बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः ज़ोहरा सहगल और पृथ्वीराज कपूर ने जब फाँसी लगते देखी

अजय कुमार शर्मा अपने समय की प्रख्यात डांसर और अभिनेत्री ज़ोहरा सहगल ने अल्मोड़ा में उदय शंकर की नृत्य अकादमी, लंदन में चैनल फोर और फिर भारत में आकर टीवी और फिल्मों में काम करने के बीच में सबसे लंबा समय पृथ्वी थिएटर में काम करते हुए बिताया। वे 14 साल इससे जुड़ी रहीं। असल में जब विवाह के बाद उन्होंने उदय शंकर की नृत्य मंडली छोड़ी तो लाहौर जाकर अपने पति कामेश्वर सहगल के साथ मिलकर 1943 में अपना नृत्य स्कूल ज़ोरेश डांस इंस्टीट्यूट खोला। नृत्य स्कूल खोले अभी कुछ समय ही हुआ था कि भारत विभाजन के चलते उन्हें लाहौर छोड़ना पड़ा। उनकी छोटी बहन उज़रा उस समय पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर में अभिनेत्री थीं और अपने पति हामिद बट के साथ बांद्रा में चेतन आनंद के साथ एक फ्लैट में रह रही थीं। उस छोटे से फ्लैट में चेतन आनंद के परिवार के साथ ही उनके भाई देवानंद, विजय आनंद और उनकी बहन का परिवार भी रह रहा था। इस बीच उन्हें पृथ्वी थियेटर के नाटक दीवार का प्रीमियर देखने का मौका मिला और वह इस नाटक और इस थिएटर कंपनी की दीवानी हो गईं।

यह नाटक जो कि आम आदमी की जुबान में जमीनी हकीकत पर आधारित मौलिक नाटक था ने उनमें थिएटर करने की ललक फिर पैदा कर दी। वे पापाजी (पृथ्वीराज कपूर को सब इसी नाम से पुकारते थे) से मिलने जा पहुँची और अपनी कंपनी में भर्ती करने की गुज़ारिश की। तब पापा जी ने कहा भई मेरे पास मुझे तुम्हारी तनख्वाह देने के पैसे नहीं है। उनका एक संकोच यह भी था कि उनकी छोटी बहन पहले ही वहाँ मुख्य अभिनेत्री के रूप में काम कर रहीं थीं। लेकिन वे ज़िद पर अड़ी रहीं और पति कामेश्वर के साथ उनके घर तक पहुंच गईं। तब दयालु पापाजी को मजबूरन कहना पड़ा कि जब तक तुम्हारे लिए अभिनय का कोई मौका नहीं निकलता तब तक तुम कंपनी में डांस – डायरेक्टर का काम कर सकती हो। इस तरह उन्होंने अक्टूबर 1945 से पृथ्वी थिएटर में काम शुरू किया। उनकी तनख्वाह थी 400 रु.।ज्ञात हो कि अपने समय के लोकप्रिय फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने 16 जनवरी 1944 को पृथ्वी थिएटर की नीव रखी और पारसी थियेटर के मशहूर लेखक पंडित नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के नाटक ‘शकुंतला’ को अपने पहले प्रदर्शन के लिए चुना।

इसका पहला शो 9 मार्च 1945 को रॉयल ओपेरा हाऊस, बॉम्बे में हुआ। इस शो में पापाजी को एक लाख रूपयों का नुकसान हुआ। पृथ्वी थिएटर का अगला नाटक दीवार था जो बेहद सफल रहा। इसके बाद नाटकों के प्रदर्शन के लिए देशभर के दौरे शुरू हुए। पूरी कंपनी जिसमें 60 से ज़्यादा लोगों का स्टॉफ था, तीसरे दर्जे में सफ़र करते थे। इसके लिए कई बोगियाँ बुक की जाती थीं। जिस शहर में शो होते वहां किराए पर घर लेकर पूरी टीम रहती। टीम में खानसामे और बर्तन से लेकर बच्चें तक शामिल होते। पूरा मजमा एक सर्कस की तरह होता था जिसमें रहना-खाना मुफ्त.. और तो और जो बच्चे छुट्टियों में टूर के साथ होते तो उन्हें 1 रुपए महावार दिया जाता। कभी राजकुमारी की तरह रहीं ज़ोहरा इन दौरों के चलते कैंप सी जिंदगी जीते-जीते अब एक सामान्य जिंदगी जीने लगी थीं। पृथ्वी थियेटर के साथ रहते हुए उन्होंने पूरा देश देश घूमा। उन्होंने 112 शहरों में पृथ्वी के नाटकों शकुंतला और दीवार के बाद छह नाटकों, पठान, गद्दार, आहुति, कलाकार, पैसा और किसान जोकि उनका और पृथ्वी थिएटर का भी अंतिम नाटक था में अभिनय, कास्ट्यूम और नृत्य निर्देशन किया। पृथ्वी थिएटर के दौरे से जुड़ा एक वाकया ज़ोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है जो अपने आप में अनूठा है। पृथ्वी थियेटर के लोग 1952 में फिरोजपुर में नाटक कर रहे थे तो स्थानीय जेल के गवर्नर शो देखने के लिए आए। शो देखने के बाद उन्होंने सोचा कि वे लोग अपने किसी नाटक के कुछ हिस्से उनके कैदियों के सामने करके दिखाएँ तो बहुत अच्छा रहेगा। इस काम के लिए ‘गद्दार’ नाटक को चुना गया।

