बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः फरेबी जाल में कैसे फंसी दुर्गा खोटे

अजय कुमार शर्मा

अपने समय की प्रख्यात अभिनेत्री दुर्गा खोटे का संबंध मुंबई के एक प्रतिष्ठित और उच्च परिवार, लाड परिवार से था। उनका विशाल घर कांदेवाडी में था। उनके पिता पांडुरंग शामराव लाड थे जो एक बुद्धिमान सॉलीसिटर के रूप में विख्यात थे। उनके पिता हमेशा चायना कार्ड या चायना सिल्क के सूट पहनते थे। बोस्की की रेशमी शर्ट में हीरे के बटन लगते और हीरे की ही अंगूठी पहनते। उनके घर में रोल्स रॉयस गाड़ी के अलावा कई सुंदर घोड़ागाड़ियां भी थीं। घोड़ा गाड़ियों के घोड़े ऑस्ट्रेलिया से जहाज द्वारा आए थे। रोल्स रॉयस गाड़ी का बोनट असली चांदी का था और उसकी एलमुनियम की पूरी बॉडी पर चांदी का मुलम्मा चढ़ा था।

उनके नाना भी बहुत बड़े आदमी थे। मुंबई की प्रसिद्ध शांताराम की चाल के मालिक उनके नाना श्री सुकथनकर जी थे। यह चाल इतनी बड़ी थी कि यहां पंडित मोतीलाल नेहरू, देशबंधु चितरंजन दास, लाला लाजपत राय वल्लभभाई पटेल और विट्ठल भाई पटेल जैसे ओजस्वी नेताओं के भाषण वहां हुआ करते थे। दुर्गा जी कैथेड्रल हाई स्कूल में पढ़ती थी जिसमें गैर क्रिश्चियन लड़कियों का एक निश्चित कोटा रहता था। स्कूल का सारा माहौल अंग्रेजी था और शिक्षा पद्धति यूरोपीयन। सारे शिक्षक कैंब्रिज या ऑक्सफोर्ड से डिग्रियां प्राप्त थे और स्कूल स्कॉटिश मिशन के पैसों से चलता था। यहां का अनुशासन बहुत ही कठोर था और इसे ब्रिटेन के पब्लिक स्कूलों की शैली पर चलाया जाता था। वह अपनी क्लास की प्रिफेक्ट बनी और बास्केटबॉल टीम की कप्तान भी चुनी गईं। कैथेड्रल स्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ाई करने लगी। यहां उन्हें नाटकों का शौक लगा। उन्होंने कई नाटकों में काम किया और कई का निर्देशन भी किया।

इसी दौरान उनकी शादी एक और अन्य बड़े घराने खोटे घराने में कर दी गई। 19 जून 1930 को जब उनका विवाह हुआ तो उनकी आयु मात्र 17 वर्ष की थी। यह एक सोसाइटी मैरिज थी जिस पर अखबारों में कॉलम लिखे गए थे। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, हाई कोर्ट के जज, बैरिस्टर, बड़े-बड़े व्यापारी, कार्प्रेटर सहित असंख्य गणमान्य लोग इस विवाह समारोह में उपस्थित हुए थे। लेकिन शादी के 3 साल के भीतर ही खोटे परिवार का कारोबार कब डूब गया किसी को पता ही नहीं चला। इस बीच में दुर्गा खोटे एक बेटे की मां भी बन चुकी थीं। अंत में हालात इतने खराब हुए कि उन्हें अपना सब कुछ यानी अपना घर तक खाली करना पड़ा और अपने पिता के पास जाकर रहना पड़ा। वह अपने पिता से अन्य कोई सहायता नहीं लेना चाहती थी इसलिए खुद ही काम करने लगी। उनके पति को एक छोटी नौकरी मिली लेकिन उससे गुजारा संभव नहीं था। वह ट्यूशन पढ़ाने लगीं।

