अशोक भाटिया
अगले दो-तीन महीने में दिल्ली में विधानसभा का चुनाव होना है। दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, यह राजनीतिक हलकों में बड़ा सवाल है। दोनों ही दलों में इस सवाल को ही हर बार लगातार हो रहे नुकसान की वजह भी माना जा रहा है। कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कामकाज को आधार बना रही है और आम आदमी पार्टी पर हमलावर भी है। यहां भी इस पद के दावेदार का चेहरा गायब है। इसका संकट यह भी है कि अगर अंत में चुनावी गठबंधन हो जाता है तो इस स्थिति में कांग्रेस का पूरा गणित बिगड़ जाएगा क्योंकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में इसका नुकसान उठा चुकी है। अंदरखाने पार्टी में अभी भी गठबंधन में चुनाव मैदान में जाने का बड़ा डर भी चुनौती बना हुआ है।
इस समय राजधानी की सबसे हॉट सीटों में से एक सबकी नजर ‘नई दिल्ली सीट’ पर टिकी हुई है। यहां से दिल्ली के पूर्व सीएम और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ते हैं।ऐसे में इस बार भाजपा उन्हें कड़ी टक्कर देने की तैयारी कर रही है। इन्हीं तैयारियों के बीच भाजपा सूत्रों से जो खबर आ रही है कि पार्टी इस बार केजरीवाल के सामने एक कद्दावर और हिंदूवादी चेहरे को उतारने की तैयारी में है। यह पूर्व में विधायक और लोकसभा सांसद भी रहे हैं। इनके पिता राजधानी दिल्ली के पूर्व सीएम रहे हैं।सूत्रों के अनुसार पश्चिमी दिल्ली से दो बार सांसद रहे प्रवेश वर्मा विस चुनाव में नई दिल्ली क्षेत्र से केजरीवाल को चुनौती दे सकते हैं। नई दिल्ली विस क्षेत्र में उनकी सक्रियता से ऐसे संकेत मिल रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक, पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा को भाजपा नई दिल्ली से केजरीवाल के सामने चुनाव मैदान में उतार सकती है।वर्मा ने नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में कार्यकर्ताओं और नागरिकों के साथ बैठक और संवाद शुरू किया है। बीते कुछ दिनों में वो ऐसे चार-पांच कार्यक्रम कर चुके हैं। वर्मा पांचवीं विधानसभा में भी महरौली से विधायक चुने गए थे, लेकिन 2014 में भाजपा ने उन्हें पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा प्रत्याशी बनाया था और वह जीते थे।
सूत्र बताते है कि केजरीवाल के सामने कोई भी चेहरा उतरे पर उसे मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया जा सकता । देखने वाली बात यह है कि भाजपा ने एक साल के भीतर संपन्न हुए महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा, तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था। इनमें से 5 राज्यों में भाजपा को बड़ी जीत मिली जिसमें महाराष्ट्र भी शामिल है। पार्टी के सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न करने के पीछे कई कारण हैं। यह रणनीति अन्य राज्यों में लागू की गई सफल रणनीति के जैसे ही है। इससे आंतरिक मतभेदों को रोकने में मदद मिलती है और चुनावी फोकस व्यक्ति-केंद्रित अभियानों के बजाय नीतिगत मुद्दों पर रहता है। भाजपा ने 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। लेकिन पार्टी को सिर्फ तीन सीटों पर ही जीत मिली थी। 2013 में, भाजपा ने हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। पार्टी 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन बहुमत से दूर रह गई थी। 28 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के आठ विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई थी। हालांकि, यह सरकार सिर्फ 49 दिन ही चल पाई थी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा बिना मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए ही चुनाव मैदान में उतरी थी, लेकिन उसे केवल आठ सीटें ही मिली थीं।
स्पष्ट है कि महाराष्ट्र चुनाव जीतने बाद भाजपा दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत झोंकने जा रही है। ये ठीक है कि भाजपा को झारखंड में झटका लगा है, लेकिन हरियाणा के बाद महाराष्ट्र जीत लेने के बाद जोश बढ़ना तो स्वाभाविक ही है। लोकसभा चुनाव में मिले जख्मों के लिए लगातार दो चुनावों की जीत तो भाजपा के लिए बाम का ही काम कर रही होगी। लोकसभा चुनाव की बात करें, तो महाराष्ट्र में तो हरियाणा के मुकाबले काफी बुरा हाल हुआ था, लेकिन महाराष्ट्र की ऐतिहासिक जीत ने तो भाजपा नेतृत्व, नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाकर नेक्स्ट लेवल पर पहुंचा दिया होगा।
दिल्ली की बात करें तो लोकसभा चुनाव में भाजपा ने लगातार तीसरी बार एक जैसी ही कामयाबी हासिल की है। दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटें भाजपा के पास ही हैं, और विधानसभा चुनाव का सबसे ज्यादा दबाव तो दिल्ली के सातों सांसदों पर ही है।
