अशोक भाटिया
इस वर्ष 2024 में हुए केंद्र व राज्यों के चुनावों में देखने लायक सबसे बड़ी बात यह है कि मतदाताओं ने क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा राष्ट्रीय पार्टियों को वोट देना उचित समझा । हालिया रिजल्ट देख कर क्षेत्रीय दलों में घबराहट है और खास कर उन दलों में जो एक विशेष जाति या समुदाय के भरोसे राजनीति करते है ।
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन भारतीय जनता पार्टी पर भारी पड़ा पर भले ही सरकार नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन कि बनी पर भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत 25.64% रहा, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस से अधिक रहा । दूसरे दलों की बात करें तो वे दूर – दूर तक दिखाई नहीं दिए । नेशनल कॉन्फ्रेंस- 42 बीजेपी-29 कांग्रेस-6 पीडीपी-3 मार्क्सवादी म्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम)- 1 जम्मू और कश्मीर पीपुल कॉन्फ़्रेंस (जेपीसी)-1 आम आदमी पार्टी-1 स्वतंत्र उम्मीदवार- 7 यानी वर्चस्व बड़े दलों का रहा .
यदि हरियाणा के चुनाव को देखा जाय तो वहां सीधी लड़ाई कांग्रेस व भाजपा में रही , और आंकड़े देखे तो कांग्रेस ने सीपीएम के साथ मिलकर 90 सीटों पर चुनाव लड़ा और एक सीट सीपीएम को दी. वहीं भाजपा ने 89 सीटों पर चुनाव लड़ा. दुष्यंत चौटाला की जेजेपी ने चंद्रशेखर आजाद की एएसपीकेआर (ASPKR) के साथ मिलकर कुल 78 सीटों पर चुनाव लड़ा. जेजेपी 66 सीटों पर लड़ी तो एएसपीकेआर 12 सीटों पर. वहीं अभय चौटाला की आईएनएलडी और बसपा (BSP) ने कुल 86 सीटों पर चुनाव लड़ा. इसमें आईएनएलडी 51 सीटों पर तो बसपा 35 सीटों पर चुनाव लड़ी. अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तो सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ी.भाजपा को 48 सीट व कांग्रेस को 37 सीट , इंडियन नेशनल लोक दल- 2 निर्दलीय- 3
गौरतलब है कि केंद्र और राज्यों में जिस हिसाब से भाजपा और कांग्रेस का दबदबा बढ़ता जा रहा है। इसे छोटी पार्टियों के लिए खतरे की घंटी के तौर पर देखा जा रहा है। 2024 का लोकसभा चुनाव छोटी पार्टियों के लिए अस्तित्व को बचाने की लड़ाई रही । कभी यही छोटे दल केंद्र और राज्य में किंगमेकर की भूमिका निभाते थे, लेकिन आज इनका दबदबा अपने ही क्षेत्र कम होता जा रहा है। इसके पीछे की बड़ी वजह कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है।
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही छोटी पार्टियां का दखल केंद्र और राज्यों से धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, जिन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस का स्ट्राइक रेट हाई है, वहां पर तो छोटी पार्टियों का वजूद भी खतरे में है। कर्नाटक और अब तेलंगाना विधानसभा चुनाव की ही बात करें तो दोनों ही राज्यों में क्षेत्रीय दल का सफाया कांग्रेस ने कर दिया। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से मतदाताओं ने इग्नोर कर दिया है। इसीलिए छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी का खाता नहीं खुला तो मध्य प्रदेश में सपा, आम आदमी पार्टी सहित बसपा खाता नहीं खोल सकी। इसी तरह राजस्थान में भी क्षेत्रीय पार्टियों का सियासी हश्र रहा।
