अशोक भाटिया
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव रिजल्ट उस दिशा में है, जो बेहद दिलचस्प है। इधर महाराष्ट्र में सरकार बनाने का दावा कर रही महा विकास अघाड़ी ने हार मान ली है। रुझानों के आते ही संजय राउत का पारा चढ़ गया और प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर वह जमकर बरसे। संजय राउत ने कहा कि उन्हें यह रिजल्ट मंजूर नहीं है। यह फैसला जनता का नहीं हो सकता। महाराष्ट्र की जनता गद्दार नहीं है। संजय राउत ने कहा कि चुनाव रिजल्ट से पहले कुछ गड़बड़ किया गया है। उन्होंने गौतम अडानी के केस का भी जिक्र किया। उन्होंने मांग की है कि बैलट पेपर से फिर से महाराष्ट्र में चुनाव कराए जाएं। इससे लगता है कि उन्हें ईवीएम के रिजल्ट मंजूर नहीं है . उद्धव गुट के सांसद संजय राउत ने कहा, ‘महाराष्ट्र के लोग बेईमान नहीं है। हमें नतीजे कबूल नहीं है। यह जनता का फैसला नहीं है, जनता को भी यह फैसला कबूल नहीं है। यह जनता का निर्णय नहीं है।’ उन्होंने पूछा कि क्या महाराष्ट्र में संभव है कि शिंदे को महाराष्ट्र में 60 सीटें मिल जाएं? अजित पवार को 40 सीटें मिलें? क्या यह संभव है कि बीजेपी को 125 सीटें मिल रही हैं? यह संभव नहीं है। पर जब झारखण्ड में विपक्ष जीत रहा है तो वहां के बारे में इंडिया गठबंधन के नेता संजय राउत कुछ नहीं बोल रहे है जबकि वहां भी ईवीएम से ही चुनाव हुए है .
इसके पहले भी जब दो राज्यों के जम्मू-कश्मीर और हरियाणा चुनाव नतीजे आए थे । तब जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस-नैशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन की जीत हुई तो हरियाणा में बीजेपी की। लेकिन दोनों परिणामों को लेकर इंडिया गठबंधन की प्रतिक्रिया में जमीन-आसमान का फर्क था। जहां जीते वहां तो लोकतंत्र की जीत। राज्य के साथ ‘अन्याय’ और ‘अपमान’ का जनता का करारा जवाब। तरह-तरह के लच्छेदार जुमले। लेकिन जहां हार गए, वहां जनादेश का सम्मान तो दूर, उसे न स्वीकार करने का अहंकार। जीत गए तो ईवीएम ठीक, हार गए तो सारा दोष ईवीएम का।
हरियाणा चुनाव के लिए जब काउंटिंग शुरू हुई तो शुरुआती रुझानों में कांग्रेस बहुमत के आंकड़े को पार कर चुकी थी। लेकिन 1-2 घंटे बाद ही रुझान पलट गए। बीजेपी आगे हो गई। एक बार आगे हुई तो फिर अंतिम नतीजे आने तक आगे ही रही। पिछड़ने के बाद से ही इंडिया गठबंधन ने चुनाव आयोग पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। पहले काउंटिंग के आंकड़ों के कथित धीमे अपडेट का मुद्दा उठाया। वक्त के साथ जब रुझान निर्णायक मोड़ पर पहुंच गए तब ने ईवीएम पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया। जनादेश को स्वीकार करने के बजाय कांग्रेस ने काउंटिंग की प्रक्रिया पर सवाल उठा दिए। ईवीएम पर उंगली उठाई। साजिश का आरोप लगाने लगे। जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि मतगणना के वक्त कई ईवीएम में 99 प्रतिशत बैटरी चार्ज मिली। जिन ईवीएम की बैटरी 60-70 प्रतिशत चार्ज थीं वहां कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का दावा किया। जहां 99 प्रतिशत बैटरी चार्ज थी वहां बीजेपी की जीत का दावा किया. लेकिन चुनाव आयोग ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि ईवीएम बैटरी की क्षमता और नतीजों में कोई संबंध ही नहीं है।
इंडिया गठबंधन ने हार को स्वीकार कर आत्ममंथन और समीक्षा के बजाय बहानेबाजी का आसान रास्ता चुना लेकिन ऐसा करते हुए वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की महान लोकतांत्रिक प्रक्रिया और उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है। हरियाणा में इस बार कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार हुआ है। 90 विधानसभा सीटों वाले राज्य में 2019 में 31 सीट जीतने वाली कांग्रेस ने इस बार 37 सीटों पर जीत हासिल की। वोट शेयर में भी जबरदस्त इजाफा हुआ। पिछली बार कांग्रेस का वोटशेयर 28 प्रतिशत था तो इस बार 39 प्रतिशत यानी 11 प्रतिशत ज्यादा रहा। लेकिन प्रदर्शन में ये सुधार सत्ता तक नहीं पहुंचा पाया। ऐसा क्यों हुआ, उसकी समीक्षा के बजाय पार्टी चुनावी प्रक्रिया पर ही लांछन लगाने लगी है।
