कांग्रेस के पंजे से राजस्थान तो निकला ही मध्य प्रदेश में भी वह हाथ मलते रह गई. 230 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी को 163 सीटें मिली हैं. कांग्रेस ये मानकर चल रही थी कि छत्तीसगढ़ में तो जीत पक्की है लेकिन मध्य प्रदेश में भी सरकार बनने वाली है.
बीजेपी की इस जीत का विश्लेषण हर एंगल हो रहा है और जिसमें नायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. दरअसल बीजेपी रणनीतिकारों को लग रहा था कि जनता शिवराज सिंह चौहान के पक्ष में नहीं है. राजनीतिक विश्लेषक और चुनाव में सर्वे करने वाली एजेंसियों को भी यही लग रहा था.
बीजेपी ने भी मौके की नजाकत देखते हुए चुनाव से पहले शिवराज सिंह चौहान को सीएम का चेहरा नहीं बनाया. पीएम मोदी ने तो बाकायदा रैलियों में भी कहा कि इस बार उम्मीदवार सिर्फ एक है वो है ‘कमल’ यानी पार्टी का चुनाव चिन्ह.
शिवराज के लिए पार्टी की ओर से संदेश साफ था. मध्य प्रदेश बीजेपी ने भी मान लिया था कि शिवराज की राजनीतिक पारी अब खत्म होने को है या फिर वो अब केंद्र में चले जाएंगे. अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि पार्टी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर चुनावी नारों में सिर्फ पीएम मोदी ही दिख रहे थे. पोस्टर-बैनर से भी शिवराज गायब हो चुके थे.
तो क्या शिवराज ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तरह बगावत कर दी या फिर मध्य प्रदेश में कमलनाथ की तरह सीएम की कुर्सी से लेकर प्रदेश अध्यक्ष के पद को बनाए रखने के लिए गुणा-गणित शुरू कर दिया.
दरअसल शिवराज सिंह चौहान ने एक लकीर खींच दी जो कांग्रेस एक मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के दावों से बहुत बड़ी थी. जिस समय पूरी बीजेपी अमित शाह की रणनीति और पीएम मोदी के साथ खड़ी हो गई, शिवराज ने भी खुद को सामान्य कार्यकर्ता माना और उसी उत्साह से प्रचार में जुट गए जिस तरह वह पहला चुनाव लड़े होंगे.
जिस समय टीवी के विश्लेषणों और अखबारों के लेखों में नेपथ्य में धकले दिया गया था, सीएम शिवराज उसी समय चुनाव जीतने का प्लान बना रहे थे. जिस समय बीजेपी के उम्मीदवारों की लिस्ट जारी होने तक शिवराज का नाम नहीं था. लेकिन शिवराज पीछे नहीं हटे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पार्टी की हर रणनीति और फैसले को स्वीकार कर रहे थे. शिवराज ने कभी नहीं कहा कि उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से अहम कोई पद नहीं है. चुनाव के नतीजे आने के बाद जब माना जा रहा था कि इस जीत में लाडली बहना योजना गेमचेंजर साबित हुई है तो भी उन्होंने अपने लिए कोई दावा नहीं किया है.
(शिवराज सिंह चौहान की लाडली योजना गेमचेंजर साबित हुई)
अब इसके उलट उनके प्रतिद्वंदी कमलनाथ की भी रणनीति पर नजर डालें तो ऐसा साफ दिख रहा था कि बीजेपी को हराने के लिए, मुख्यमंत्री पद को पाने के लिए चुनाव लड़ रही है. मंच पर कांग्रेस नेताओं के बीच रस्सकशी साफ दिख रही थी. मीडिया में आई खबरों की मानें तो कांग्रेस की ओर से औपचारिक घोषणा के पहले ही छिंदवाड़ा में कमलनाथ के बेटे प्रत्याशियों का ऐलान कर चुके थे.