मध्यप्रदेश में आप को 0 .54 फीसदी ,बीएसपी को 3.40 ,जेडीयू को 0.02 और समाजवादी पार्टी को 0.46 फीसदी वोट मिले । छत्तीसगढ़ में आप को 0.93 फीसदी , बीएसपी को 2 .05 फीसदी वोट मिले ।राजस्थान में हालाँकि इंडियन नेशनल लोकदल ने 1 और भारत आदिवासी पार्टी ने 3 सीटें जीती । बीएसपी को 2 सीटें मिली ।लेकिन यहाँ भी मुख्य मुकाबला 2 राष्ट्रीय दलों के बीच रहा ।
ध्यान देने योग्य यह बात है कि मध्यप्रदेश में आप पार्टी ने 70 से ज्यादा उम्मीदवार खड़े किये थे और समाजवादी पार्टी वहां 46 सीटों पर लड़ीं थी । कहा जा रहा है कि करीबी लड़ाई वाली कई सीटों पर समाजवादी पार्टी ने हर जीत से ज्यादा वोट पाए । बीएसपी,समाजवादी और आप पार्टी जैसे दलों के चुनाव मैदान में उतरने से जिस जाति के मतदाताओं के दम पर ये चुनाव लड़ रहे थे उनके वोट बिखर गए और उसका सीधा फायदा भाजपा को मिला ।
अब बात करें तेलंगाना की कांग्रेस को छत्तीसगढ़ और राजस्थान अपने दो राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ी है, लेकिन तेलंगाना की सियासी बाजी अपने नाम कर ली है। कर्नाटक के बाद तेलंगाना में कांग्रेस 119 सीटें में से 64 सीटें जीकर दक्षिण भारत के एक और राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली है। तेलंगाना में मिली कांग्रेस की जीत और बीआरएस की हार का सियासी प्रभाव सिर्फ दक्षिण की सियासत तक ही सीमित नहीं बल्कि क्षेत्रीय की राजनीति पर भी पड़ेगा।
तेलंगाना में बीआरएस को असदुद्दीन ओवैसी का साथ भी नहीं बचा सका और केसीआर सत्ता की हैट्रिक लगाने से चूक गए। ओवैसी भले ही सात सीटें अपनी बचाने में कामयाब रहे, लेकिन केसीआर की सत्ता नहीं बचा पाए। कर्नाटक के बाद अब तेलंगाना के नतीजे बताते हैं कि मुसलमानों का भरोसा क्षेत्रीय दलों से उठ रहा है और कांग्रेस की तरफ उनका झुकाव तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे सोचने वाली बात यह है कि तेलंगाना में कांग्रेस की जीत क्या अखिलेश यादव के लिए बुरी खबर है?
देखा जाय तो मुस्लिमों का वोटिंग पैटर्न तेजी से बदल रहा है। पहले दिल्ली के एमसीडी चुनाव में मुसमलानों ने आम आदमी पार्टी से मूंह मोड़ा और कांग्रेस के पक्ष में वोट किया। मुसलमान यह बात अच्छे से जानते हुए कि मुकाबला भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच है और कांग्रेस चुनावी लड़ाई में नहीं है। मुस्लिमों का कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग करना सियासी बदलाव के तौर पर देखा गया। दिल्ली के बाद कर्नाटक के चुनाव में मुसमलानों ने एकमुश्त वोट कांग्रेस के पक्ष में किया और जेडीएस को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया था। जेडीएस ने 23 मुस्लिम कैंडिडेट उतारे थे, लेकिन मुस्लिम इन सीटों पर कांग्रेस के हिंदू कैंडिडेट के पक्ष में वोटिंग किया था। एचडी देवगौड़ा के मजबूत गढ़ पुराने मैसूर क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं को जेडीएस का कोर वोटबैंक माना जाता था, जहां पर 14 फीसदी मुस्लिम हैं। इस बार के चुनाव में मुस्लिम मतदाता जेडीएस को दरकिनार कर कांग्रेस पार्टी के पक्ष में एकजुट हो गए थे। वहीं, अब मुस्लिमों ने तेलंगाना चुनाव में ओवैसी की पार्टी को पुराने हैदराबाद के इलाके की सीटों पर वोट किया, लेकिन तेलंगाना के बाकी इलाके में कांग्रेस के साथ रहे।
