बलिया। उत्तर प्रदेश के बलिया के लिए 19 अगस्त गौरवशाली दिन है। 1942 में इसी दिन बागी बलिया के सैकड़ों क्रांतिकारियों ने अपनी शहादत देकर ब्रिटेन हुकुमत से लोहा लेते हुए जिला कारागार का दरवाजा खोल जेल में बंद अपने साथी क्रांतिकारियों को आजाद कराया था। हालांकि, इसकी पटकथा नौ अगस्त को कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन में महात्मा गांधी द्वारा करो या मरो का नारा दिए जाने के दिन ही लिखी जा चुकी थी।
दरअसल, 19 अगस्त से पहले के दो दिन बलिया के इतिहास में काफी महत्व रखते हैं। क्रांतिकारियों ने रसड़ा में 17 अगस्त को रेलवे स्टेशन को जला दिया और पटरियां उखाड़ दी, साथ ही डाकखाने को भी आग के हवाले कर दिया। जिले की ओर आने वाले सभी मार्गों को पूर्ण रुप से अवरुद्ध करने के बाद आंदोलन कारियों ने उसी दिन सहतवार में भी रेलवे स्टेशन, थाना और डाकखाने को भी जला दिया। इसी दिन बांसडीह तहसील पर जनता का कब्जा हो गया।
जबकि 18 अगस्त को बांसडीह थाना एवं तहसील का रिकार्ड जलाकर तिरंगा फहराया गया और रेवती थाने को भी आंदोलनकारियों ने फूंक दिया। इसी दिन बैरिया में क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। बैरिया की जनता ने जिस साहस व बहादुरी का परिचय दिया, वह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अनोखी घटना मानी जाती है। उस दिन अपराह्न एक बजे हजारों क्रांतिकारी बैरिया थाने पर एकत्र हुए थे। जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं।
तत्कालीन थानेदार ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया, जिसमें 19 लोग शहीद हो गये। 18 वर्षीय नौजवान कौशल कुमार ने थाने के पीछे से छत पर चढ़कर जैसे ही तिरंगा फहराना चाहा था, तभी सिपाही महमूद खां ने गोली चला दी। वीर सपूत कौशल कुमार तिरंगा लिये लहुलूहान होकर नीचे गिर पड़े। इसके बाद ही बलिया के आजाद होने की नींव पड़ गई थी। जिले भर से क्या आंदोलनकारी, क्या किसान और क्या छात्र सभी के कदम बलिया जिला कारागार की ओर बढ़ चले।
जेल में बंद पंडित चित्तू पांडेय, राधामोहन सिंह, पंडित महानंद मिश्र व विश्वनाथ चौबे जैसे क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए लोगों ने जेल को घेर लिया। भीड़ के जोश को देखते हुए अंग्रेजों के होश फाख्ता हो गये। तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट जे निगम ने आखिरकार भारी जनदबाव के बीच जेल का फाटक खुलवाया और सभी क्रांतिकारी जेल के बाहर आ गये। उसी दिन कलेक्टर ने अपनी कुर्सी खाली कर उसे चित्तू पांडेय को सौंप दिया था।