हेडलाइन बनी कि इस वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था की प्रतिष्ठा बरकरार रखेगी। लेकिन इस सुर्खी के नीचे के विस्तार पर गौर करें, तो इस हेडलाइन से पैदा हुआ सुखबोध जल्द ही गायब हो जाता है।
आज के सत्ता पक्ष के कर्ता-धर्ताओं की सारी चिंता हेडलाइन मैनेज करने की होती है, इसलिए अगर सुखद सुर्खियां बन जाएं, तो उनका काम बन जाता है। इसलिए मुख्यधारा चर्चा में सुर्खियों के नीचे छिपी सूचनाएं शायद ही कभी चर्चा का विषय बनती हैं। वर्ष 2023-24 के बारे में राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के हाल में जारी अनुमान के साथ भी यही हुआ है। हेडलाइन बनी कि इस वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था 7.3 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करेगी और इस तरह दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था की प्रतिष्ठा बरकरार रखेगी। लेकिन इस सुर्खी के नीचे के विस्तार पर गौर करें, तो इस हेडलाइन से पैदा हुआ सुखबोध जल्द ही गायब हो जाता है। तब ध्यान इस पर जाता है कि इस वृद्धि दर का सबसे बड़ा हिस्सा सरकारी खर्च से आएगा, निजी क्षेत्र के निवेश की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है, निजी उपभोग में वृद्धि की दर 20 साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है और राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं।
कृषि, पशुपालन, वन क्षेत्र और मछली कारोबार में इस वित्त वर्ष में सिर्फ 1.8 प्रतिशत की दर से वृद्धि होगी, जबकि ये क्षेत्र आज भी देश में सबसे ज्यादा रोजगार उपलब्ध करवाते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान करने वाले सेवा क्षेत्र का हाल भी बेहतर नहीं है। इस क्षेत्र में बड़ा योगदान करने वाले- होटल, परिवहन, संचार और प्रसारण क्षेत्र की विकास दर गिर कर आधी (6.3 प्रतिशत) रह जाएगी। जहां तक हेडलाइन की बात है, तो हाल में अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब असल आंकड़े आते हैं, तो उनमें नकारात्मक संशोधन करना पड़ता है। मान लें कि इस बार ऐसा नहीं होगा। तब भी यह हेडलाइन अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर का प्रतिबिंब नहीं है। बहरहाल, यह हकीकत तब मायने रखती, अगर सत्ता के सर्वोच्च स्तरों पर चिंता अर्थव्यवस्था को सचमुच गुलाबी रंग देने की होती। फिलहाल, रुझान नकारात्मक से नकारात्मक कहानी के बीच कुछ सकारात्मक ढूंढ लेने का है, ताकि आबादी के एक बड़े हिस्से में सब कुछ ठीक दिशा में होने का यकीन बना रहे।