अलीगढ़: उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के माइनॉरिटी स्टेटस पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। इस मामले में केंद्र सरकार की ओर से बहस में साफ किया गया है कि विश्वविद्यालय की स्थापना अल्पसंख्यकों ने नहीं की है। विश्वविद्यालय का प्रशासनिक अधिकार भी अल्पसंख्यकों के पास नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील में कहा है कि कोर्ट को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को सामाजिक न्याय और बराबरी के आधार पर परखना चाहिए। वहीं, वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के इस प्रस्ताव का खंडन करने के लिए इतिहास के कई प्रसंगों का हवाला दिया। प्रस्ताव यह है कि अगर मुसलमानों को 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पीछे की ताकत माना जाता है, तो यह संविधान के बाद के युग में अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य हो सकता है। सीनियर वकील ने कहा कि उस समय मुसलमानों ने खुद को कभी भी अल्पसंख्यक नहीं बल्कि एक राष्ट्र माना।
एएमयू का नहीं था माइनॉरिटी स्टेटस
इलाहाबाद हाई कोर्ट में एएमयू में मुसलमानों को 50 फीसदी आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिका दायर कर जीत दर्ज करने वाले वाले वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि ब्रिटिश शासन के दौरान एक अवधारणा के रूप में ‘अल्पसंख्यक’ अस्तित्व में नहीं था। सीजेआई सहित सात जस्टिस की पीठ के लिए यह एक बड़ा मसला होगा। सात जजों की पीठ में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के साथ- साथ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश सी शर्मा शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ एएमयू को एक अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में वर्णित किए जाने के मसले पर सुनवाई कर रही है। वकील का कहना है कि एएमयू को न तो अल्पसंख्यकों की ओर से स्थापित किया गया था और न ही मुसलमानों की ओर से प्रशासित किया गया था।
एएमयू अधिनियम में अल्पसंख्यक दर्जा
सीनियर एडवोकेट ने कहा कि इतिहास से पता चलता है कि जब 1920 में एएमयू अधिनियम पारित किया गया था। उस समय मुसलमानों ने न तो खुद को अल्पसंख्यक माना था और न ही ब्रिटिश भारत सरकार ने उन्हें संप्रदाय के आधार पर वर्गीकृत किया था। 100 से अधिक वर्षों के बाद एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में इसकी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाएगी। खासकर तब जब एएमयू ने 40 वर्षों से अधिक समय तक सुप्रीम कोर्ट के 1967 के अजीज बाशा फैसले को चुनौती नहीं देने का फैसला किया।
इस फैसले में इसे गैर- अल्पसंख्यक संस्था घोषित कर दिया था। उन्होंने कहा कि सर सैयद अहमद खान ने मुहम्मदन एंग्लो- ओरिएंटल (एमएओ) कॉलेज की स्थापना की थी। इसकी नींव लॉर्ड लिटन ने रखी थी। सर सैयद अहमद खान मुसलमानों को एक अलग और विशिष्ट राष्ट्र मानते थे, जिसने कभी भारत पर शासन किया था।
टू नेशन थ्योरी के समर्थक थे खान
सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को केवल इसलिए अल्पसंख्यक नहीं माना क्योंकि वे संख्या में हिंदुओं से कम थे। सर सैयद अहमद खान को टू-नेशन थ्योरी का जनक माना जाता है। इसे बाद में कवि अल्लामा इकबाल ने 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग सत्र में समर्थन दिया था। इसे मोहम्मद अली जिन्ना की ओर से 1940 के लाहौर प्रस्ताव को आधार बनाया गया था। यह टू नेशन थ्योरी है, जिसमें हिंदू भारत और मुस्लिम भारत के बीच समानता के दावे पर जोर दिया गया। इसके कारण विभाजन हुआ और पाकिस्तान का निर्माण हुआ। उन्होंने कहा कि टू नेशन थ्योरी अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा उपायों के सिद्धांत को समायोजित न किया जाए।