नई दिल्ली । धरती से करीब पौने चार लाख किलोमीटर दूर चांद पर चंद्रयान-3 की सफल लैंडिंग के साथ भारत ने इतिहास रच दिया है। एक तरफ जहां इस अभियान की दुनिया भर के वैज्ञानिक और विकसित समुदाय के बीच हो रही है। वहीं, महज 615 करोड़ के मामूली खर्च पर इस महत्वाकांक्षी मिशन की सफलता भी भारत के कुछ लोगों को रास नहीं आ रही है। कुछ दिग्गज नीति निर्धारक इस मिशन को गैरजरूरी और फिजूल खर्ची बता रहे हैं। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल विपरीत है। चंद्रयान-3 मिशन की सफलता ने ना केवल भारत को अंतरिक्ष की दुनिया का सबसे बड़ा खिलाड़ी बनाया है। बल्कि इससे भविष्य में तकनीक के अभूतपूर्व संभावनाओं के द्वार भी खुले हैं।
जाने-माने विज्ञान लेखक विजय राज शर्मा बताते हैं कि चंद्रयान-3 मिशन ठीक उसी तरह से है जैसे हजारों साल पहले आदि मानवों ने पहाड़ों की खोह से निकल कर जिंदगी को दांव पर लगाते हुए नदियों व पहाड़ों को लांघने का साहस किया था। अगर ऐसा नहीं किया होता तो हम आज भी गुफाओं की ही खाक छान रहे होते। तब भी कुछ ऐसे लोग जरूर होंगे जो कह रहे होंगे कि गुफा के बाहर जाने की क्या जरूरत है? बाहर तो जान भी जा सकती है। लेकिन मानवता के हित में हमारे आदि पूर्वजों ने खोज धर्मिता को प्राथमिकता दी। यही मानवीय सभ्यता के विकास का रास्ता है।
विजय राज कहते हैं कि चांद पर खनिज और पानी की खोज कर रहे चंद्रयान की सफलता से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रिमोट सेंसिंग, रिमोट नेविगेशन, रिमोट माइनिंग, डिजिटल कंट्रोल्ड ड्राइविंग, हिट शिल्डिंग जैसे अनेक क्षेत्रों में अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति के द्वार खुलेंगे। इससे नई इंडस्ट्री जन्म लेंगी और रोजगार बढ़ेंगे। यह दूरदृष्टि की चीज है। विज्ञान हमेशा छोटे अभियानों से शुरू होता है और उसकी सफलता भविष्य के गहन रहस्य से पर्दा हटाने का रास्ता खोलता है।
उदाहरण देते हुए विजय कहते हैं, “किसी बल्व को लगातार गर्म करते रहें, तो एक वक्त ऐसा आयेगा, जब बल्व अल्ट्रा-वायलट रोशनी फेंकने लगेगा, अर्थात ऊर्जा खर्च होगी लेकिन दृश्य प्रकाश हासिल नहीं होगा। 19वीं शताब्दी के अंत में इस समस्या पर काम करते हुए मैक्स प्लांक सिर्फ यह जानना चाहते थे किस तापमान पर बल्व द्वारा अधिकतम दृश्य प्रकाश हासिल किया जा सकता है और इस खोज के दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रकाश ऊर्जा के पैकेट्स यानी क्वांटा में बंटा हुआ होता है। इस तरह एक लाइट बल्व की समस्या सुलझाते हुए मैक्स प्लांक ने उस क्वांटम विज्ञान की नींव रख दी जो आज हमारे आधुनिक विश्व में 99 फीसदी आविष्कारों के लिए सीधा उत्तरदायी है।”
उन्होंने कहा, “हजारों उदाहरण हैं जो विज्ञान की दुनिया के इस चलन को साबित करते हैं कि एक तकनीक जन्म लेते समय बेशक गैरजरूरी लगे, पर समय के साथ वह तकनीक 100 आविष्कारों को जन्म देकर मानवता की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है।”
केवल अपोलो मिशन के बाद दुनिया भर में हुए दो हजार से अधिक आविष्कार
