बांग्लादेश में आरक्षण को खत्म करने की मांग से शुरू हुआ आंदोलन इस मोड़ पर पहुंच गया है कि वहां शेख हसीना की सरकार सत्ता से बाहर हो गई और शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा। अब स्थिति ये है कि बांग्लादेश में कानून व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त है। बांग्लादेश में उपद्रवी बिना किसी डर के अवामी लीग के नेताओं और विभिन्न प्रतिष्ठानों को निशाना बना रहे हैं। इस पूरे बवाल के बीच रजाकार नामक शब्द की बहुत चर्चा है।
आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों में रजाकारों के समर्थन में खूब नारे लगे। दरअसल शेख हसीना ने अपने एक बयान में आरक्षण के विरोध में जारी हिंसक प्रदर्शनों पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि ‘बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के परिजनों को आरक्षण नहीं मिलेगा तो क्या रजाकार के पोते-पोतियों को आरक्षण का लाभ मिलेगा?’ शेख हसीना ने ये भी कहा कि ‘जो लोग आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों या उनके रिश्तेदारों को मिलने वाले आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, वो रजाकार हैं।’ शायद शेख हसीना को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि प्रदर्शनकारियों को रजाकार कह देने से विरोध प्रदर्शन इतने हिंसक हो जाएंगे कि पूरा बांग्लादेश सुलग उठेगा। शेख हसीना के इस बयान से लोग इतना नाराज हो गए कि विरोध प्रदर्शन के दौरान ‘मैं कौन, तुम कौन, रजाकार…रजाकार’ जैसे नारे लगने लगे। एक समय बांग्लादेश में गलत समझे जाने वाले रजाकार आज बांग्लादेश में चर्चित नाम बन गए हैं। तो आइए जानते हैं कि कौन थे रजाकार और बांग्लादेश के इतिहास में क्या थी उनकी भूमिका-
कौन थे रजाकार?
साल 1971 में जब बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में रजाकार नाम की एक क्रूर सेना पाकिस्तान द्वारा गठित की गई थी। रजाकार शब्द का अर्थ हिंदी में ‘सहायक’ होता है। रजाकार पाकिस्तान समर्थक थे और पाकिस्तान की सेना के साथ रजाकारों ने विद्रोह को दबाने की कोशिश की थी। रजाकारों ने पाकिस्तानी सेना के जासूसों के तौर पर भी काम किया। इस दौरान रजाकारों ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान बांग्लादेश के नागरिकों पर खूब जुल्म किए। यही वजह है कि बांग्लादेश में रजाकार को अपमानजनक शब्द माना जाता था और बांग्लादेश में देशद्रोही और हिंसक प्रवृत्ति के लोगों के लिए रजाकार शब्द का इस्तेमाल कर उन्हें अपमानित किया जाता था।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 1971 के बांग्लादेश की आजादी के युद्ध में रजाकार एक सशस्त्र बल था, जिसमें पाकिस्तान समर्थित बंगाली और बिहारी मुसलमान थे। इस बल का गठन पाकिस्तान के जनरल टिक्का खान ने गठन किया था। पाकिस्तान की सेना ने जब बांग्लादेशियों पर जुल्म ढहाए तो ऐसा कहा जाता है कि रजाकारों ने भी पाकिस्तान की सेना का साथ दिया था।
रजाकारों में ऊर्दू बोलने वाले बिहारी मुस्लिमों को संख्या ज्यादा थी और जमात ए इस्लामी, अल बद्र और अल शम्स जैसे संगठन रजाकारों के संगठन माने जाते हैं। साल 2019 में बांग्लादेश की सरकार ने 10,789 रजाकारों के नाम प्रकाशित किए थे, जिन्होंने बांग्लादेश की लड़ाई के दौरान पाकिस्तान का साथ दिया था। जमात ए इस्लामी के नेता एकेएम यूसुफ, जिसे रजाकार फोर्स का संस्थापक भी माना जाता है, उसे साल 2013 में मानवता के खिलाफ अपराध मामले में गिरफ्तार किया गया था और साल 2014 को हिरासत में ही दिल का दौरा पड़ने से उसकी मौत हो गई थी।
बांग्लादेश में आरक्षण के विरोध में शुरू हुई थी हिंसा
बांग्लादेश में आरक्षण के विरोध में हिंसा की शुरुआत हुई थी। बता दें कि बांग्लादेश में आरक्षण व्यवस्था के तहत 30 प्रतिशत आरक्षण उन लोगों के परिजनों और नाते-रिश्तेदारों को मिला हुआ था, जिन्होंने बांग्लादेश की आजादी के लिए और रजाकारों और पाकिस्तान की सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। वहीं 10 प्रतिशत आरक्षण पिछड़े जिलों, 10 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं और 5 प्रतिशत धार्मिक अल्पसंख्यकों और एक प्रतिशत आरक्षण दिव्यांगों को मिला हुआ था। इस तरह बांग्लादेश में कुल 56 प्रतिशत आरक्षण था। इसी आरक्षण खासकर स्वतंत्रता सेनानियों के सदस्यों के परिजनों को मिले आरक्षण के खिलाफ लोगों में गुस्सा था। इसी के विरोध में बांग्लादेश में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। पहले विश्वविद्यालों में शुरू हुआ आरक्षण का विरोध सड़कों तक पहुंच गया और आखिरकार शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा।