अजय कुमार शर्मा
अपने काम और शराब के अलावा राज साहब भोजन के भी दीवाने थे। उनके भोजन प्रेम के अनेक किस्से और कहानियाँ हैं। राहुल रवेल ने राजकपूर पर लिखी किताब में उनके भोजन प्रेम के अनेकों किस्से साझा किए हैं। वे बताते हैं कि राजकपूर शाम को ठीक छह बजे स्टूडियो से निकल कर चेंबूर स्टेशन पर जाते थे। वहाँ बाहर एक पानी-पूरीवाला था, जहाँ वे पानी पूरी खाते थे। उसके आगे एक दक्षिण भारतीय रेस्तराँ था, जहाँ पर वे डोसा और मेदू वड़ा खाते थे। इस रेस्तराँ में सुबह मेदू वड़ा बनता और परोसा जाता था, लेकिन क्योंकि राज कपूर हर रोज शाम को आते थे इसलिए विशेष रूप से शाम को उनके लिए इसे बनाया जाता था, फिर वो पास के तीसरे रेस्टोरेंट में फिल्टर कॉफी के लिए जाते थे।
इस दिनचर्या को कभी-कभार ही बदला जाता था। यदि उस समय किसी को उनसे मिलना होता था, तब वे मिलने वालों से वहीं पर आने को कहते। कल्पना कीजिए कि कुछ लोग राजकपूर से मिलने आए हैं और उनसे बातें करते समय सड़क पर खड़े होकर पानी-पूड़ी खा रहे हैं।
आर. के. स्टूडियो में जो खाना रखा होता था उसे राजाओं का भोजन कहा जा सकता था। एक चिकन डिश, एक मटन, एक मछली और इसके अलावा केकड़ा या झींगा हुआ करता था और चिकन में कुछ और, जैसे लीवर या कबाब। इसके अलावा, वहाँ कई तरह की दाल, सब्जियाँ और तीन मीठे व्यंजन होते थे और पूरी यूनिट उनके साथ बैठकर एक जैसा खाना खाती थी। आर. के. में, शाम को 6 बजे हाई टी परोसी जाती थी। हाई टी अपने आप में काफी तरह का भोजन होता था! राज साहब इसे ‘टिफिन’ कहते थे, जिसमें हर रोज एक डोसा, एक वड़ा, सांभर, सैंडविच, रोल, जलेबी या कुछ मीठा शामिल होता था। यह सब शूटिंग के दिनों में होता था।
एडिटिंग के दिनों में यह भोजन और भी विविधता वाला होता। फिल्म की आखिरी एडिटिंग के दौरान और नेगेटिव कटिंग तक राज साहब शाकाहारी भोजन करते और शराब नहीं पीते थे। एडिटिंग के इन दिनों की एक दिलचस्प बात और थी कि काम शुरू करने से पहले सब प्रोजेक्शन रूम में एक कागज और पैड के साथ तीनों समय के भोजन और हाई टी के मेनू के लिए इकट्ठे होते थे। कोई सुझाव देता था कि घाटकोपर में एक रेस्टोरेंट है, जिसमें दाल बड़ी अच्छी मिलती है। राज साहब कहते, “लिखो।” कोई और कहता कि ठाणे में एक रेस्टोरेंट है, वहाँ मटन बहुत सही मिलता है। उसे भी नीचे लिखा जाता था और इस तरह दिन का पूरा मेनू बनता था। राजकपूर को ग्रांट रोड के एक रेस्टोरेंट, कोरोनेशन, जो नावल्टी सिनेमा के बगल में था, उसकी बिरयानी बहुत पसंद थी। यह निश्चित रूप से उस सूची में शामिल होती थी और फिर सूची को दोपहर के भोजन, शाम की चाय और रात के खाने में बाँटा जाता था। इतना ही नहीं यह भी तय किया जाता कि अगले दिन नाश्ते में क्या खाना होगा। नाश्ते के लिए अंडे काफी नहीं थे और स्प्रेड आज के किसी फैंसी फाइव स्टार होटल के बुफे को भी टक्कर दे सकता था। ऐसी व्यवस्था की जाती थी, जिसमें कारों को नियुक्त किया जाता, जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय पर खाना लेने के लिए जाती थी, ताकि हम सभी को ‘गरम खाना’ मिल सके। राज साहब उन स्नैक्स को लेकर खासे चर्चित थे, जो शाम को चाय के साथ लिये-दिए जाते थे। यह एक रस्म थी, जिसे आर. के. ने शुरू किया था और फिर यह पूरी इंडस्ट्री में फैल गई। राज साहब को खाने के साथ एक्सपेरिमेंट करना भी पसंद था। वे पाव को लेकर उसके बीच में मक्खन लगाते हुए, उसके बीच में जलेबी डालकर उसे मीठी जलेबी के सैंडविच बनाकर खाते थे! कई बार इस मीठे सैंडविच को टमाटर के कैचप में डुबोकर उसे खा जाते।
राज साहब को रेस में जाने का शौक था और यह दाँव लगाने के उनके जुनून के चलते नहीं, बल्कि उनके खाने के प्रति जुनून से प्रेरित था। वे रेसकोर्स में परोसे जानेवाले स्नैक्स के कारण इन रेस में जाते थे। वे अपने सात या आठ दोस्तों के साथ पुणे रेसकोर्स के लॉन में बैठते थे और सैंडविच और चिकन पैटीज ऑर्डर करते थे, जब दौड़ शुरू होनेवाली होती थी, तब वे दाँव लगाने के लिए उठते, लेकिन राज साहब पीछे रह जाते। वे सैंडविच उठाते, ब्रेड खोलते और उसकी सामग्री खाते और फिर ब्रेड को बंद करके सावधानी से प्लेट में वापस रख देते, ताकि ऐसा लगे कि इस सैंडविच को किसी ने छुआ नहीं है। बाद में वे वेटर को उन्हें खाली सैंडविच परोसने के लिए गुस्सा करते! चिकन पैटी के साथ भी यही हश्र किया जाता।
चलते चलते
संजीव कुमार ने बेंगलुरु में एक रेस्टोरेंट खोला था। उन्होंने दिलीप कुमार और राज साहब को रेस्टोरेंट का उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। उद्घाटन के दौरान काफी भीड़ थी जिसमें प्रेस प्रतिनिधि भी थे। जब उनका खाना परोसा जाने लगा तो दोनों अचानक उठकर चलने लगे। संजीव कुमार को संदेह हुआ तो पूछ बैठे, क्या आप लोग दोपहर का भोजन नहीं करेंगे। तब राजकपूर का जवाब था, भाई यहां का भोजन बहुत अच्छा लग रहा है लेकिन आप जानते कि सामने एक आरआर नाम का रेस्टोरेंट है। वहां का खाना लाज़वाब है और हमें वहां खाने का मौका काफी मिलता है। और वे दोनों उठे और आरआर में खाने के लिए निकल पड़े। संजीव कुमार देखते ही रह गए। तो ऐसा था राजकपूर का खाने का शौक…