अमेरिका के महत्वाकांक्षी अपोलो अभियान के बारे में बात करते हुए विजय राज कहते हैं कि अपोलो अभियान से पूर्व विश्व के सभी हवाई-जहाज वायर, केबल, पुल्ली और राड्स पर आधारित मेकेनिकल सिस्टम से उडाये जाते थे। अपोलो 11 में नासा ने पहली बार डिजिटल तकनीक पर आधारित “फ्लाई बाई वायर” सिस्टम को स्पेसशिप के कंट्रोल्स से जोड़ा और कुछ ही वर्षों में यह तकनीक विश्व के सभी विमानों में अपना ली गयी जिससे एक नयी इंडस्ट्री का जन्म भी हुआ और विमान उड़ाना सुगम और सुरक्षित भी हुआ। पिछली शताब्दी के साठवें दशक में अपोलो अभियानों ने नासा को सिर्फ स्पेस रेस ही नहीं जितवाई, बल्कि तब से लेकर अब तक अमेरिका में ब्रिथिंग अपारेटस, सोलर पावर, स्क्रैच रोधी ग्लास, कॉर्डलेस पावर, जल शुद्धीकरण आदि दो हजार से ज्यादा ऐसी खोजें हुईं, जिनकी तकनीक के तार मूल रूप से अपोलो अभियानों से जुड़े हुए थे। इन सभी खोजों की लिस्ट नासा की वेबसाइट पर देखी जा सकती है। इस तरह से चंद्रयान-3 की तकनीक भी भविष्य में कई नई खोज और इंडस्ट्री को जन्म देने वाली है।”
वर्तमान में विश्व के 27 देशों के साथ नासा 2025 तक चांद पर परमानेंट ह्यूमन स्टेशन बनाने के महत्वकांक्षी अभियान में जुटा है। इस अभियान के महत्त्व का अंदाजा आप इसी तरह लगा सकते हैं कि इस अभियान पर अमेरिका के आठ लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे।
चांद पर विरल खनिजों की खोज में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा चंद्रयान
विजय राज चांद पर चंद्रयान की सफल लैंडिंग से भविष्य के अंतरिक्ष मिशन को जोड़ते हुए कहते हैं, “इसरो का सबसे शक्तिशाली राकेट ‘एलएमवी 3” लूनर ट्रान्सफर ऑर्बिट में चार हजार किलो वजन पहुंचाने की क्षमता रखता है, पर उड़ान भरते समय इस राकेट का वजन 6.40 लाख किलो होता है। अर्थात, राकेट का 99 फीसदी द्रव्यमान ईंधन के रूप में सिर्फ और सिर्फ राकेट को पृथ्वी से बाहर निकालने में खर्च हो जाता है। यह समस्या विश्व के हर राकेट की है, जिस कारण एक स्पेस मिशन को भेजने में ईंधन, पैसे, संसाधन की भयंकर बर्बादी होती है। सौरमंडल की हदों को नापना है तो समाधान सिर्फ एक ही है कि हम चांद पर स्पेस स्टेशन बना कर वहीं से स्पेस मिशंस को अंजाम दें। बेहद कम गुरुत्व और हवा की अनुपस्थिति के कारण चांद से भेजे गये स्पेस मिशन की कीमत पृथ्वी की तुलना में नगण्य होगी।”
वह कहते हैं, “यही वो स्वप्न है जिसे साकार करने के लिए दुनिया भर की स्पेस एजेंसीज पैसा पानी की तरह बहा रही हैं क्योंकि हर कोई जानता है कि सुख, समृद्धि और दुनिया पर राज करने का रास्ता अंतरिक्ष से होकर गुजरता है। स्पेस में पायी जाने वाली उल्काओं में इतने दुर्लभ पदार्थ हैं कि एक उल्का का दोहन ही किसी को भी अमेरिका से लाखों गुना ज्यादा अमीर बना दे।”
खर्चे से ज्यादा कमाई कर चुका है इसरो
चंद्रयान अभियान में हुए खर्च को लेकर विजय राज कहते हैं, “आज हम विश्व के पहले राष्ट्र हैं जो यह पता लगाने वाला है कि चांद पर स्टेशन बनाने हेतु आवश्यक खनिज और पानी वहां है या नहीं। जिस जमीन पर स्टेशन बनाना है, वहां की भू-स्थिरता और सोलर रेडिएशन सुरक्षा मानकों पर ठीक है या नहीं। इस सबका खर्चा सिर्फ 600 करोड़ है, जो हमारे देश के कुल खर्च का 0.01 फीसदी भी नहीं।