आजादी विशेष- 14 साल के देवी पद चौधरी ने छुड़ाए थे अंग्रेजी फौज के छक्के, फहराया था तिरंगा

कोलकाता। अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायकों को याद करने का समय है, जब पूरा देश स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में जुटा हुआ है। इस मौके पर हम उन गुमनाम क्रांतिकारियों की दास्तानें भी सामने लाते हैं, जिन्हें इतिहास के पन्नों में उचित स्थान नहीं मिल पाया। ऐसे ही एक नायक थे पश्चिम बंगाल के देवीपद चौधरी, जिन्होंने मात्र 14 साल की उम्र में अपने वतन के लिए प्राणों की आहुति दे दी।

इतिहासकार नागेन्द्र सिन्हा के अनुसार, देवीपद चौधरी का जन्म 16 ,अगस्त 1928 को तत्कालीन अविभाजित बंगाल के सिलहट जिले के जमालपुर गांव में हुआ था। यह स्थान वर्तमान में बांग्लादेश का हिस्सा है। उनके पिता देवेंद्रनाथ चौधरी, जो पटना हाई स्कूल में अध्यापक थे, क्रांतिकारी विचारधारा के समर्थक थे और उन्होंने अपने पुत्र को भी इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। देवीपद की मां प्रमोदिनी देवी एक धार्मिक महिला थीं, जिन्होंने अपने बेटे को देशभक्ति का पाठ पढ़ाया।

1942 का वर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। आठ अगस्त को कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति ने ‘ अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया, जिसने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया। इसके बाद नौ अगस्त से अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू कर दीं। पटना में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भी गिरफ्त में आ गए और उन्हें बांकीपुर के सेंट्रल जेल में नजरबंद कर दिया गया।

इस घटनाक्रम से पूरे बिहार में आक्रोश फैल गया। 11 अगस्त, 1942 को पटना में छात्रों के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का एक बड़ा दल बिहार विधानसभा परिसर का घेराव करने पहुंचा, जिसका उद्देश्य वहां तिरंगा फहराना था। इस आंदोलन में 14 वर्षीय देवीपद चौधरी भी शामिल थे। पिता के कहने पर उन्होंने इस आंदोलन में भाग लिया, जो अपने आप में एक अनूठा उदाहरण है।

ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। पटना के अंग्रेज जिला मजिस्ट्रेट डब्ल्यू जी आर्थर ने निहत्थे क्रांतिकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। अंधाधुंध फायरिंग के दौरान देवीपद चौधरी गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे उठे और अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजी ध्वज को उतारकर तिरंगा फहरा दिया। इस वीरता के बाद वे मां भारती की गोद में हमेशा के लिए सो गए।

उनके साथ-साथ उमाकांत प्रसाद सिंह, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जगपति कुमार, राजेंद्र सिंह, और राम गोविंद सिंह भी इस आंदोलन में शहीद हुए। इस बलिदान को हमेशा याद रखने के लिए बिहार सरकार ने विधानसभा भवन के सामने एक स्मारक बनवाया, जिसका शिलान्यास राज्यपाल जयराम दास दौलतराम ने किया और अनावरण भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 24 अक्टूबर 1956 को किया।

यह कहानी हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता की राह में कितने नौजवानों ने अपने जीवन का बलिदान दिया। देवीपद चौधरी और उनके साथियों का यह सर्वोच्च बलिदान इतिहास में अमर है, और आज भी हमें प्रेरित करता है कि राष्ट्र के लिए क्या कुछ किया जा सकता है।

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