अमेरिका, चीन जैसे देशों ने दिया धोखा, तो भारत ने रगड़ दिया, मुंह पर सुनाई खरी-खरी

नई दिल्ली- जब बात जलवायु परिवर्तन से निपटने की हो, तो यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं होता, बल्कि जीवन और मृत्यु का सवाल होता है परंतु अमेरिका और चीन जैसे विकसित देश, विकासशील देशों की बात सुनते तक नहीं यह कहने में गुरेज नहीं कि वे ‘मनमानी’ करते हैं अब जबकि पूरी दुनिया के सामने कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या मुंह खोले खड़ी है, तब भी उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है चीन, अमेरिका जैसे विकसित देश किस तरह भारत जैसे विकासशील देशों की सांसें रोकने की कोशिश में जुटे हैं, यह उसी की एक बानगी भर है

हाल ही में अजरबैजान के बाकू में आयोजित COP 29 सम्मेलन में 300 अरब डॉलर वार्षिक क्लाइमेट फाइनेंस का लक्ष्य तय किया गया, जिससे विकासशील देशों को मदद मिल सके लेकिन यह समझौते पर भी विवादों के बादल छा गए भारत ने इसे एक “दृष्टि भ्रम” बताते हुए कहा कि इससे असली जलवायु समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता दरअसल, विकासशील देशों ने इसके लिए कम से कम एक ट्रिलियन डॉलर (1000 अरब डॉलर) की मांग की थी चलिए समझते हैं इस समझौते की गहराई और भारत समेत विकासशील देशों की चिंताएं

क्या है COP 29 में तय समझौता?
संयुक्त राष्ट्र के अंतिम आधिकारिक मसौदे के अनुसार, COP 29 का मुख्य उद्देश्य जलवायु से जुड़ी पिछली फाइनेंस योजना को तीन गुना बढ़ाना था. पहले हर साल 100 अरब डॉलर (₹8.25 लाख करोड़) की योजना थी, जिसे अब 300 अरब डॉलर (24.75 लाख करोड़ रुपये) किया गया है

समझौते के मुताबिक, साल 2035 तक यह प्रयास किया जाएगा कि सार्वजनिक और निजी स्रोतों से विकासशील देशों को कुल 1.5 ट्रिलियन डॉलर (123.75 लाख करोड़ रुपये) तक की वित्तीय सहायता मिले. इसके अलावा, 1.3 ट्रिलियन डॉलर (1,07,25,000 करोड़ रुपये) विशेष रूप से अनुदानों और सार्वजनिक निधियों के रूप में कमजोर देशों के लिए सुनिश्चित किए जाएंगे.

भारत ने क्यों उठाए विरोध के स्वर?
भारत ने इस समझौते को नकारते हुए इसे “दृष्टि भ्रम” करार दिया भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने कहा, “यह दस्तावेज़ असल चुनौती का समाधान करने में असमर्थ है यह केवल एक दिखावटी समझौता है, जो असली समस्याओं को हल नहीं कर सकता” भारत ने विकसित देशों पर उनकी जिम्मेदारियों को पूरा न करने का आरोप लगाया. भारतीय पक्ष ने तर्क दिया कि यह समझौता विकासशील देशों की प्राथमिकताओं को अनदेखा करता है

क्या हैं COP 29 के प्रमुख नतीजे?

क्लाइमेट फाइनेंस का नया लक्ष्य: 2035 तक विकासशील देशों को हर साल 300 अरब डॉलर (24.75 लाख करोड़ रुपये) की सहायता का वादा
आगे की समीक्षा: 2026 और 2027 में रिपोर्ट्स के माध्यम से प्रगति की समीक्षा की जाएगी. 2030 में निर्णायक रिव्यू किया जाएगा
राष्ट्रीय जलवायु योजनाएं: 2025 तक सभी देश अपनी नई जलवायु योजनाएं प्रस्तुत करेंगे, जो इस समझौते की प्रगति का असली पैमाना होंगी
कार्बन मार्केट डील: सरकार-से-सरकार के बीच कार्बन मार्केट पर वर्षों से चले आ रहे गतिरोध को समाप्त कर समझौता किया गया
यूके का लक्ष्य: 1990 के स्तर से 2035 तक 81% उत्सर्जन कटौती की योजना. अन्य बड़े देशों से भी इसी तरह के कदमों की अपेक्षा

संयुक्त राष्ट्र और विशेषज्ञों की राय
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस समझौते को “उम्मीदों से कम” बताते हुए कहा, “यह समझौता एक आधार है, लेकिन इसे समय पर और पूरी तरह लागू करना जरूरी है.” उन्होंने कहा, “हमारे सामने खड़ी विशाल चुनौतियों का सामना करने के लिए मुझे इससे कहीं अधिक बेहतर रिजल्ट की उम्मीद थी”

संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन मामलों के कार्यकारी सचिव साइमन स्टील ने कॉप29 में हुए नए वित्त समझौते को, “मानवता के लिए एक बीमा पॉलिसी” क़रार दिया है. साइमन स्टील ने कहा, “इस समझौते से क्लीन एनर्जी के विकास को बढ़ावा मिलेगा और अरबों जिंदगियां बचेंगी. मगर किसी भी अन्य बीमा पॉलिसी की तरह, यह तभी काम करेगी, जब इसके लिए किस्तें समय पर और पूरी तरह अदा की जाएंगी.” उन्होंने माना कि किसी भी देश को वो नहीं मिला, जो उन्होंने चाहा था, और दुनिया पहाड़ जैसा काम लेकर बाकू से वापस लौट रही है. उन्होंने कह भी जोड़ा, “इसलिए, यह कोई जीत की खुशई में तालियां बजाने का समय नहीं है. हमें बेलेन के रास्ते पर अपनी नजर के साथ-साथ तमाम प्रयास करने होंगे.” बता दें कि 2025 का COP 30 सम्मेलन ब्राज़ील के पूर्वी अमेज़न इलाके बेलेन में होगा

भारत ने कहा- अत्यंत खेद..
भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने इस समझौते पर नाखुशी जताई और कहा कि इसमें अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए विकसित देशों की अनिच्छा झलकती है. रैना ने कहा, “मुझे यह कहते हुए अत्यंत खेद है कि यह दस्तावेज दृष्टि भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है”

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला के हवाले से लिखा गया कि “300 अरब डॉलर का लक्ष्य एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह धन कहां से आएगा. विकसित देशों से वित्त जुटाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है.” IPCC के लेखक दीपक दासगुप्ता ने इसे “पेंडोरा बॉक्स की आखिरी उम्मीद” बताते हुए कहा कि अगर यह फंड अनुदान के रूप में मिलता है, और कर्ज के बजाय सार्वजनिक धन पर केंद्रित रहता है, तो यह बड़ा बदलाव ला सकता है

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