गोरखपुर। अपने नाम के आगे ‘गोरखपुरी’ लगाकर रघुपति सहाय ‘फिराक’ ने गोरखपुर को पूरी दुनिया में मशहूर तो कर दिया, पर जब राजनीति में उतरकर यहां के लोगों से बदले में वोट मांगा तो उन्हें नाकामी हाथ लगी। वह केवल चुनाव हारे ही नहीं, बल्कि जमानत भी जब्त हो गई। राजनीति की शुरुआत में जब उन्हें बुरी तरह असफलता मिली तो उन्होंने यह कहते हुए इससे तौबा कर लिया कि राजनीति उन जैसे पढ़े-लिखे लोगों का शगल नहीं।
फिराक वर्ष 1951 के लोकसभा चुनाव में आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी से रिश्तेदार और स्वाधीनता संग्राम सेनानी प्रो.शिब्बन लाल सक्सेना की सलाह पर गोरखपुर दक्षिण सीट से चुनाव मैदान में उतरे। उनकी मुख्य लड़ाई तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ और सिंहासन सिंह से थी। महंत जी हिंदू महासभा से चुनाव मैदान में थे, जबकि सिंहासन सिंह कांग्रेस से।
चुनाव में सिंहासन सिंह को जीत मिली और महंत जी दूसरे स्थान पर रहे। फिराक जीत के आसपास भी नजर नहीं आए। उन्हें मात्र 9.16 (9586) प्रतिशत मत मिले और जमानत जब्त हो गई। आकाशवाणी गोरखपुर में दिए एक साक्षात्कार में फिराक ने खुद इस चुनाव से मिले अनुभवों की चर्चा की थी।
उन्हें सबसे बड़ा मलाल इस बात का था कि पंडित जवाहर लाल नेहरू की कांग्रेस के खिलाफ उन्हें चुनाव लड़ाया गया। इसके लिए उन्होंने शिब्बन लाल सक्सेना को भी बुरा-भला कहा था, क्योंकि सक्सेना ने ही उन्हें चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया था। ऐसा इसलिए कि फिराक के पंडित नेहरू से काफी गहरे पारिवारिक संबंध थे। वह चिंता में थे कि हरू का सामना कैसे करेंगे।
अलग ही था चुनाव प्रचार का अंदाज
अदब की दुनिया में फिराक अपने अशआर ही नहीं बेलौस और अलमस्त अंदाज के चलते मशहूर रहे। चुनाव के दौरान उनका यही अंदाज कायम रहा। आकाशवाणी के पूर्व कार्यक्रम अधिशासी रवीन्द्र श्रीवास्तव ‘जुगानी’ चुनाव से जुड़े कुछ रोचक किस्से बताते हैं, जिससे इस बात की पुष्टि होती है। वह बताते हैं कि चुनाव प्रचार के लिए एक बस ली गयी थी। यह बस नजीर भाई की थी, जो भाड़े पर गोला से गोरखपुर के बीच चलाते थे।
बस के आधे हिस्से में फिराक साहब का कार्यालय था और आधे में पर्चा, बैनर और झंडा आदि चुनाव प्रचार सामग्री रखी जाती थी। बस जहां तक जाती थी फिराक वहीं तक चुनाव प्रचार करते थे। चुनाव की अति व्यस्तता के बीच उनकी खास नियमित दिनचर्या में कोई फर्क नहीं आया। फिराक के भाषण भी अन्य प्रत्याशियों से अलग हुआ करते थे। वह सिर्फ राजनीति पर ही चर्चा नहीं करते थे बल्कि साहित्य व संस्कृति के विषयों पर भी घंटों बोलते थे।
सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित किताब ‘फिराक
सदी की आवाज’ में चुनाव के बाद फिराक और नेहरू की एक मुलाकात का जिक्र है, जिसमें वह हार के चलते नेहरू का सामना करते समय झेंप गए थे। किताब के मुताबिक हुआ यूं कि चुनावी हार के बाद फिराक, नेहरू से दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान मिले तो नेहरू ने उनसे पूछा ‘कैसे हैं सहाय साहब?’ इस पर फिराक गोरखपुरी ने झेंपते हुए जवाब दिया ‘अब कहां सहाय, अब तो बस हाय रह गया है।’