नई दिल्ली। चुनाव आते हैं, चुनाव जाते हैं, कोई जीतता है कोई हारता है, लेकिन इन चुनाव नतीजों में ख़ास बात क्या है? पिछली बार बीजेपी एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान सब जगह हारी. लेकिन इस बार तीनों जगह जीती. 2014 के बाद पहला राज्यों का चुनाव है, जहां बीजेपी को ऐसी जीत मिली है. यूपी, गुजरात छोड़कर सब हारी या हारते-हारते बची. तो इस बार अलग क्या हुआ? 2023 के चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि देश की राजनीति में बहुत बड़ा शिफ्ट हुआ है. इस बदलाव को आप इस चुनाव नतीजों का पंचतत्व कह सकते हैं. ये पंच तत्व भारत की राजनीति पर दूरगामी असर डालेंगे.
पंच तत्व क्या हैं
बीजेपी हर दिन कोशिश करती है कि मोदी नाम को एक ब्रांड बना दें. ऐसा लगता है कि जो काम अब तक वर्क इन प्रोगेस था, वो अब मुकम्मल हो गया है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ तीनों राज्य, इसके उदाहरण हैं. राज्य के चुनावों में मोदी का नाम चला और जोरदार चला. इसी नाम के भरोसे एमपी में बीजेपी एंटी इनकमबेंसी का काट निकालने में कामयाब रही. बघेल के हारने का अंदाजा किसी को नहीं था. छत्तीसगढ़ में बघेल पांच साल चुनाव मोड में थे, इतनी सारी योजनाएं लेकर आए, लगातार राज्य में खुद घूम रहे थे, चुनावों के ऐलान से पहले से ही घूम रहे थे. रमन सिंह चुनाव कैंपेन में बड़ी हेडलाइन नहीं बना पाए, वहां भी चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया. राजस्थान में बीजेपी की हालत सबको पता थी, लेकिन वहां भी मोदी के नाम पर बीजेपी की नैया पार लग गई. इस लिहाज से अब कोई चुनाव लोकल नहीं है, सबकुछ नेशनल है.
चुनाव लोकल नहीं, नेशनल है
देश की राजनीति के लिए बड़ी बात ये है कि अब लोकल में भी मोदी का नाम वोकल है. 2024 की जंग के लिहाज से बीजेपी के लिए ये बड़ी बात इसलिए है क्योंकि जब भी आप चुनाव मोदी बनाम कोई और कराएंगे तो मोदी भारी पड़ेंगे.
चुनाव नतीज़ों में ‘शाह तत्व’
अमित शाह को ऐसे ही चुनावी चाणक्य नहीं कहा जाता. पिछले कुछ चुनावों से बीजेपी एंटी इनकमबेंसी का उपाय कामयाबी से निकालती आई है. उत्तराखंड देखिए, गुजरात देखिए. वहां सीएम बदले. एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने सीएम चेहरे का ऐलान ही नहीं किया. एमपी में एंटी इनकमबेंसी का डर था तो केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा. कुल 18 सासंद उतारे. कहा जा रहा था कि ये बीजेपी की कमजोरी है लेकिन ये ताकत साबित हुई. वैसे भी जब युद्ध हो तो अपने सारे हथियार कोई क्यों न उतारें. अंत में मायने रखती है जीत, तो सारी ताकत क्यों न झोंकी जाए.
चुनाव लोकल, नेता नेशनल
राजस्थान में जब लगा कि वसुंधरा ही सबसे सुरक्षित दांव हैं तो बीजेपी ने उन्हें तरजीह दी. उनके खेमे के उम्मीदवार उतारे. चुनाव आने से पहले सतीश पुनिया को अध्यक्ष पद से हटाकर वसुंधरा को आश्वस्त किया. लेकिन इतनी गफलत बना कर रखी कि कोई और नाराज न हो. कोई ताज्जुब नहीं है कि सीएम के तौर पर ओम बिड़ला से लेकर गजेंद्र शेखावत तक का नाम उछला.
ध्रुवीकरण के बना चुनाव
ऐसा लगता है कि बीजेपी ने कास्ट सेंसस का तोड़ भी निकाल लिया है. इतनी बड़ी जीत बताती है कि दलित से लेकर ओबीसी तक बीजेपी के साथ चला गया है. चंबल बेल्ट में बीजेपी की बड़ी कामयाबी भी यही बताती है. आदिवासी सीटों पर बीजेपी को मिली कामयाबी यही बताती है. चुनाव से तुरंत पहले आदिवासियों के लिए 24 हजार करोड़ रुपये का पैकेज काफी मददगार साबित हुआ है. आज आपको अचानक से द्रौपदी मुर्मू का नाम राष्ट्रपति के लिए सामने आ जाना जरूर याद आ रहा होगा.