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के विपरीत विधानसभा चुनाव में भाजपा लगातार पिछड़ रही है। 2013 में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी जरूर थी, लेकिन उसने सरकार नहीं बनाने का फैसला किया था। तब भाजपा को 32 विधानसभा सीटें मिली थीं, लेकिन 2015 में दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से वो 3 ही जीत पाई थी, 2020 में भाजपा के प्रदर्शन में सुधार जरूर आया लेकिन उसके 8 विधायक ही विधानसभा पहुंच पाये।
आप पार्टी के ग्राफ की बात करें तो और 2015 के नतीजों पर नजर डालें तो 70 में से 67 विधानसभा सीटें जीतने वाली अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 2020 में भी 62 सीटें जीती थी। बीते प्रदर्शनों के हिसाब से देखें तो सीटें घटने की सूरत में भी आम आदमी पार्टी के सत्ता में वापसी के चांस तो हैं, लेकिन जिस तरह जेल से छूट कर चुनाव कैंपेन का अरविंद केजरीवाल को कोई फायदा नहीं मिला, फिर से सरकार बनाना आसान नहीं लगता।
पिछले दो चुनावों में भाजपा भले ही फिसड्डी साबित हुई हो, लेकिन उसकी तरकश में कैलाश गहलोत जैसे तीर शामिल चुके हैं, जिसे अरविंद केजरीवाल के खिलाफ ही इस्तेमाल किया जाना है। और उसी खेमे से निकलीं स्वाति मालीवाल की मुहिम भी तो भाजपा के पक्ष में ही देखी जा सकती है। स्वाति मालीवाल भले ही भाजपा के साथ न आई हों, उसकी तकनीकी वजह भी हो सकती है क्योंकि वो आप की ही राज्यसभा सदस्य हैं, लेकिन उनका अभियान तो भाजपा के लिए मददगार ही माना जाएगा। स्वाति मालीवाल की मुहिम में भाजपा के कैंपेन की झलक देखी जा सकती है। मीडिया से बातचीत में भी भाजपा नेता बता रहे हैं, हम माइक्रो-लेवल पर मुद्दों को ध्यान से देख रहे हैं – और उन मुद्दों को ही बड़े स्तर पर उठाएंगे। अरविंद केजरीवाल का साथ छोड़ कर आये कैलाश गहलोत ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया है, और भाजपा ने भी जिम्मेदारियां देनी शुरू कर दी है। कैलाश गहलोत चुनाव समन्वय समिति और भाजपा की चुनाव घोषणा पत्र समिति का सदस्य बनाया गया है।
दिल्ली चुनाव में भाजपा का हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का एजेंडा पिछले दो चुनावों में तो बिलकुल नहीं चला है। पूरी तरह फेल होता आ रहा है। हिंदुत्व के साथ अरविंद केजरीवाल के खिलाफ भाजपा की तरफ से राष्ट्रवाद का एजेंडा भी चलाया गया, और 2020 में अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी साबित करने की मुहिम भी चलाई गई थी।झारखंड में तो घुसपैठियों का मुद्दा नहीं चला, लेकिन महाराष्ट्र ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का असर हरियाणा जैसा ही हुआ है। अब दिल्ली की बारी है। दिल्ली में भाजपा के पक्ष में कांग्रेस का कैंपेन भी फायदेमंद साबित हो सकता है। ये तो हम देखते ही आ रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी कांग्रेस के ही वोट काटकर आगे बढ़ती है, लेकिन दिल्ली चुनाव में तो कांग्रेस ही आम आदमी पार्टी के वोट काटती है। कांग्रेस भले ही बीते दो चुनावों में खाता भी नहीं खोल पाई हो, लेकिन अरविंद केजरीवाल के लिए तो मुसीबत लाने ही वाली है।
सुनने में आया है कि महाराष्ट्र में काम आया नुस्खा भाजपा दिल्ली में भी आजमाने जा रही है। जैसे महाराष्ट्र में लाडकी बहीण योजना का भाजपा के लिए फायदेमंद माना जा रहा है, दिल्ली में भी भाजपा महिलाओं के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना पर लाये जाने पर विचार कर रही है। ये कदम अरविंद केजरीवाल के दिल्ली की महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने की स्कीम को काउंटर करने के लिए ही होगा। मैनिफेस्टो को-आर्डिनेशन कमेटी से जुड़े भाजपा के नेता के हवाले से खबर आई है कि घोषणापत्र समिति महिलाओं के लिए एक विशेष कैश ट्रांसफर योजना तैयार करने जा रही है।हो सकता है, भाजपा ऐसे कुछ और भी योजनाओं पर विचार कर रही हो जिनका सामने आना बाकी है। हालांकि, अब तक अरविंद केजरीवाल की ऐसी योजनाओं को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेवड़ी ही कहते आये हैं।
भाजपा हमेशा ही अरविंद केजरीवाल के मुफ्त बिजली देने की योजना के खिलाफ रही है। भाजपा नेताओं का मानना है कि आम आदमी पार्टी पिछले 10 सालों से सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है। इसलिए हम अबकि खर्च जैसे मुद्दों की लड़ाई बनाना चाहते हैं।भ्रष्टाचार दिल्ली में मुद्दा तो बनेगा ही, असर कितना होगा कहना मुश्किल है – क्योंकि झारखंड में तो कोई असर नहीं हुआ। अरविंद केजरीवाल की ही तरह झारखंड में हेमंत सोरेन भी जेल गये थे। दोनो में फर्क सिर्फ ये था कि हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद जेल गये थे, और अरविंद केजरीवाल ने जेल से लौटकर इस्तीफा दिया है। झारखंड में तो भ्रष्टाचार का मुद्दा नहीं चला, दिल्ली में क्या होता है देखना होगा। भले ही अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले को लेकर भाजपा के खिलाफ हमलावर हैं, लेकिन इस मामले में कांग्रेस का व्यवहार भी उनके खिलाफ भाजपा जैसा ही है – और दिल्ली में तो भाजपा के साथ साथ कांग्रेस की भी कोशिश होगी, भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की।आपको बता दे कि अबकी बार कांग्रेस व आप पार्टी का कोई गठबंधन नहीं होने वाला है ।