मध्य प्रदेश के राजनीतिक हलकों की खबरों की मानें तो कमलनाथ चुनाव अभियान को कारपोरेट की तरीके से चला रहे थे. उनका रवैया अड़ियल था. आलाकमान की बातों को भी तवज्जो नहीं दे रहे थे इतना ही नहीं दिग्विजय सिंह के अलावा वो और किसी को ज्यादा भाव नहीं दे रहे थे. उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार को खुद पर केंद्रित कर दिया था.
(कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह)
वहीं केंद्र जब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर इंडिया गठबंधन की रणनीति बना रही थी तो उसी समय कमलनाथ ने अखिलेश के लिए कुछ ऐसी बात बोल दी जिससे राज्य में पार्टी के साथ चल रही बातचीत पटरी से उतर गई. इसके पीछे कमलनाथ का अतिआत्मविश्वास था. सपा ने 74 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए.
अब बात करते हैं कि कांग्रेस के दूसरे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तो शिवराज से इतर उन्होंने पार्टी आलाकमान के हर फैसले को बीते एक साल से चुनौती देते रहे हैं. सचिन पायलट के साथ टकराव का नतीजा इस बार ये रहा है कि गुर्जर वोट कांग्रेस से दूर चला गया. दूसरी ओर मध्य प्रदेश में सीएम पद के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम की हवा चलने के बाद भी शिवराज ने कभी कोई ऐसा बयान नहीं दिया जिससे पार्टी को असहज स्थिति का सामना करने पड़े.
शिवराज हालांकि बड़ी चालाकी से जनता से सीधा संवाद करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे थे. मुख्यमंत्री पद के लिए जब उनका पत्ता कटने की बातें कही जा रही थीं तो उस समय शिवराज सिहोर की रैली में जनता से पूछ रहे थे कि मुझे चुनाव लड़ना चाहिए. इतना ही नहीं शिवराज ने एक रैली में ये लाडली बहना योजना का जिक्र करते हुए भावनात्मक अपील करते हुए कहा, ‘ऐसा भैया मिलेगा नहीं, चला जाऊंगा तो बहुत याद आऊंगा’.
अब लगभग साल पहले राजस्थान के घटनाक्रम पर नजर डालें तो याद आती हैं वो तस्वीरें जब मुख्यमंत्री पद को छोड़ने के आदेश पर सीएम अशोक गहलोत ने कांग्रेस आलाकमान के इकबाल को एक झटके में खत्म कर दिया था. दरअसल कांग्रेस चुनाव से पहले सचिन पायलट को सीएम बनाना चाहती थी ताकि वहां खेमेबाजी को खत्म किया जा सके. इसके लिए अशोक गहलोत को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद का ऑफर दिया गया था. लेकिन जादूगर नाम से भी मशहूर अशोक गहलोत ने साफ कह दिया कि उनके लिए सीएम की कुर्सी से ज्यादा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है. उनके समर्थक विधायकों ने बगावत कर दी.
(रैली के दौरान सीएम अशोक गहलोत, राहुल गांधी और सचिन पायलट)
एक समय तो ऐसा लगा कि राजस्थान में सरकार गिर जाएगी. दिल्ली में कांग्रेस के नेता गहलोत के इस फैसले से हैरान थे. दरअसल अशोक गहलोत गांधी परिवार के सबसे निकट हैं. कोई सोच भी नहीं सकता था कि कुर्सी के लिए गहलोत गांधी परिवार से भी विद्रोह कर डालेंगे. पार्टी अशोक गहलोत के सामने झुक गई. सचिन पायलट को एक बार फिर आश्वासन दिया गया. हालांकि बीजेपी में शामिल होने की खबरों के बीच उन्होंने इस बात से इनकार किया.
सचिन पायलट और अशोक गहलोत को साथ लाने की कोशिशें की गईं. दोनों की आपस में बातचीत करते तस्वीरें भी आईं लेकिन वोटर सब समझ रहे थे खासकर गुर्जर. 3 दिसंबर को फैसला आ चुका है. शिवराज सिंह चौहान सीएम बनें या न बनें लेकिन उनकी सहजता ने कमलनाथ और अशोक गहलोत दोनों को हरा दिया.