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याद करिये 1971 को जब पूर्वी पाकिस्तान में शेख़ मजीबुर्रहमान के नेतृत्त्व में मुक्ति वाहिनी का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था और भारत पर इस आंदोलन की मदद का आरोप था. खुन्नस में पाकिस्तान की याहिया ख़ां सरकार ने भारत पर हमला कर दिया था. मगर, भारत की सैन्य शक्ति उत्साह से भरी थी. पाकिस्तान को लगातार मात खानी पड़ रही थी. तब अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए भारत से भिड़ने के लिए अपना सातवां बेड़ा रवाना कर दिया था. पूरी दुनिया हक्की-बक्की रह गई थी. मगर वह शीत युद्ध का दौर था, सोवियत संघ हमारे साथ खड़ा था. भारत की नेवी और वायु सेना ताकतवर थी, इसलिए अमेरिका से हम नहीं डरे. मगर, अब स्थितियां बदल गई हैं. अब अमेरिका दक्षिण एशिया को लेकर एक कूटनीतिक चुप्पी साधे है. बांग्लादेश के मामले में उसने साफ कह दिया है, उसे भारत ही संभाले.
वैसे ट्रंप की यह साफगोई पसंद की जानी चाहिए. भारत दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी ताकत है. इसलिए आसपास के देशों को संभालने की जिम्मेदारी तो भारत की ही बनती है. विदेशी मामलों के विशेषज्ञ मारूफ रजा का कहना है, हमें अमेरिका से उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि हमारे पड़ोसी देशों के अंदर वह दख़ल करे या प्रतिबंध लगाए. बांग्लादेश हमारा पड़ोसी है, अमेरिका का नहीं. इसलिए बांग्लादेश के अंदर जो कुछ हो रहा है, उससे निपटने की ज़िम्मेदारी हमारी ही बनती है. पिछली पांच अगस्त को बांग्लादेश में जो कुछ हुआ था, भारत उस पर लगातार चुप्पी साधे है. एक चुनी हुई सरकार का निर्वासन और अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस जिस तरह से वहां कामकाज संभाल रहे हैं, उससे अराजकता बढ़ी है. वहां के अल्पसंख्यकों पर भी अत्याचार हो रहे हैं पर मोदी सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की.
यूनुस के चेहरे पर चिंता की लकीरें
मारूफ रजा का मानना है कि बांग्लादेश को बनवाया ही भारत ने था इसलिए वहां की अराजकता को खत्म करने के लिए भारत को सक्रिय होना जरूरी है. बांग्लादेश की निर्वाचित प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद भारत में हैं. उनको सुरक्षित बांग्लादेश में स्थापित करने में भारत की भूमिका होनी चाहिए. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रेस के सामने स्पष्ट कहा कि बांग्लादेश में अमेरिकन डीप स्टेट की कोई भूमिका नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश का ध्यान रखें. राजनीतिक रूप से यह बहुत बड़ी बात है. एक तरह से अमेरिका ने भारत को दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी ताकत मान लिया है. ट्रंप के स्पष्टीकरण का एक अर्थ यह भी है कि भारत न सिर्फ़ बांग्लादेश बल्कि सार्क देशों के सभी देशों (पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान श्रीलंका, बांग्ला देश, मालदीव और स्वयं भारत) के मामले खुद देखे. उनके इस बयान से बांग्लादेश सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आई हैं.
पर क्या चीन चुप बैठेगा?
चीन, जापान, कोरिया आदि देशों के जानकार पंकज मोहन कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप बड़े खिलाड़ी हैं. वो बांग्लादेश में भारत को कुछ भी करने की बात तो कर रहे हैं लेकिन यह नहीं बता रहे कि अगर प्रतिक्रिया में चीन ने भारत को आंखें दिखाईं तब अमेरिका क्या करेगा! उनके अनुसार डोनाल्ड ट्रंप की नीति अमेरिका फर्स्ट की है. वो जिस तरह से लैटिन अमेरिकी देशों को USA का पिछलग्गू समझते हैं, वही राय भारत को दे रहे हैं लेकिन आज की बदलती दुनिया में क्या यह संभव है. आज चीन के हित बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं. किसे नहीं पता कि मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू को किसने हवा दी थी. ऐसे में चीन क्या भारत का प्रभाव पड़ोसी देशों पर पड़ने देगा. कल को चीन जब एक बड़ा संकट बनेगा, तब भारत क्या करेगा!
