अशोक भाटिया
बोफोर्स का जिन एक बार फिर बोतल बाहर आ सकता है। कहा जा रहा है कि इस मामले में सीबीआई जल्द ही प्राइवेट जासूस माइकल हर्शमैन से जानकारी मांगने के लिए अमेरिका को कानूनी अपील करने जा रही है । इससे पहले हर्शमैन ने 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स रिश्वत घोटाले के बारे में भारतीय एजेंसियों के अहम जानकारी शेयर करने की ख्वाहिश जाहिर की थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अफसरों का कहना है कि अमेरिका को न्यायिक अनुरोध भेजने के बारे में स्पेशल कोर्ट बताया गया है। यह अदालत इस केस आगे की जांच के लिए CBI की अर्जी पर सुनवाई कर रही है। लेटर्स रोगेटरी (एलआर) भेजने का अमल इस साल अक्टूबर में शुरू हुआ था। इस प्रक्रिया में लगभग 90 दिन लग सकते हैं। इसका मकसद मामले की जांच के लिए जानकारी हासिल करना है।
बोफोर्स घोटाला भारतीय राजनीति का एक ऐसा काला अध्याय है, जिसने एक समय देश को हिलाकर रख दिया था। यह घोटाला 1980 के दशक में हुआ था और इसने भारतीय राजनीति पर गहरा असर डाला। 1986 में भारत सरकार ने स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स से 155 एमएम की 400 होवित्जर तोपें खरीदने का सौदा किया था। यह सौदा भारतीय सेना को आधुनिक हथियार मुहैया करने के मकसद से किया गया था। हालांकि, कुछ समय बाद यह बात सामने आई कि इस सौदे में भारी पैमाने पर रिश्वतखोरी हुई थी।
दरअसल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर पर सवार राजीव गांधी ने लोकसभा की 403 सीटें हासिल करके विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया था। लेकिन इस अभूतपूर्व जीत के बीच राजनीति के नए खिलाड़ी राजीव गांधी को घाघ कांग्रेसियों ने खूब छकाया। शाहबानो मामला, बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना और फिर उनके वित्त मंत्री वीपी सिंह का विद्रोह, इन सब से निपटने में वे अक्षम रहे। उनके साथी उनको छोड़ कर जाते रहे। बोफोर्स तोप घोटाले में उनको घेरा गया। 10 अप्रैल 1987 को मंत्री पद से विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस्तीफे के साथ राजीव गांधी सरकार की मुश्किलें बढ़नी शुरू हो गईं। पहले वित्तमंत्री और फिर रक्षा मंत्री के तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के कुछ फैसलों ने राजीव गांधी को नाराज किया था। इस्तीफे के बाद जनता के बीच संदेश गया कि अपने विभागों में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण विश्वनाथ प्रताप को मंत्री पद खोना पड़ा।
16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो ने बोफोर्स तोप खरीद में घोटाले और कमीशनखोरी का खुलासा किया। 20 अप्रैल को संसद में राजीव गांधी ने इसका खंडन किया। फिर इस कड़ी में हिंदू अखबार में चित्रा सुब्रह्मण्यम की रिपोर्टों ने हड़कंप मचा दिया। कैग की खिलाफ रिपोर्ट ने सरकार के लिए और मुश्किलें खड़ी कीं। संसद में विपक्ष के लगातार हंगामे और विपक्षी सांसदों के सामूहिक इस्तीफे ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
दूसरी तरफ 16 मई 1987 को कांग्रेस की एक बड़ी रैली जिसमें विश्वनाथ प्रताप श्रोताओं के बीच में थे, को संबोधित करते हुए राजीव गांधी कह रहे थे, “भारत की आजादी कब छिनी? जब मीरजाफर और राजा जयचंद जैसे गद्दारों ने विदेशी ताकतों से हाथ मिलाया। आप ऐसे लोगों से सतर्क रहें,यह लोग विदेशी ताकतों से हाथ मिलाकर देश के हितों को बेच रहे हैं।” सिर्फ मौजूद श्रोताओं तक ही नहीं बल्कि बाद में मीडिया के जरिए दूर तक संदेश गया कि राजा जयचंद की आड़ में राजा मांडा (विश्वनाथ प्रताप सिंह) निशाने पर हैं।
जाहिर तौर पर यह कांग्रेस की भीतरी लड़ाई थी जिनमें प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उस समय पूर्व तक उनके भरोसेमंद मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह आमने-सामने थे। लेकिन बोफोर्स की आंच ने राजीव गांधी, उनके ससुराली रिश्तेदारों-दोस्तों को भी लपेट में लेना शुरू कर दिया। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन उन दिनों इलाहाबाद से लोकसभा के सदस्य थे। उनकी गिनती राजीव गांधी के पारिवारिक मित्रों में थी। बोफोर्स कमीशन में हिस्सेदारी करने वालों में अपना और भाई अजिताभ का नाम उछलने पर अमिताभ बच्चन की हिम्मत जवाब दे दी गई। राजीव गांधी के मना करने के बावजूद अमिताभ बच्चन ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर राजनीति से तौबा कर ली।
