असर पड़ना सुनिश्चित होना चाहिए। ऐसा होने पर ही राजनीतिक दल स्वच्छ और अच्छी छवि के उम्मीदवार खड़े करने को बाध्य होंगे और उम्मीदवारों में भी नोटा के प्रति भय पैदा होगा।
सबसे ज्यादा नोटा वाली सीटों में पांच बिहार की
2019 में हुए पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखे जाएं तो देशभर की जिन 10 लोकसभा सीटों पर सबसे ज्यादा नोटा को वोट पड़े उनमें से पांच संसदीय क्षेत्र बिहार के थे और उसमें भी तीन एससी के लिए आरक्षित थीं। इससे साबित होता है राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में सावधान नहीं रहे तो नोटा की हैसियत बढ़ सकती है।
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2019 को लोकसभा चुनाव में नोटा के पक्ष में 1.06 प्रतिशत मत पड़े थे। पूरे बिहार में नोटा के अंतर्गत दो प्रतिशत मत पड़े थे। वहीं नगालैंड सबसे कम मत .20 प्रतिशत नोटा के तहत पड़े थे। इस चुनाव में कुल 65,22,772 मतदाताओं ने नोटा का उपयोग किया था। 22,272 डाक मत (पोस्टल बैलेट) थे।