जाति जनगणना का निकाला तोड़
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पांच साल सरकार चलाकर भी वोटर को नहीं समझा पाई कि वो कारगर है. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी एमपी में ये समझाने में कामयाब हुई है कि उसकी सरकार कारगर है. चुनाव नतीजे बताते हैं कि डबल इंजन की सरकार का जुमला सिर्फ सरकार चलाने में ही नहीं सरकार बनाने में भी कारगर है. बीजेपी की सरकारों को केंद्र का सहारा है. उधर कांग्रेस की सरकारें मैदान-ए-जंग में अकेली हैं. एमपी में बीजेपी के लिए लाडली बहना योजना काम करती है तो मोदी का भी सहारा है. राजस्थान में अगर बीजेपी में खटपट है तो केंद्रीय नेतृत्व संभाल लेता है. कांग्रेस में ऐसा नहीं है.
छत्तीसगढ़ के नतीजों को भी आप इस लिहाज से देख सकते हैं. सारे एक्जिट पोल बता रहे थे कि कांग्रेस जीत रही है लेकिन फिर बीजेपी का जीत जाना यही बताता है कि कहीं न कहीं लोगों को लगता है कि केंद्र और राज्य दोनों जगह एक पार्टी बेहतर है. वोटर मानता है कि केंद्र और राज्य में एक ही सरकार बेहतर है, इसका एक उदाहरण ये भी है कि कांग्रेस ने भी एक से एक योजनाओं का ऐलान किया लेकिन वोटर को यकीन हुआ बीजेपी की योजनाओं परश्तो कर्नाटक में कांग्रेस के लिए जो मुफ्त की राजनीति कारगर हुई थी, वो छत्तीसगढ़, राजस्थान और एमपी में फेल हो गई. और वैसे ही मुफ्त की योजनाओं को चलाने के लिए जितने संसाधन आज बीजेपी के पास हैं, उतने किसी और के पास नहीं. तो इस लिहाज से ये चुनाव कांग्रेस को तरकीबों के मामले में कंगाल करने वाले साबित हो सकते हैं.
2024 का सेमीफाइनल जीती बीजेपी
अगर ये 2024 का सेमिफाइनल है तो बीजेपी अच्छे अंतर से ये मैच जीती है. इन चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को और कमजोर कर दिया है. उसका दावा है कि इस अलायंस का लीडर उसे ही होना चाहिए. अब जब वो बीजेपी से आमने-सामने की लड़ाई में एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हार गई है तो इंडिया अलायंस की छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के इस दावे पर सवाल उठाएंगी.
इंडिया अलायंस में कांग्रेस का घटेगा कद
तेलंगाना में बीआरएस की कीमत पर कांग्रेस की जीत भी छोटी पार्टियों को परेशान करेगी. अगर ये आशंका बढ़ी तो इंडिया अलायंस के लिए बुरी खबर है. छोटी पार्टियां कांग्रेस पर ये भी सवाल उठाएंगी कि आप अपने अंदर के झगड़े को संभाल नहीं सकते तो बाकी को एकजुट कैसे करेंगे? तीनों राज्यों में कांग्रेस में कलह थी और इन तमाम झगड़ों को कांग्रेस की दिल्ली सल्तनत चुपचाप देखती रही. शुतुरमुर्ग की तरह खतरे से आंख चुराती रही.
इंडिया अलायंस किंकर्तव्यविमूढ़
एक तरह से ये इंडिया अलायंस के लिए किंकतर्व्यविमूढ़ वाली स्थिति है, क्योंकि कांग्रेस अगर अच्छी स्थिति में नहीं है तो NDA से मुकाबला कैसा और अगर कांग्रेस बड़ी होती है तो छोटी पार्टियों को अपने अस्तित्व का खतरा महसूस होगा. किंकतर्व्यविमूढ़ वाली स्थिति इसलिए भी है कि अब इंडिया अलायंस को फिर से रणनीति सोचनी होगी. कास्ट सेंसस काम नहीं कर रहा, एंटी मोदी प्रचार काउंटर प्रोडक्टिव साबित हो रहा है, मुफ्त की योजनाएं काम नहीं कर रहीं. कांग्रेस के बड़े नेता जिन मुद्दों पर दिल्ली में बैठकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते रहते हैं उनका ग्राउंड पर कोई असर नहीं दिखता. इससे पहले कि इंडिया अलायंस का मोमेंटम बनता, खेला खराब हो गया है.
बड़े नेताओं के मुद्दे बेमानी
2024 के चुनाव के लिए इंडिया अलायंस जहां से चला था वहीं आकर खड़ी हो गई है, शून्य पर. ऐसा लगता है कि विपक्ष मोदी के पिच पर बैटिंग करना चाह रहा है. वही तकरीरें कर रहा है जो नकार दी गई हैं. क्लीयर है कि विपक्ष का कोई नैरेटिव काम नहीं कर रहा, उसे 2024 के लिए कुछ और सोचना होगा. दिक्कत ये है कि कांग्रेस या इंडिया के पास ज्यादा समय नहीं है. दूसरी तरफ बीजेपी का गेम सेट नजर आ रहा है. ऐसा लगता है कि सियासत के शतरंज में दोनों तरफ से बीजेपी ही चाल चल रही है