अमिताभ के इस्तीफे के कारण रिक्त इलाहाबाद लोकसभा सीट का 1988 में उपचुनाव हुआ। इस वक्त तक विश्वनाथ प्रताप सिंह की देश के तमाम हिस्सों की यात्राओं और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने उन्हें काफी लोकप्रिय बना दिया था। “राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है “नारे की हर ओर गूंज थी। सत्ता के विरुद्ध उनकी छवि विपक्ष की सबसे मुखर आवाज और प्रभावशाली चेहरे के तौर पर स्थापित हो चुकी थी। इलाहाबाद उपचुनाव में वे अपने संगठन जनमोर्चा के प्रत्याशी थे। पूरा विपक्ष उनके पीछे था।
कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री को उनके विरुद्ध उम्मीदवार बनाया था। केंद्र और प्रांत की कांग्रेसी सरकारों की साझा ताकत और हर चुनावी हथकंडे इस्तेमाल करने के बाद भी कांग्रेस प्रत्याशी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। इस उपचुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह को 2,02,996 और सुनील शास्त्री को 92,245 वोट प्राप्त हुए थे।
इलाहाबाद उपचुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी थे। इस नतीजे ने बिखरे विपक्ष को भी सीख और संदेश दिया कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए एक साथ आना होगा और विश्वनाथ प्रताप सिंह को नेता मानना होगा। सिर्फ एक दशक पहले जनता पार्टी के बिखराव की कड़वी यादें इन दलों के कदम आगे बढ़ने से रोक रही थीं। लेकिन और कोई रास्ता न होने के कारण एक बार फिर वक्ती मिलाप हुआ।सेक्युलर दलों ने जनता दल बनाया। भाजपा तथा वामदलों से चुनाव पूर्व गठबंधन किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भाजपा के झंडों-मंचों से परहेज किया। लेकिन यह रणनीतिक दांव था , जहां दोनों को एक-दूसरे के वोट बैंक को बिना पास रहे अपने पक्ष में करना था।
1989 के लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं है कि अन्य मुद्दों की चर्चा नहीं हुई अथवा जातीयता, मजहबी गोलबंदी और क्षेत्रीयता के सवाल नहीं उभरे। लेकिन इन सब पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में जारी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम भारी पड़ी। बोफोर्स का अप्रैल 1987 में निकला जिन्न दो साल बाद मई 1989 के लोकसभा के मतदान के वक्त भी पूरे विकराल रूप में था। ये आगे भी वर्षों तक गांधी परिवार और कांग्रेस का पीछा करता रहा।
बेशक इस मुद्दे पर कुछ साबित न हो पाया हो लेकिन राजीव गांधी और कांग्रेस के लिए यह बहुत भारी पड़ा। बोफोर्स की कथित दलाली ने राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को नष्ट कर दिया। सिर्फ पांच वर्ष पहले उन्होंने लोकसभा के चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी। 1989 में वे सत्ता से बाहर हो गए। कांग्रेस को सिर्फ 197 सीटें मिलीं। जनता दल 143 , भाजपा 85 और वाम मोर्चा 45 सीटों पर जीता। केंद्र की अगली जनता दल की सरकार की अगुवाई विश्वनाथ प्रताप सिंह ने की, जिसे भाजपा और वाम मोर्चे व कुछ अन्य दलों का बाहर से समर्थन था।
2014 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर जोर-शोर से उठा। कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए 2004 से ही सत्ता में थी। लेकिन इस बार सरकार के भीतर से नहीं बल्कि समाजसेवी अन्ना हजारे की अगुवाई में चले जनांदोलन ने सत्ता दल की छवि को धूल-धूसरित कर दिया। इस वक्त तक सोशल मीडिया और चैनलों का काफी विस्तार हो चुका था। इन सबके जरिए 2 जी और कॉमनवेल्थ जैसे घोटालों और मंत्रियों के विरुद्ध आरोपों की गूंज शहरों – कस्बों को लांघती दूर गांवों तक पहुंच गई।
कैग की खिलाफ रिपोर्ट और सरकारी खजाने को 1 लाख 76 हजार करोड़ की चोट ने आरोपों पर और मोहर लगाई। आंदोलन को संघ परिवार का समर्थन हासिल था। अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आप पार्टी भी 2014 के चुनाव मैदान में उतरी। लेकिन इन सबसे अलग राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर नरेंद्र मोदी के उभार ने सबको पीछे छोड़ दिया। गुजरे 25 वर्षों की गठबंधन सरकारों के प्रयोग से ऊबे वोटरों ने अकेले भाजपा को 282 सीटें देकर केंद्र में स्पष्ट बहुमत की स्थिर सरकार का रास्ता साफ कर दिया। अब 2014 से आज तक केंद्र में भाजपा सरकार है सो राजनैतिक हलको में में चर्चा है कि दोबारा बोफोर्स के जिन्न बाहर निकालने का प्रयत्न किया जा रहा है ।