वैसे कांग्रेस या विपक्षी दल ऐसा पहली बार नहीं कर रहे। इससे पहले भी अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टियां ईवीएम पर चुप्पी या हो-हल्ला मचाती रही हैं। ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल तो सबसे पहले बीजेपी ने ही उठाए थे। 2009 की हार के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने ईवीएम पर संदेह किया था। बीजेपी के एक और नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो बाकायदे किताब लिखकर ईवीएम पर संदेह जताया था। लेकिन ईवीएम एक बार नहीं, कई बार अग्निपरीक्षा से गुजरी और हर बार बेदाग निकली। जब देश की सबसे बड़ी अदालत से ईवीएम और चुनाव आयोग को क्लीन चिट मिल गई तब इस पर चल रहा विवाद खत्म हो जाना चाहिए था।
निहित स्वार्थ के तहत चुनाव आयोग और ईवीएम को लांछित करने की कोशिशों पर सुप्रीम कोर्ट एडीआर जैसे समूहों को लताड़ लगा चुका है। इसी साल अप्रैल में जब लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी तब सर्वोच्च अदालत ने पिछले 70 सालों से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की तारीफ की और साथ में इस पर दुख जताया कि ‘निहित स्वार्थी समूह’ देश की उपलब्धियों को कमजोर कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईवीएम पर 8 बार परीक्षण किया गया और ये हर बार बेदाग निकली। ईवीएम को लेकर कई बार मामले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लेकिन हर बार उसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध मिली। वीवीपैट पर्चियों और ईवीएम में दर्ज वोटों के मिलान में कभी कोई विसंगति नहीं दिखी। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कई राज्यों में ईवीएम में दर्ज वोट और वीवीपैट का मिलान हुआ। सब सही पाया गया और ईवीएम बेदाग साबित हुई।
सात साल पहले 2017 में तो चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों या किसी भी व्यक्ति या संगठन को ईवीएम हैक करके दिखाने का खुला चैलेंज दिया था। तब सिर्फ 2 पार्टियों ने ही चैलेंज स्वीकार किया था- एनसीपी और सीपीएम। तय तारीख को दोनों पार्टियों के नेता चुनाव आयोग के दफ्तर तो पहुंचे लेकिन चैलेंज में हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं हुई। हां, आम आदमी पार्टी ने जरूर दिल्ली विधानसभा के भीतर प्रहसन किया। विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जुगाड़ के डिब्बों को ईवीएम का नाम देकर कथित तौर पर हैक करके दिखाया गया। पार्टी ने असली ईवीएम के बजाय ‘जुगाड़ डिब्बे’ का इस्तेमाल करके सस्ती पब्लिसिटी का हथकंडा अपनाया। चुनाव आयोग कार्रवाई न कर दे, इसलिए विधानसभा के विशेष सत्र की आड़ ली गई।
कुल मिलाकर, ईवीएम कई बार अग्निपरीक्षा से गुजरी है और हर बार बेदाग साबित हुई है। इसका इस्तेमाल चुनाव प्रक्रिया को आसान बनाने और बूथ कैप्चरिंग जैसे अपराधों पर लगाम लगाने के लिए किया गया। बैलट पेपर से चुनाव के वक्त अक्सर बैलट बॉक्स लूटे जाने, उनमें स्याही डालने, बूथ कैप्चरिंग जैसे अपराध सामने आते थे लेकिन ईवीएम का दौर आने से अब वे अतीत का हिस्सा बनकर रह गए हैं। ईवीएम से वोटिंग से परिणाम भी जल्दी आते हैं नहीं तो बैलट पैपर्स की गिनती में ही 1-2 दिन और लोकसभा चुनाव में तो 3-3, 4-4 दिन तक लग जाते थे। सुप्रीम कोर्ट भी बैलट पेपर से वोटिंग कराने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है। ईवीएम की शुचिता असंदिग्ध रहे, इसके लिए मशीन में दर्ज वोटों और वीवीपैट पर्चियों के मिलान होता है। पार्टियां अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़कर अपने समर्थकों का जोश ठंडा होने या उन्हें मायूस होने से तो रोक लेंगे, लेकिन ऐसा करके वे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को बेवजह दागदार करने की कुत्सित कोशिश ही कर रहे होते हैं। संवैधानिक संस्थाओं को लांछित करने का ये खेल खतरनाक है। चुनाव आते-जाते रहेंगे, हार-जीत होती रहेंगी लेकिन निहित स्वार्थों के तहत चुनाव प्रक्रिया को लेकर जनमानस में संदेह पैदा करने की कोशिशें शर्मनाक हैं। कांग्रेस हो या कोई और पार्टी, आखिर इससे कब बाज आएंगी?