पृथ्वीजी, उनकी बहन उज़रा और उन्होंने नाटक के कुछ हिस्से कैदियों के सामने करके दिखाए जो खुले मैदान में बैठे थे और उनके पैर जंजीरों में बँधे थे। कैदियों को नाटक बहुत ही पसंद आया। अगले दिन जेल में किसी को फाँसी होनी थी, गवर्नर ने पापाजी से पूछा कि क्या वह इसे देखना चाहेंगे। थिएटर के कुछ लड़कों ने भी पापाजी के साथ जाने की इच्छा जाहिर की। अब तक किसी भी औरत को फाँसी देखने की मंजूरी नहीं दी गई थी मगर जिद पर अड़े रहने और पापाजी की पैरवी से ज़ोहरा जी को भी जाने की मंजूरी मिल गई। यह देखकर एक और साथी अभिनेत्री पुष्पा ने भी साथ जाने का फैसला किया मगर आखिरी समय पर उसकी हिम्मत टूट गई और उसे बेहोशी की हालत में वापस लाया गया।अगले दिन वे सब, गवर्नर, डॉक्टर, जल्लाद और कुछ दूसरे अधिकारी एक बन्द अहाते में खड़े इन्तज़ार कर रहे थे जहाँ फाँसी का फंदा तैयार था। उन सबने कहीं दूर मौजूद सजायाफ्ता मुजरिम की कोठरी से एक थोड़ी उत्तेजित मगर मजबूत आवाज़ सुनी ‘बोले सो निहाल’ जिसके जवाब में आसपास के कैदियों की आवाज़ थी ‘सत श्री अकाल’। जैसे-जैसे वह कैदी जेल से होता हुआ उस अहाते की ओर बढ़ रहा था, खून जमा देने वाली लय में यह नारा और तेज़ होता गया। उसके बाद बिल्कुल सन्नाटे के बीच उसकी जंजीरें खोल दी गईं और उसके हाथ और पैर को पतली रस्सी से बाँध दिया गया। उसकी आँख पर पट्टी बँधी हुई थी, उसके चेहरे को एक काले कपड़े से ढँक दिया गया और फाँसी का फंदा ठीक जगह पर अटका दिया गया। गवर्नर से इशारा पाते ही लाल आँखों वाले जल्लाद ने फंदा कसनेवाला हत्था खींचा और पलक झपकते ही वह आदमी पैरों के नीचे बिछे तख़्तों के नीचे गायब हो गया। वह गाँव का रहनेवाला पंजाब का एक जवान था, पृथ्वी थियेटर के लोग कुछ दिन पहले ही जेल में उसकी कोठरी में उससे मिलने गए थे, जहाँ वह एक कोने में उदास, निराश-सा बैठा था। उसने अपना जुर्म क़बूल किया था कि उसने गुस्से में आकर अपनी पत्नी और उसके प्रेमी का खून किया था।

चलते चलते

पृथ्वी थियेटर में इस ‘कैंप’ की सी ज़िन्दगी ने ज़ोहरा सहगल जी के अन्दर की अभिजात ठसक को काफ़ी हद तक चकनाचूर कर दिया था। अपने कपड़े ख़ुद धोने जैसे काम जिन्हें करना उनके लिए एक बड़ी बात होती थी, यहाँ ज़रूरत बन गया था। एकमात्र सुविधा जिसे छोड़ने से उन्होंने मना कर दिया था वह थी-रोज गरम पानी से नहाना। कम्पनी के ज़्यादातर लोग बंबई (अब मुम्बई) और इसके आसपास के इलाक़ों से थे जिन्हें ठंडे पानी से नहाने की आदत थी क्योंकि भारत के इस हिस्से में कभी भी बहुत ज़्यादा ठंड नहीं होती। मगर उन्हें उत्तर भारत में रहने की आदत थी और वे हमेशा गरम पानी से नहाती थीं।

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