कानपुर। मसूर की वैज्ञानिक विधि से खेती करने से किसानों को अधिक लाभ होगा। दलहनी फसलों में मसूर का अपना अलग एक महत्वपूर्ण स्थान है। मसूर दाल जिसे लाल दाल के नाम से जाना जाता है। मसूर उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। यह जानकारी बुधवार को चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के प्रोफेसर एवं दलहन वैज्ञानिक डॉक्टर अखिलेश मिश्रा ने दी।
उन्होंने बताया की मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 7.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्राम रेशा, 68 मिलीग्राम कैल्शियम, 7 मिलीग्राम लोहा, 0.2 1 मिलीग्राम राइबोफ्लेविन, 0.51 मिलीग्राम थायमीन और 4.8 मिलीग्राम नियासिन पाया जाता है। जो मानव स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। इसके सेवन से अन्य दालों की अपेक्षा सर्वाधिक पौष्टिकता पाई जाती है। रोगियों के लिए यह दाल अत्यंत लाभप्रद है। इसके सेवन से दस्त, बहुमूत्र, प्रदर, कब्ज व अनियमित पाचन क्रिया में लाभकारी है। इसका हरा व सूखा चारा पशुओं के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है।
अक्टूबर से नवम्बर के मध्य मसूर की बुवाई का सर्वोत्तम समय
सीएसए के शोध छात्र प्रसून सचान ने बताया कि मसूर दाल की अधिक पैदावार के लिए अक्टूबर से मध्य नवंबर तक इसकी बुवाई करते हैं। मसूर की उन्नतशील प्रजातियां जैसे- डीपीएल 15, डीपीएल 62, नूरी, के 75, आईपीएल 81, एलएस 218 प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि समय से बुवाई के लिए 30 से 35 किलोग्राम एवं देर से बुवाई के लिए 50 से 60 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यक होता है। तथा उर्वरक 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में 25 किलोग्राम जिंक प्रति हेक्टेयर की दर से दें। बुवाई के पूर्व बीज का शोधन अवश्य कर दें।
डॉ मिश्रा ने बताया कि किसान आधुनिक तरीके से इसकी उन्नत खेती करें तो दानों के उपज 20 से 25 कुंतल एवं भूसे की उपज 30 से 35 कुंतल प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है।