SAARC का पिटना भारत की कमजोरी
विदेशी मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर का कहना है कि भारत को शुरू से ही सार्क (SAARC) संगठन को और मजबूत करना था. राजीव गांधी के समय SAARC की स्थापना हुई थी. मगर धीरे-धीरे वो संगठन मरता गया. पिछले 10 साल से वो मृतप्राय पड़ा हुआ है. अगर भारत इन देशों पर अपना दबदबा बनाए रखता तो पिद्दी-पिद्दी देशों की यह हिम्मत न पड़ती कि वो एक बड़ी ताकत भारत को आंख दिखाते! आज बांग्लादेश में भारत विरोध के नारे लग रहे हैं. वहां कई भारत विरोधी संगठन काम कर रहे हैं. शेख हसीना की वापसी को लेकर बांग्लादेश की सरकार भारत पर दबाव डाल रही है. बांग्लादेश की मोहम्मद यूनुस सरकार की यह दबंगई भारत की कमजोरी का सबूत है. भारत को इस पर पलट कर घुड़की देनी थी. पर यह तब संभव था, जब भारत सार्क का नेतृत्त्व करता रहता.
क्षेत्रीय शक्तियों की गुंडई को बढ़ाना
बांग्लादेशी मामलों के जानकार अरुण माहेश्वरी कई पीढ़ियों से कोलकाता में रह रहे हैं. वो 1971 से बांग्लादेश को देख रहे हैं. उनका कहना है, ट्रंप की नीति ही है क्षेत्रीय ताकतों को अधिकार देना. आज अमेरिका तो चाहता ही है कि यूक्रेन पर रूस का कब्जा रहे और अरब देशों, दक्षिण अमेरिका, लैटिन अमेरिका और मध्य अमेरिका के देशों पर अमेरिका की धौंस चलती रहे. ट्रंप ने तो कनाडा को अपना 51वां राज्य घोषित कर रखा है. उन्हें यह बात समझ नहीं आ रही कि कनाडा का कुल एरिया पूरे USA से काफी ज़्यादा है. वो एक स्वतंत्र संप्रभु देश है. मगर कनाडा को अपने में मिलाना उसकी कूटनीति है. इसी तरह मैक्सिको पर दबाव बना रहे हैं. पनामा नहर पर कब्जा करना चाहते हैं. अमेरिका फर्स्ट का मतलब केवल अमेरिका नहीं होता. माहेश्वरी के अनुसार, इसी तरह की गीदड़-भभकियों से ट्रंप अपने चार साल गुजारना चाहते हैं.
ट्रंप की नजर EU पर
सच तो यह कि ट्रंप अपने साथ जिन सहयोगियों को लिए हैं, वो सब व्यापारी हैं. उनका मकसद पूरे विश्व के संसाधनों पर कब्जा करना है. इसलिए वो लोग ट्रंप को कहते रहते हैं कि ये करना है. अन्यथा किस हैसियत से अमेरिका गाजा पट्टी पर अधिकार जताने पर जुटा हुआ है. यह व्यापारी वर्ग लोकतंत्र और उसके मूल्यों को समाप्त करने पर जुटा है. वो सेकंड वर्ल्ड वार के बाद हुई नाटो (NATO) संधि को भी ठुकरा रहा है. इसीलिए उसके निशाने पर यूरोपीय यूनियन (EU) है. EU के देश NATO संधियों की शर्तों को लेकर अधिक आग्रही हैं. यह बात USA को अखर रही है. जिस तरह ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को हड़काया है, वह सबूत है कि USA उसी का साथ देगा जो या तो उसके व्यापारिक हितों के लिए मददगार बनेगा या वह वहां लूट मचाएगा.
अब दुनिया बहु-ध्रुवीय
वैसे भारत के लिए बेहतर रहता कि वह पूर्ववत अपनी NAM (Non Aligned Movement) वाली लाइन पर रहता. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उस समय दुनिया की दोनों बड़ी शक्तियों- सोवियत संघ और अमेरिका (USSR & USA) से अलग रहकर निर्गुट रास्ता पकड़ा था. मगर, 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमेरिका अकेली विश्व शक्ति बन गया. तो यह आंदोलन भी कमजोर पड़ता गया. मगर आज फिर से USA, CHINA, RUSSIA जैसी ताकतें खड़ी हो रही हैं और पूरा विश्व बहुध्रुवीय बनता जा रहा है. ऐसे में भारत को सबसे अलग रहना ही होगा. गफलत में ही सही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बांग्लादेश की गेंद भारत के पाले में डाल दी है तो भारत इसे लपक ले.