सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट पर सियासी संग्राम छिड़ा

सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट पर सियासी संग्राम छिड़ गया है. एक तरफ जहां इस कानून को रद्द करने की मांग को लेकर याचिका दाखिल है. वहीं अब इसे पूरे देश में मजबूती से लागू करने की मांग की जा रही है. इस संबंध में एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने सर्वोच्च अदालत में याचिका दाखिल किया है. ओवैसी का कहना है कि मजबूती से इस कानून के लागू न होने से देश में जगह-जगह मंदिर और मस्जिद का विवाद पनप रहा है.

सामाजिक सौहार्द बनाए रखने के उद्देश्य से लाया गया यह कानून पहले दिन से विवादों में है. संसद में इस कानून पर वोटिंग के दौरान मुख्य विपक्षी बीजेपी ने वॉकआउट तक कर दिया था.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है?
अगस्त 1991 में मानसून सत्र के दौरान तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने पूजा स्थल कानून बनाया. इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता. अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है.

इस कानून की वजह से किसी भी मंदिर-मस्जिद के विवाद को कोर्ट में नहीं ले जाया जा सकता है. हालांकि, उस वक्त इस कानून से अयोध्या को अलग रखा गया. अयोध्या का मामला उस वक्त कोर्ट में था.

कानून पर पहले दिन से विवाद क्यों?
प्लेसेज ऑफ वर्शिप कानून को लेकर जितना विवाद अभी है, उतना ही विवाद कानून को संसद में लाने वक्त हुआ था. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर इस बिल पर पहले दिन से ही विवाद क्यों है?

  1. बिल को लाने में कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं- लोकसभा में जब इस बिल को तत्कालीन गृह मंत्री एसबी चव्हाण ने पेश किया था, तब बीजेपी के तरफ से सांसद राम नाईक ने विरोध किया. नाईक का कहना था कि सरकार ने संसदीय नियमों का पालन किए बिना इस बिल को संसद में पेश कर दिया.

नाईक का कहना था कि बिल को संसद में पेश करने से पहले सरकार ने इसे नोटिफाई नहीं किया. आखिर सरकार किस डर से ऐसा किया? बीजेपी ने उस वक्त इस बिल को टेबल करने के खिलाफ प्रस्ताव दिया था. हालांकि, स्पीकर ने इसे स्वीकार कर बहस की अनुमति दे दी.

बीजेपी का कहना था कि इस बिल को मनी बिल की तरह सरकार लाई है, जो गलत है. इस पर सरकार का कहना था कि यह फाइनेंशियल सपोर्ट बिल है. सरकार को अगर इस कानून के लिए पैसे की जरूरत पड़ेगी तो वो इसका प्रावधान आसानी से कर सकती है.

  1. वर्शिप एक्ट में डेडलाइन को लेकर पेच- वर्शिप एक्ट में 15 अगस्त 1947 का डेडलाइन दिया गया है. यानी उस वक्त जो मंदिर या मस्जिद जिस स्वरूप में था, उसी स्वरूप में रहेगा. उसे चुनौती नहीं दी सकती है.

लोकसभा में बहस करते हुए राम नाईक ने इसे इतिहास का काला बिल बताया था. नाईक का कहना था कि डेडलाइन आखिर 15 अगस्त 1947 क्यों है? इससे पहले जो मंदिर थे, उसका क्या हुआ?

वहीं वर्तमान में वर्शिप एक्ट के खिलाफ वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर रखा है. उपाध्याय के मुताबिक देश में ऐसे 900 मंदिर हैं जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़कर उनकी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद या चर्च बना दिया गया. इनमें से 100 का जिक्र तो पुराणों में है.

विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर आंदोलन के वक्त पूरे देश में उन जगहों की सूची जारी की थी, जहां पर मंदिर तोड़ मस्जिद बनाए गए थे.

  1. जो मंदिर खत्म, उसका कोई जिक्र नहीं- वर्शिप एक्ट के विवाद में होने की एक वजह 1947 से 1991 के दौर में खत्म हुए मंदिर और मस्जिद का कोई जिक्र नहीं है. संसद में वर्शिप बिल के पेश होने के दौरान यह मसला उठा भी था.

उस वक्त राम विलास पासवान और सोमनाथ चटर्जी का कहना था कि उन मंदिर और मस्जिद के जमीनों का क्या होगा, जिसे आजादी के बाद तोड़कर लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया?

संसद में पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों का मुद्दा उस वक्त उठा था. आरोप लगा कि इन दोनों राज्यों में बड़े पैमाने पर मंदिर और अन्य पूजा स्थलों को व्यक्तिगत कब्जे में लिया गया.

पासवान ने तो बौद्ध स्थलों को तोड़ने को लेकर भी सरकार पर निशाना साधा. उनका कहना था कि सरकार इस मामले में सख्त कार्रवाई नहीं करना चाहती है.

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