देश भर के मुस्लिमों की रहनुमाई का दावा करने वाले असदुद्दीन ओवैसी का गृह राज्य तेलंगाना है। ओवैसी ने तेलंगाना में केसीआर का खुलकर समर्थन किया था। मुस्लिमों ने हैदराबाद में उनकी परंपरागत सात सीटों पर भरोसा जताया, लेकिन बाकी हिस्से में उनका जादू मुस्लिमों पर नहीं चला। ओवैसी के सहारे मुस्लिम वोटों की पूरी तरह से मिलने की आस अधूरी रह गई है। मुस्लिम ने बीआरएस का साथ छोड़कर कांग्रेस के पक्ष में वोट किया जबकि सीएम केसीआर ने सत्ता में रहते हुए मुस्लिमों के लिए बहुत सारे काम किए थे। इसके बावजूद मुसलमानों ने बीआरएस के बजाय कांग्रेस को वोट किया।
केसीआर ने अलग से आईटी-पार्क, शादी मुबारक जैसी योजना के बाद मुस्लिमों ने राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए उसी तरह से किनारे कर दिया, जिस तरह से कर्नाटक में जेडीएस को किया था। मुसलमानों का वोट एकतरफा कांग्रेस को मिला, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा से मुकाबला करने में क्षेत्रीय दल से ज्यादा कांग्रेस सक्षम होगी। इसलिए कांग्रेस को मजबूत करने की मंशा से वोट कर रहा है।
कांग्रेस ने तेलंगाना में बीआरएस को भाजपा की बी-टीम होने का आरोप लगाती रही, जिसके चलते मुस्लिमों को लगा है कि बीआरएस चुनाव के बाद भाजपा के साथ गठबंधन कर सकती है। इसी तरह कांग्रेस ने कर्नाटक में जेडीएस को भाजपा की बी-टीम बताकर मुस्लिमों को बीच उसे कठघरे में खड़ा कर दिया था। अरविंद केजरीवाल पर भी कांग्रेस ऐसे ही सवाल खड़े करती रही है और उन्हें भाजपा की बी-टीम बताती रही। यह रणनीति कांग्रेस को फायदेमंद नजर आ रही है और मुस्लिमों का क्षेत्रीय दलों से मोहभंग हो रहा है।
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद कांग्रेस मुस्लिम समुदाय का भरोसा जीतने में लगातार कामयाब होती दिख रही है। लोकसभा चुनाव 2024 को देखते हुए कांग्रेस पार्टी के लिए तेलंगाना की जीत अच्छी खबर है, लेकिन सपा को टेंशन दे दी है। 2022 विधानसभा चुनावों को देखें तो उत्तरप्रदेश में मुसलमानों का एकमुश्त वोट सपा को मिला था। इसी तरह से बिहार में आरजेडी और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी पर भरोसा जताया था। मुस्लिम मतों के बदौलत ही सपा से लेकर आरजेडी और ममता तक सभी क्षेत्रीय दल सत्तासुख भोग रहे हैं। हालांकि, अब अगर मुसलमानों ने कांग्रेस में वापसी कर ली तो इन क्षेत्रीय दलों की हालत पतली हो जाएगी।
अब कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश पर है और मुस्लिम वोटर्स पर सपा का फिलहाल कब्जा है। कांग्रेस मुस्लिमों का विश्वास जीतने के लिए हरसंभव दांव चल रही है। कर्नाटक, तेलंगाना में जिस तरह से मुस्लिमों ने वहां के क्षेत्रीय दलों के बजाय कांग्रेस पर भरोसा जताया है, वैसे ही अगर उत्तरप्रदेश में भी मुस्लिमों ने कांग्रेस की तरफ रुख करते हैं तो फिर सपा के लिए अपनी सियासी जमीन बचाय रखना मुश्किल होगा। इसकी वजह यह है कि सपा का कोर वोटबैंक यादव और मुस्लिम है।
उत्तरप्रदेश में यादव 10 फीसदी तो मुस्लिम 20 फीसदी है। 2022 चुनाव में 87 फीसदी मुस्लिम समुदाय का वोट सपा को वोट मिला था। इसमें से अगर मुस्लिम वोट छिटक जाता है तो सपा के लिए अपने राजनीतिक वजूद को बचाए रखना मुश्किल होगा। मुस्लिम मतदाता पिछले चार चुनाव से सपा को वोट देकर देख लिया है, लेकिन अखिलेश यादव भाजपा को हराने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में मुस्लिम समुदाय का झुकाव तेलंगाना, कर्नाटक और दिल्ली की तरह उत्तरप्रदेश में भी होता है तो फिर सारे समीकरण बदल जाएंगे। इस बात को मुलायम सिंह यादव भी समझते थे, जिसके चलते कांग्रेस से हमेशा दूरी बनाए रखते थे ।