“चुनावों में लगातार हार और पार्टी में बवाल, मायावती BSP का उद्धार कैसे करेंगी?”

बसपा की सियासी जमीन चुनाव दर चुनाव दरकती जा रही है. बसपा का राजनीतिक आधार लगातार खिसकता जा रहा है. कांशीराम ने दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाकर चार दशक पहले जिस बसपा का गठन किया था, उसने यूपी में चार बार सरकार बनाई, लेकिन मौजूदा समय में पार्टी के पास एक भी लोकसभा सांसद नहीं है और यूपी में सिर्फ एक विधायक है. ऐसे में बसपा के सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौतियों के बीच मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद और उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, जिसे लेकर सियासत गरमा गई है.

मायावती करीब 70 साल की हो गई हैं और पार्टी को एक नौजवान नेता चाहिए. ऐसे में मायावती ने आकाश आनंद को राजनीति में लाई थी, लेकिन जैसे ही उनकी पकड़ से बाहर निकले तो पार्टी से बाहर कर दिया. बसपा पिछले डेढ़ दशक में काफी कमजोर हुई है. पार्टी का जनाधार तेज़ी से गिरा है और अभी कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं कि बीएसपी अपना खोया जनाधार वापस पा लेगी. आकाश आनंद को बाहर करने के बाद मायावती किस तरह बसपा का सियासी उद्धार करेंगी.

बसपा का गिरता सियासी ग्राफ
2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने देशभर में 488 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. यूपी बीएसपी का गढ़ रहा है कि और यूपी में भी पार्टी ने 79 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का यही प्रदर्शन था. बीएसपी का राष्ट्रीय स्तर पर वोट शेयर गिरकर महज 2.04 प्रतिशत रह गया है. उत्तर प्रदेश में भी बीएसपी का वोट शेयर 9.39 फीसदी ही रह गया है.

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो बीएसपी को महज एक सीट पर जीत मिली थी. 2017 के विधानसभा चुनाव की तुलना में बीएसपी का वोट शेयर भी 22.23 प्रतिशत से गिरकर 12.88 प्रतिशत हो गया था. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 19 सीटों पर जीत मिली थी. ऐसे में बसपा ने जिस राज्य में चार बार सरकार बनाई, उस राज्य में बसपा का प्रदर्शन मौजूदा दौर में अपना दल (एस), ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से कम रहा है. मायावती बहुत ज्यादा जमीन पर सक्रिय नहीं है और न ही सड़कों पर उतरती हैं, ऐसे में बीएसपी के भविष्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं.

बसपा का क्या होगा?
बीएसपी के घटते जनाधार के बीच उसके भविष्य को लेकर सालों से गंभीर सवाल उठ रहे हैं. पार्टी लगातार गिरते जनाधार तो दोबारा से वापस पाने के लिए क्या करेगी? उत्तर प्रदेश में दलित वोटरों को अपने पाले में करने के लिए मुख्यधारा की पार्टियां तो कोशिश कर ही रही हैं, दूसरी तरफ चंद्रशेखर भी इस पर दावा कर रहे हैं. चंद्रशेखर आजाद से लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार दलित वोटों को साधने के लिए मशक्कत कर रहे हैं तो बीजेपी भी दलित समुदाय पर अपनी नजर गढ़ाए हुए है.

बीएसपी दलित युवाओं को अपने पक्ष में कैसे लाएगी. यह बड़ा सवाल है, क्योंकि दलितों का विश्वास लगातार मायावती खोती जा रही हैं. दलितों का एक बड़ा हिस्सा पार्टी से मोहभंग होकर चंद्रशेखर आजाद की और दूसरे दलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं. दलित मुद्दों को लेकर बसपा जमीनी स्तर पर बहुत ज्यादा सक्रिय नजर नहीं आ रही है. मायावती खामोश हैं तो चंद्रशेखर आक्रमक और सड़क पर संघर्ष कर रहे हैं. इसके चलते दलित युवाओं के बीच चंद्रशेखर अपनी जगह बनाने में जुटे हैं तो राहुल गांधी सामाजिक न्याय के नारे को बुलंद कर रहे हैं. कांग्रेस संविधान और आरक्षण को बचाने की लड़ाई लड़ने का दावा कर रही है,

राहुल गांधी दलित मुद्दों पर आक्रामक रुख तो अपनाते ही हैं और साथ ही सामाजिक स्तर पर जिस तरह से काम कर रहे हैं, उसके पीछे दलित वोटों को जोड़ने की रणनीति मानी जा रही है. अखिलेश यादव यूपी में तमाम दलित नेताओं को जोड़ रखा है. इतना ही नहीं सपा के सियासी मंचों पर बाबा साहेब की तस्वीर नजर आती है तो अखिलेश पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फार्मूले पर काम कर रहे हैं. बसपा के साथ लंबे समय से जुड़े रहे आरके चौधरी से लेकर इंद्रजीत सरोज, त्रिभवन दत्त, लालजी वर्मा और राम अचल राजभर जैसे तमाम नेता सपा की साइकिल पर सवार हैं.