1930 के प्रारंभ में एक दिन प्रख्यात फिल्म निर्माता निर्देशक वाडिया अचानक उनकी बड़ी बहन शालू दीदी से मिलने आए। वे कॉलेज में उनके मित्र थे। इन दिनों वे मोहन भवनानी के साथ एक मूक फिल्म तैयार कर रहे थे। फिल्म लगभग पूरी हो चुकी थी। परंतु इसी समय बोलती फिल्मों का दौर आ गया था। अतः इस नई लहर को देखते हुए उन्होंने अपनी मूक फिल्म में 10 मिनट का एक सवाक अंश जोड़ने का निश्चय लिया जिससे ज्यादा पैसा कमाया जा सके। इस मूक फिल्म में श्रीमती मीनाक्षी भवनानी ने भी किया था । परंतु न उन्हें हिंदी आती थी न गायन। इसलिए 10 मिनट के सवाक हिस्से के लिए श्री भवनानी को किसी अन्य अभिनेत्री की तलाश थी। वह किसी अच्छे खानदान की महिला को ढूंढ रहे थे क्योंकि उस जमाने में कोई कुलीन या खानदानी स्त्री फिल्मों में काम करे यह लगभग असंभव था। काफी सोच विचार के बाद मिस्टर वाडिया और मिस्टर भवनानी ने अपनी पूर्व परिचित संभ्रांत महिला शालू दीदी से संपर्क किया। दीदी ने उन्हें तुरंत इनकार कर दिया, परंतु काफी आग्रह करने पर कहा ,”मुझसे एक छोटी बहन नाटकों के पीछे बहुत पागल रहती है उससे पूछ कर देखिए।” तब श्री वाडिया दुर्गा खोटे के पास पहुंचे तो उन्होंने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें काम की तलाश थी हालांकि वह फिल्म के बारे में कुछ भी नहीं जानती थीं। श्री वाडिया ने बताया कि उन्हें एक छोटे से करुण दृश्य में अभिनय करना है और एक छोटा-सा गीत भी गाना है। दो रातों की शूटिंग है और इसे कैनेडी ब्रिज पर स्थित इंपीरियल स्टूडियो में शूट किया जाना है। दो दिन के काम के लिए उन्हें ₹250 का चेक मिला जो अच्छी खासी रकम थी।

इस फिल्म का नाम “फरेबी जाल” था जिसका मतलब छलकपट का मायाजाल होता है और ऐसा ही कुछ दुर्गा खोटे के साथ हुआ। दरअसल उनका रोल तो केवल 10 मिनट का ही था लेकिन इसे फिल्म के किस हिस्से में कहां और कैसे लगाया जाएगा यह उनको कुछ नहीं बताया गया था। ख़ुद दुर्गा खोटे को न इन बातों की समझ थी न मालूम था। श्रीमती भवनानी इस फिल्म की नायिका थीं। उन्हें उनकी बड़ी बहन का रोल दिया गया था जिसका पति शराब के नशे में उन्हें बहुत मारता है और उसी में मेरी मौत हो जाती है। छोटी बहन डर कर घर से भाग जाती है और एक वेश्या के घर में आश्रय लेती है। वेश्या के घर की कहानी होने के कारण इस फिल्म में महिलाओं का धूम्रपान,अश्लील प्रणय दृश्य और अनेक माल मसाला डाला गया था। दो महीने बाद फिल्म के रिलीज होते ही दुर्गा खोटे भी फरेबी जाल में फंस गईं। भवनानी ने अपनी चालाक व्यवसाय बुद्धि से काम लेते हुए और उनके दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा का पूरा फायदा उठाते हुए इस फिल्म के पोस्टरों में लिखा – सुप्रसिद्ध सॉलीसिटर लाड की कन्या तथा विख्यात खोटे खानदान की बहू का सिनेमा सृष्टि में पदार्पण! यह फिल्म महाराष्ट्रीय बस्ती के मैजेस्टिक सिनेमा घर में लगी थी। यह फिल्म सभी अर्थों में अत्यंत घटिया फिल्म थी इसीलिए एक बड़े अखबार ने लिखा – दुर्गाबाई के खोटे (झूठे) लाड़ लड़ाए गए। हाल यह हुआ कि उन्हें घर से निकलना या गिरगांव में कहीं जाना मुश्किल हो गया। लाड परिवार यानी उनका खुद का परिवार और खोटे परिवार भी उनकी जान की दुश्मन बन गए। सबका मानना था कि उन्होंने दोनों खानदानों के नाम पर कलंक लगाया है। केवल उनके पिता ने उनका साथ यह कहकर दिया कि फिल्म भले ही बेकार है परंतु तुमने स्त्रियों को आजीविका कमाने का एक मार्ग दिखाया है।

चलते-चलते

अपनी पढ़ाई के दौरान दुर्गा खोटे ने पढ़ाई छोड़कर देश सेवा का निर्णय ले लिया था। यह 1919- 1920 की बात है। एक दिन क्लास टीचर और हेडमिस्ट्रेस के सामने उन्होंने हिम्मत करके कह ही दिया मैं स्कूल छोड़कर देश सेवा करूंगी। तब माता-पिता और कॉलेज की शिक्षिकाओं द्वारा समझाने के बाद वह किसी तरह मानी। सभी ने उन्हें समझाया कि पढ़ाई छोड़कर तुम देश की सेवा कैसे कर पाओगी? दरअसल अपने नाना के यहां उन्होंने कई राष्ट्रीय नेताओं के ओजस्वी भाषण सुने थे और वहां के जनमानस या आम आदमियों की भीड़ देखकर उन्होंने भी देश सेवा करने के बारे में सोचा था। यह अलग बात है कि उस समय देशभक्ति का मतलब प्रभात फेरियां निकालना, देशभक्ति के नारे लगाना और खादी की साड़ी पहनना भर था।

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