मुसाफिर खाना अमेठी। में गौरैया दिवस मनाया गया राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुसाफिर खाना में वन क्षेत्राधिकारी संतोष कुमार श्रीवास्तव ने गौरैया के संरक्षण को लेकर स्कूल के अध्यापकों और विधार्थियों के बीच अपने विचार व्यक्त किये उन्होंने कहा कि एक दौर था जब अपनी चहचहाट से घरों का सन्नाटा तोड़ने वाली प्यारी सी नन्हीं गौरैया घर-आंगन में चहकते हुए सहज ही देखी जा सकती थी। उस दौर में शायद ही कोई घर-आंगन ऐसा होगा जहां गौरैया की चीं चीं-चूं चूं की मधुर आवाज न गूंजती हो। बरसात में घर के आंगन में एकत्र पानी में किलोल करता गौरैया का झुंड। रसोई की खिड़की पर लटकते हुए अंदर की तरफ झांकती गौरैया। उस दौर के ऐसे दृश्य मन को सहज ही प्रफुल्लित कर देते थे। माँ का चावल चुनना और दाना पाने की आस में उनके इर्दगिर्द मंडराती गौरैया और माँ का मंद सा मुस्कुराते हुए उसके लिए कुछ दाने आँगन में बिखेर देना…छोटे बच्चों का नन्हीं गौरैया को पकड़ने दौड़ना… तथा दीवार पर लगे आईने पर अपनी हमशक्ल देख गौरैया का चोंच मारना…तमाम ऐसे दृश्य हमारी स्मृतियों आज भी जीवित हैं।
कृषक पिता बताते थे कि कई बार तो जब वे दोपहर में खाना खाने बैठते थे तो गौरैया सामने आकर चूं चूं करके अपना हिस्सा मांगना शुरू कर देती थी और उन्हें अपनी थाली से चावल निकालकर उन्हें देना पड़ता था और वह पूरी निर्भयता से उन चावलों को चुगकर फुर्र हो जाती थी। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि उनका खाना न निकालने पर वे फुदकते हुए थाली के पास आ गयीं और थाली से चावल चुग कर उड़ गयीं। यह वाकया बताता है कि पेड़ व पाखी के बीच रचा-बसा उस दौर का मानव जीवन कितना सहज व सरल हुआ करता था। यह घरेलू चिड़िया ज्यादातर हम मनुष्यों के आसपास ही रहना पसंद करती है। जमीन पर बिखरे अनाज के दाने, छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े इसके प्रिय भोजन हैं। यह घरों के रोशनदानों, बगीचों, दुछत्ती जैसी जगहों में अपने घोंसले बनाती है। पहले घरों के आंगन में, बाहर दरवाजे के पास अनाज सूखने के लिये फैलाये जाते थे, महिलायें भी आंगन में सूप से जो अनाज फटकती थीं, उससे गौरैया अपना आहार खोज कर पेट भर लेती थी। यही नहीं, पुराने समय में गांवों की महिलाएं जेठ तपती गर्मी में चिड़ियों के लिये पेड़ के नीचे हंड़िया गाड़ कर उसमें पानी भर देती थीं साथ ही डलिया में अनाज भी रख देती थीं।
लोकगीतों, लोककथाओं और आख्यानों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे ज्यादा मिलता है वह गौरैया ही है। घाघ-भड्डरी की कहावतों में तो इसके धूल-स्नान की क्रिया को प्रकृति और मौसम से जोड़ा गया है
“कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।”
यानि कि गौरैया जब धूल में स्नान करे तो यह मानना चाहिये कि बहुत तेज बारिश होने वाली है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो पर्यावरण को बेहतर बनाने में भी गौरैया बड़ा योगदान देती है। यह नन्ही सी चिड़िया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खाकर बीज बनने की प्रक्रिया को तेज करती है। एक-डेढ़ दशक पहले तक अधिकांश घरों के बच्चे गौरैयों का चहचहाना और फुदकना देखकर ऐसे खुश होते जैसे उन्हें कोई बड़ा गिफ्ट मिल गया हो, लेकिन आज न घरों में आँगन रहा और न ही गौरैयों ही चहचहाहट। आज के बच्चों की दुनिया वीडियोगेम और डोरेमोन जैसे कार्टून सीरियल में ही सिमट कर रह गयी है और अपनी मीठी आवाज से दिल को सुकून देने वाली गौरैया इंसानी बस्ती से दूर होती जा रही है। गांव-देहात में तो फिर भी गौरैया देखने को मिल जाती हैं लेकिन शहरों में इनकी संख्या तेजी से घट रही है। तेजी से बदलते परिवेश और शहरीकरण से इस प्यारे पक्षी को हमसे दूर कर दिया है। गौरैया के आंगन से दूर होने के पीछे सबसे बड़ा कारण पेड़ पौधों का कटना और हरियाली की कमी है। जलवायु परिवर्तन और गहराता प्रदूषण, कंक्रीट के जंगलों का बढ़ता फैलाव, खेतों में कीटनाशक का व्यापक प्रयोग, इंसानी जीवनशैली में बदलाव और मोबाइल फोन टावर से निकलने वाले रेडिएशन इस दूरी के प्रमुख कारण हैं। मोबाइल टॉवर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें गौरैया की प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं।
पशु-पक्षियों का संरक्षण हम सबकी जिम्मेदारी
बताते चलें कि गौरैया संरक्षण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम वर्ष 2010 में तब उठाया गया था जब ‘‘नेचर फॉरएवर सोसायटी’’ के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से पहली बार 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया गया था। बिहार सरकार ने गौरैया को राज्य पक्षी का दर्जा दिया गया है। इस अवसर पर
वन क्षेत्राधिकारी संतोष कुमार श्रीवास्तव वन क्षेत्राधिकारी मुसाफिर खाना, नागेश मौर्य प्रयाग प्रसाद गुप्ता, सचिन पांडे,ओम प्रकाश, रामेश्वर प्रसाद यादव सहित स्कूल के अध्यापकों ने गौरैया दिवस पर अपने विचार व्यक्त किए।