मायावती कैसे जीतेंगी विश्वास?
क्या आकाश आनंद को बसपा से बाहर करने के बाद क्या मायावती खुद पार्टी में अधिक सक्रिय भूमिका निभाएंगी? यह पार्टी के हर व्यक्ति के मन में सवाल उठ रहा है, क्योंकि उन्होंने खुद को रैलियों और सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करने तक सीमित कर रखा है. अगर मायावती को कार्यकर्ताओं को प्रेरित करना है और आगामी चुनावी लड़ाई में उन्हें दिशा देनी है, तो बिना जमीन में उतरे संभव नहीं है. बसपा का दायरा लगातार सीमित होता जा रहा, जिसके चलते पार्टी के जीत का विश्वास लोगों के मन से खत्म होता जा रहा.ऐसे में मायावती को पार्टी को सक्रिय करने के साथ खुद जमीनी स्तर पर उतरकर सियासी संदेश देना होगा.

दरअसल, विपक्ष के रूप में पिछले कई सालों से प्रदेश से बसपा गायब है. सवाल खड़े होते रहे कि एक विपक्षी दल के रूप में मायावती अपनी भूमिका का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं बल्कि कई ऐसे मौके देखे गए हैं जब मायावती बीजेपी सरकार के सलाहकार की भूमिका में खड़ी दिखी हैं. हालांकि, आज भी मायावती देश में दलित की सबसे बड़ी नेता हैं और यूपी में दलितों की पहली पसंद बसपा है.ऐसे में मायावती की खामोशी की वजह से बसपा का सियासी आधार खिसका है.

आकाश आनंद के खिलाफ कार्रवाई करते हुए मायावती ने पार्टी के संस्थापक और अपने गुरु कांशीराम की विरासत का हवाला दिया, जिन्होंने पंजाब में एक चुनाव के दौरान अपनी बहन और भतीजी के खिलाफ भी कार्रवाई की थी. मायावती का तेवर कांशीराम की बहन और भतीजी आकाश आनंद जैसे तेवर वाली नहीं थी, उस समय की राजनीतिक स्थिति में और आज बहुत बड़ा फर्क है. इस एक्शन से मायावती ने दलितों को एक संदेश दिया है कि वह कांशीराम की विरासत की सच्ची उत्तराधिकारी हैं और पार्टी को बचाने के लिए उन्हें अपने परिवार के लोगों पर भी कार्रवाई करनी पड़े तो करेंगी.

मायावती के हर दांव में सियासत छिपी
मायावती की जो सियासी यात्रा है वो यह बताती है कि वो बहुत ही मंझी हुई नेता हैं, ऐसे में बिना किसी कारण के वो अपनी राजनीति से समझौता नहीं करने वाली. मायावती अब संघर्ष के बजाय समीकरण पर विश्वास ज्यादा करती हैं. बसपा ने अब खुद को जातीय और सियासी समीकरण में उलझा कर रखा है. मायावती ने बसपा को पूरे प्रदेश की पार्टी बनाने के बजाय कभी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे नैया पार करने की कोशिश करती हैं. इसे वो सोशल इंजीनियरिंग का नाम देती हैं. मायावती को लगता है कि लोगों के बीच जाने के बजाय जातीय समीकरण बना लीजिए और चुनाव जीत लेंगे, लेकिन मोदी के राजनीतिक उदय के बाद अब यह तिलिस्म बुरी तरह से टूट गया. इसके बावजूद मायावती उससे बाहर नहीं निकल पा रही हैं और पुराने फार्मूले पर कायम हैं.

बसपा की राजनीति करने का तरीका देश की दूसरी सियासी पार्टियों से बिल्कुल अलग है. कांशीराम ने बसपा को एक कैडर बेस और पार्टी में काम करने का मिशनरी मैकेनिजम बनाया है, उसी तरीके से काम कर रही है. बसपा का न तो मीडिया के साथ सरोकार रखती है और न ही वो सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करती है. बसपा बहुत ही खामोशी के साथ अपने कैडर के बीच काम करती है. 2007 में भी जब बसपा सरकार में आई थी तब भी किसी को यह अंदेशा नहीं था कि मायावती को पूर्ण बहुमत मिलेगा. हालांकि, पहले और अब की राजनीति बदल गई, लेकिन मायावती अभी भी बसपा को उसी पुराने और परंपरागत तरीके से उभारने की कवायद में है. ऐसे में देखना होगा कि मायावती का आकाश आनंद पर एक्शन के बाद बसपा का दलित वोटों में खासकर युवाओं को जोड़ने में कहां तक सफल होंगी.

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